Saturday, September 29, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 51


 
महाभारत की कथा की 76वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

परब्रह्मपद की इच्छा 
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प्राचीन काल की बात है। कुरुक्षेत्र में मुद्गल नामक एक ऋषि हुआ करते थे। उन्होंने अतिथियों की सेवा का व्रत ले रखा था। वे बड़े कर्मनिष्ठ एवं तपस्वी थे। भिक्षा माँगकर अन्न इकट्ठा करते थे तथा उससे ‘इष्टीकृत’ नामक यज्ञ करते थे। प्रत्येक अमावस्या एवं पूर्णिमा को दर्श-पौर्णमास यज्ञ करते तथा अतिथियों को खिलाने के बाद जो बचता था, उससे ही अपना एवं अपने परिवार का निर्वाह करते थे। वे सभी एक पक्ष में एक ही दिन भोजन करते थे। उनके मन में कभी भी द्वेष नहीं आता था। उनका अन्न कभी घटता नहीं था, वरन् बढ़ता रहता था। इस कारण मुनि की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी।
इस प्रसिद्धि के बारे में जब दुर्वासा ऋषि को पता चला, तो वे परीक्षा लेने चले गये। अभी यज्ञ समाप्त ही हुआ था कि नंग-धड़ंग दुर्वासा उनकी कुटिया में आये।


दुर्वासा बोले - ‘‘विप्रवर! मैं आपकी कुटिया में भोजन की इच्छा से आया हूँ।’’


मुद्गल बोले - ‘‘मुनिवर! अहोभाग्य जो आप हमारी कुटिया में पधारे। आप हाथ-मुँह धो लें, मैं आपके भोजन की अभी व्यवस्था करता हूँ।’’


समस्त व्यवस्था करके उन्होंने दुर्वासा को भोजन परोस दिया। भोजन दुर्वासा को बड़ा स्वादिष्ट लगा। वे खाते गये। मुद्गल मुनि भी उन्हें भोजन तब तक देते रहे, जब तक कि दुर्वासा ऋषि संतुष्ट न हुए। इस प्रकार उन्होंने उनके घर का सारा अन्न खा लिया और जो जूठन बचा था, उसे अपने शरीर में लपेट लिया। उसके बाद वे धन्यवाद् कहकर जिधर से आये थे, उधर चले गये। मुद्गल ऋषि को परिवारसहित भूखा रहना पड़ा। उनकी स्त्री एवं पुत्र ने भी उनका साथ दिया। इसके उपरान्त भी उनके मन में किसी भी प्रकार का विकार न आया। दुर्वासा इसी प्रकार प्रत्येक यज्ञ वाले दिन आने लगे और सब-कुछ खाकर जाने लगे। ऐसा उन्होंने छः बार किया, किन्तु कभी उन्होंने मुद्गल ऋषि के मन में कोई विकार न देखा।


इससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि बोले - ‘‘मुने! आपके समान इस संसार में कोई दाता नहीं है। भूख बड़े-बड़ों को हिला देती है, किन्तु आपने उस पर भी विजय प्राप्त कर ली। आपकी ख्याति जगत् में फैल रही है। देवतागण भी ऐसी बातें करते हैं। आपका कल्याण हो।’’


मुद्गल मुनि ने दुर्वासा को प्रणाम किया और वे चले गये। तभी देवताओं का एक दूत विमान सहित उनके पास पहुँचा। उस विमान में दिव्य हंस एवं सारस जुते हुए थे तथा उससे दिव्य सुगंध फैल रही थी।


देवदूत ने मुद्गल मुनि से कहा - ‘‘मुनिवर! आप सिद्ध हो चुके हैं। यह विमान आपको आपके शुभकर्मों के कारण प्राप्त हुआ है। आप इसमें बैठिये।’’


मुद्गल मुनि ने कहा - ‘‘देवदूत! आपके इस निमंत्रण हेतु आपका आभार, किन्तु मुझे यह बताइये कि स्वर्ग में क्या सुख है एवं क्या दोष है?’’


देवदूत बोला - ‘‘धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, द्वेषरहित, शम-दम से सम्पन्न लोग ही यहाँ प्रवेश करते हैं। वहाँ देवता, साध्य, विश्वोदेव, महर्षि याम, धाम, गन्धर्व एवं अप्सरा के अलग-अलग लोक हैं। तैंतीस योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है। सुन्दर-सुन्दर वन-उपवन हैं। वहाँ किसी को भूख-प्यास नहीं लगती। वहाँ कोई कष्ट नहीं होता। शोक करने वाला नहीं है। सभी आनंद में रहते हैं। न बुढ़ापा आता है, न थकावट होती है। ऐसी अनेक बातें हैं, जो स्वर्ग में आपको देखने को मिलेंगी।


इसके ऊपर भी अनेक दिव्यलोक हैं। इनमें सबसे ऊपर ब्रह्मलोक है। अपने शुभ कर्मों से पवित्र ऋषि-मुनि यहाँ आते हैं। वहीं ऋभु नामक देवता समस्त स्वर्गवासी देवता के पूज्य भी रहते हैं। उनकी परा सिद्धि की अवस्था है, जिसे सभी देवगण प्राप्त करना चाहते हैं। आपने दान के माध्यम यह अवसर प्राप्त किया है। आप इसका उपभोग करें।’’


मुद्गल मुनि बोले - ‘‘अब दोष भी बता दें।’’


देवदूत बोला - ‘‘स्वर्ग में अपने किये हुए कर्मों का ही फल भोगा जाता है। नया कर्म नहीं किया जाता। वहाँ का भोग अपनी मूल पूँजी को गँवाकर ही प्राप्त होता है। यही सबसे बड़ा दोष है। तो एक बार कर्म समाप्त हो जाये, तो फिर गिरना ही पड़ता है। ब्रह्मलोक तक जितने भी लोक हैं, उन सभी में यह भय बना रहता है।’’


मुद्गल बोले - ‘‘यह तो बड़ा दोष है। इनके अतिरिक्त जो निर्दोष लोक है, उसका वर्णन कीजिये।’’


देवदूत बोला - ‘‘ब्रह्मलोक से ऊपर विष्णु का परमधाम है। वह शुद्ध सनातन लोक है, उसे परब्रह्मपद भी कहते हैं। विषयी पुरुष तो वहाँ जा ही नहीं सकते। वहाँ मात्र वही धर्मात्मा पहुँच सकते हैं, जो ममता एवं अहंकार से रहित हों, द्वन्द्वों से परे हों, जितेन्द्रिय हों एवं ध्यानयोग में निष्ठ हों।’’


यह सुनकर मुनि मुद्गल बोले - ‘‘देवदूत! मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिये। मुझे स्वर्ग का मोह नहीं है। पतन के बाद स्वर्गवासियों के दुःख को समझ सकता हूँ। मैं अब मात्र उस स्थान का अनुसंधान करूँगा, जहाँ जाकर व्यथा एवं शोक से मुक्ति मिल जाये।’’


देवदूत को विदा करने के बाद मुनि पुनः भिक्षावृत्ति से रहने लगे। उसके पश्चात् उन्होंने ज्ञानयोग का आश्रय लिया। ध्यानयोग से वैराग्य तक निष्ठा से धर्म का पालन किया। फिर ध्यान से बल पाकर बोध को प्राप्त किया। इस प्रकार उन्होंने परमसिद्धि प्राप्त कर ली। वे परब्रह्मपद अर्थात् सनातन लोक के अधिकारी बने। 


विश्वजीत 'सपन'

Tuesday, September 25, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 50


महादैत्य धुन्धु

किसी समय में अयोध्या नगरी पर बृहदश्व नामक राजा राज्य करते थे। वे सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु वंश के बड़े प्रतापी राजा थे। उस समय पृथ्वी पर उनके जैसा पराक्रमी राजा कोई न था। उसके पुत्र का नाम कुवलाश्व था, जो सभी विद्याओं में पारंगत और बड़ा बलवान् था। कुवलाश्व जब राज्य सँभालने के योग्य हो गया तो उसके पिता ने उसका राज्याभिषेक कर दिया और स्वयं तपस्या करने का मन बनाकर वन की ओर जाने लगे। प्रजा ऐसा नहीं चाहती थी। उन्होंने रोकने का प्रयास किया, किन्तु बृहदश्व न माने।


जब वो वन-गमन हेतु तैयार हुए, तभी महर्षि उत्तंक उनकी राजधानी में आये और उन्हें वन जाने से रोकते हुए राजा बृहदश्व से कहा - ‘‘राजन्! आप वन को न जायें। आप पहले हमारी रक्षा करें।’’


राजा ने महर्षि का स्वागत किया और पूछा - ‘‘मुनिवर, हमें बताइये कि आपको किस प्रकार का कष्ट है? मेरे योग्य कोई सेवा तो अवश्य बताइये। ऐसा कौन-सा कार्य है, जिसके लिये मुझे वन-गमन से आप रोकना चाहते हैं?’’


तब महर्षि उत्तंक ने बताया - ‘‘राजन्! तो सुनिये। मेरा आश्रम मरुदेश में है। उस आश्रम के निकट ही रेत से भरा हुआ एक समुद्र है, जिसका नाम उज्जालक सागर है। वहाँ एक बड़ा ही बलवान् और क्रूर महादैत्य रहता है। उसका नाम धुन्धु है। वह मधुकैटभ का पुत्र है। उसने ब्रह्मा जी से वर प्राप्त किया हुआ है, अतः देवता भी उसको मारने में असमर्थ हैं। वह पृथ्वी के भीतर छिपकर रहता है। वर्षभर में मात्र एक बार ही साँस लेता है और जब साँस छोड़ता है, तो सारी धरती डोलने लगती है। रेत का ऊँचा बवंडर उठने लगता है, जिससे सूर्य तक छिप जाता है। अग्नि की लपटें उठने लगती हैं और धुएँ से सारा आकाश भर जाता है। अग्नि की लपटें, चिंगारियाँ और धुएँ उठते रहते हैं। ऐसे में आश्रम में रहना दूभर हो जाता है। जब तक उसका वध नहीं होता, हम कभी भी निर्विघ्न होकर तप नहीं कर पायेंगे। अतः आप उससे हमारी रक्षा कीजिये।’’


राजा ने महर्षि को आश्वस्त किया और बोले - ‘‘ब्रह्मन्! आप चिंतित न हों। मेरा पुत्र कुवलाश्व यह कार्य करेगा। यह पराक्रम एवं तपोबल में धनी है। इसके जैसा पराक्रमी इस भूमण्डल पर कोई नहीं है। यह अवश्य ही इस कार्य को पूर्ण करेगा। इसमें इसके पुत्र भी साथ देंगे। मैंने तो शस्त्रों का त्याग कर दिया है।’’


उत्तंक ने कहा - ‘‘जैसा आप उचित समझें राजन्।’’ ऐसा कहकर महर्षि तपोवन में चले गये। उन्हें नारायण की कही बात स्मरण हो आयी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने कहा था कि बृहदश्व का पुत्र कुवलाश्व ही एक पराक्रमी दैत्य का वध करेगा।


उधर कुवलाश्व अपनी सेना लेकर महर्षि के आश्रम की ओर चल पड़ा। वह अपनी सेना के साथ शीघ्र ही समुद्र तट के उस किनारे पर पहुँच गया, जहाँ वह दैत्य धरती के भीतर सोया हुआ था। उसने अपनी सेना को आज्ञा दी कि रेती को खोदकर उस दैत्य को निकाला जाये। सात दिनों तक निरन्तर खुदाई होने के बाद वह दैत्य दिखाई पड़ा। उसका शरीर अत्यधिक विशाल था और बाहर आते ही ब्रह्माजी के वरदान के कारण देदीप्यमान होकर चमकने लगा। कुवलाश्व की सेना ने उस पर आक्रमण कर दिया। उसे वर प्राप्त था कि देवता, दानव, यक्ष, राक्षस या सर्प से उसकी मृत्यु नहीं हो सकती थी। इसी कारण भगवान् विष्णु ने कुवलाश्व में अपना तेज स्थापित कर दिया, ताकि वह धुन्धु का वध कर सके।


बाणों की वर्षा होने से धुन्धु क्रोधित हो उठा। वह उन अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया। उसके बाद वह अपने मुख से संवर्तक अग्नि के समान आग की लपटें उगलने लगा। कुवलाश्व की सेना बड़ी थी, किन्तु कुछ ही देर में उन लपटों में जलकर कुवलाश्व की पूरी सेना भस्म हो गयी। उसने क्रोध से कुवलाश्व को देखा, जैसे उसे वह अभी निगल जायेगा। उसने कुवलाश्व की ओर बढ़ना प्रारंभ किया। कुवलाश्व उससे कदापि भयभीत न था। वह भी उसकी ओर बढ़ा। उसके बाद उसने तपोबल से अपने शरीर से जल की वर्षा की। उस वर्षा ने धुन्धु के मुख से निकलती हुई अग्नि को पी लिया। अग्नि के बुझ जाने पर धुन्धु का बल क्षीण हो गया। तभी आकाशवाणी हुई - ‘यह राजा कुवलाश्व स्वयं अवध्य रहकर धुन्धु का वध करेगा और धुन्धुमार के नाम से विख्यात होगा।’


ऐसी आकाशवाणी होते ही देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजा दीं। वे पुष्प की वर्षा करने लगे। चारों दिशाओं में तीव्र हवा चलने लगी। तब धूल को शान्त करने के लिये इन्द्र ने वर्षा प्रारंभ कर दी। इस मध्य कुवलाश्व ने ब्रह्मास्त्र चलाकर उस दैत्य को मार गिराया। इस कारण से कुवलाश्व धुन्धुमार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसने अनेक वर्षों तक निष्कंटक पृथ्वी पर राज्य किया। उसके तीन पुत्र हुए - दृढ़ाश्व, कपिलाश्व एवं चन्द्राश्व। इन तीनों से ही इक्ष्वाकु वंश की परम्परा आगे बढ़ी। 



- विश्वजीत 'सपन'