Monday, August 26, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 88)

 महाभारत की कथा की 113 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 


 
 

सृष्टि, काल और युग
==============
  
महर्षि व्यास अपने पुत्र को समय-समय पर उपदेश देते रहते थे। एक दिन उनके पुत्र शुकदेव ने उनसे पूछा - ‘‘पिताजी, इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्म ही था। यह तेजोमय ब्रह्म ही सबका बीज है। इसी से समस्त जगत् की उत्पत्ति हुई है। उस एक ही भूत से स्थावर एवं जंगम दोनों की उत्पत्ति होती है। ब्रह्मा जी अपने दिन के प्रारंभ में जागकर सृष्टि की रचना करते हैं। सर्वप्रथम माया से महतत्त्व प्रकट होता है, उससे स्थूल सृष्टि का आधारभूत मन उत्पन्न होता है। सृष्टि से प्रेरित होकर मन नाना प्रकार के आकार धारण करता है, उससे शब्द गुण वाले आकाश की उत्पत्ति होती है। जब आकाश में विकार होता है, तो उससे पवित्र वायुतत्त्व का आविर्भाव होता है। वायु के विकृत होने पर ज्योतिमय अग्नितत्त्व प्रकट होता है। इस तेज में विकार होने पर रसमय जलतत्त्व की उत्पत्ति होती है। फिर जल से पृथ्वी का प्रादुर्भाव होता है।


    पंचमहाभूत, दस इन्द्रियाँ एवं मन, इन सोलह तत्त्वों से शरीर का निर्माण हुआ है। इनका आश्रय लेने के कारण ही इसे देह कहते हैं। शरीर के उत्पन्न होने पर उनमें अपने-अपने कर्मों के साथ सूक्ष्म महाभूत प्रवेश करते हैं। समस्त जीव की उत्पत्ति ब्रह्मा ही करते हैं।’’


    शुकदेव ने पूछा - ‘‘यह काल का स्वरूप क्या है पिताजी?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘पंद्रह निमेष की एक काष्ठा, तीस काष्ठा की एक कला, तीस कला तथा तीन काष्ठा का एक मुहूर्त एवं तीस मुहूर्त का एक रात-दिन कहा जाता है। तीस दिन का एक मास एवं बारह मास का एक वर्ष कहा जाता है। एक वर्ष में दो अयन होते हैं - उत्तरायण एवं दक्षिणायन। मनुष्य के एक मास में पितरों का एक दिन-रात होता है। शुक्ल पक्ष उनका दिन और कृष्ण पक्ष उनकी रात्रि होती है। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन-रात होता है अर्थात् उत्तरायण उनका दिन और दक्षिणायन उनकी रात्रि होती है। देवताओं के बारह हजार वर्षों का एक चतुर्युग होता है। एक हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है। साथ ही एक हजार चतुर्युग की उनकी एक रात्रि होती है। ब्रह्मा अपने दिन के प्रारंभ में सृष्टि की रचना करते हैं और जब प्रलय का समय होता है, तो रात्रि में सबको अपने में लीन करके योगनिद्रा में आश्रय लेकर सो जाते हैं।’’


    शुकदेव ने पूछा - ‘‘पिताजी, युगों की महत्ता क्या है? उसमें क्या-क्या विभेद हैं?’’


    व्यास जी ने बताया - ‘‘देवताओं के चार हजार वर्षों का एक सत्ययुग होता है। इसमें चार सौ दिव्य वर्षों की संध्या एवं उतने ही का संध्यांश होता है। इस प्रकार सत्ययुग की आयु अड़तालीस सौ दिव्य वर्षों की होती है। त्रेता युग में यह घटकर छत्तीस सौ वर्षों की, द्वापर में चैबीस सौ वर्षों की तथा कलियुग में बारह सौ वर्षों की रह जाती है। 


    सत्ययुग में धर्म एवं सत्य के चारों चरण उपलब्ध होते हैं एवं इनका पूर्णतः पालन किया जाता है। कोई भी अधर्म में प्रवृत्त नहीं होता। इनमें मनुष्यों की आयु चार सौ वर्षों की होती है। त्रेता में यह आयु घटकर तीन सौ वर्षों की, द्वापर में दो सौ वर्षों की तथा कलियुग में सौ वर्षों की रह जाती है। इसका कारण धीरे-धीरे अधर्म में वृद्धि है। स्वाध्याय एवं वेदाध्ययन कम होता जाता है, कामनाओं की पूर्ति में बाधा आने लगती है। इन युगों में धर्म भी भिन्न-भिन्न होते हैं। सत्ययुग में तप को सबसे बड़ा धर्म माना गया है, त्रेतायुग में ज्ञान को उत्तम बताया गया है, द्वापरयुग में यज्ञ को श्रेष्ठ बताया गया है जबकि कलियुग में एकमात्र दान को ही धर्म बताया गया है।’’


    शुकदेव ने कहा - ‘‘पिताजी, तप का इतना प्रभाव क्यों कहा गया है?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटे, तप का मूल है शम एवं दम। मनुष्य अपनी जिन-जिन कामनाओं की इच्छा करता है, उन्हें वह तप के माध्यम से पूर्ण कर लेता है। परमात्मा की प्राप्ति भी तप से ही होती है। तपशक्ति से सम्पन्न होकर ही ब्रह्मा जी ने वेद-विद्या का ज्ञान प्राप्त किया तथा उन्हें ऋषि-मुनियों तक फैलाया। तप से कुछ भी हासिल किया जा सकता है।’’


    शुकदेव ने पूछा - ‘‘परब्रह्म का साक्षात्कार कैसे होता है? युगों में मनुष्यों की कैसी स्थिति रहती है?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘पुत्र, ब्रह्म के दो स्वरूप होते हैं - एक शब्दब्रह्म एवं दूसरा परब्रह्म। इन दोनों का ज्ञान आवश्यक है। जिसे शब्दब्रह्म का पूर्ण ज्ञान हो जाता है, वह सरलता से परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है। सत्ययुग में लोग वेदोक्त धर्मों के अनुसार तप, यज्ञादि करते हैं। उसके बाद त्रेतायुग में भी वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान एवं वर्ण-आश्रम परम्परा का पालन हुआ करता है, किन्तु द्वापर युग में आयु की न्यनता के कारण इन बातों की कमी होने लगती है तथा  कलियुग में अधर्म के कारण यज्ञ, वेदादि लुप्त हो जाते हैं। यही सृष्टि का चक्र है।’’


    इस प्रकार महर्षि व्यास ने अपने पुत्र शुकदेव को सृष्टि की उत्पत्ति, काल के स्वरूप के बारे में बताया जो ब्रह्मा के मुख से चलकर ऋषि-मुनियों के पास आया और सम्पूर्ण जगत् में ज्ञान के रूप में व्याप्त हुआ।


विश्वजीत 'सपन'

Sunday, August 18, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग-87)




महाभारत की कथा की 112 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

ध्यान एवं धारणा तथा मोक्ष
=========================


    शुकदेव अपने पिता से जीवन के रहस्यों को समझ रहे थे। उनके सभी प्रश्नों के उत्तर व्यास जी सुन्दरता से बताते जा रहे थे। शुकदेव ने पूछा - ‘‘पिताजी, मोक्ष प्राप्ति के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘इस भवसागर को पार करने के लिये हमें ज्ञानरूपी नौका का आश्रय लेना चाहिये। हमें ध्यानयोग की साधना करनी चाहिये और उनके बारह उपायों के आश्रय लेने चाहिये।’’


    शुकदेव ने पूछा - ‘‘ध्यानयोग के ये बारह उपाय क्या हैं पिताजी? मुझे थोड़ा विस्तार में बतायें।’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘ध्यानयोग की साधना किसी एकान्त, पवित्र एवं समतल स्थान पर करनी चाहिये। इस प्रकार के उपयोगी स्थल को देशयोग कहा जाता है। आहार, विहार, चेष्टा, सोना तथा जागना नियमानुकूल होना चाहिये। इसे कर्मयोग कहा गया है। सदाचारी शिष्य को अपनी सेवा एवं सहायता के लिये रखना अनुरागयोग कहा गया है। आवश्यक सामग्री का संग्रह अर्थयोग कहलाता है। ध्यानोपयोगी आसन में बैठना उपाययोग है। इस संसार के विषयों एवं सगे-सम्बन्धियों से आसक्ति एवं ममता से मुक्त होना अपाययोग कहलाता है। गुरु एवं वेदों के वचनों पर विश्वास रखना निश्चययोग है। इन्द्रियों को वश में रखना चक्षुर्योग है। शुद्ध एवं सात्विक भोजन आहारयोग है। विषयों की ओर स्वाभाविक प्रवृत्तियों को रोकना संहारयोग है। मन के संकल्प, विकल्प को शान्त करने का प्रयास मनोयोग है तथा संसार के दुःखों पर विचार न कर उससे विरक्त होना दर्शनयोग है। इन समस्त उपायों को करते हुए ही ध्यानयोग की साधना करनी चाहिये।’’


    शुकदेव ने कहा - ‘‘जी पिताजी। इनके आश्रय लेकर किस प्रकार मोक्ष की साधना करनी चाहिये?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘जिसे भी मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा हो, उसे बुद्धि के द्वारा मन एवं वाणी को जीतना चाहिये। इससे मृत्युरूपी सागर को पार किया जा सकता है। उसे तभी शीघ्र सफलता मिल सकती है, यदि वह किसी एक विषय अर्थात् ब्रह्म में अपने चित्त को स्थापित कर लेता है। इस स्थापना को धारणा कहा जाता है तथा यह सात प्रकार का होता है।’’


    शुकदेव ने कहा - ‘‘जी पिताजी। इस धारणा के प्रकारों को भी थोड़ा विस्तार से बताने की कृपा करें।’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘पुत्र, शरीर में पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अव्यक्त एवं अहंकार - इन सातों तत्त्वों का चिन्तन किया जाता है। यही सात प्रकार की धारणायें हैं। शरीर में पैर से लेकर घुटने तक का स्थान पृथ्वी का है, घुटने से गुदा तक का स्थान जल का है, गुदा से हृदय तक का स्थान तेज का है, हृदय से दोनों भौहों तक का स्थल वायु का तथा भ्रूमध्य से मूर्धा तक का स्थल आकाश का कहलाता है। इनकी धारणा के बाद नाद का चिन्तन अव्यक्त धारणा है और स्थूल देह की आसक्ति का त्याग अहंकार की धारणा है।


    इसकी अनुभूति को जान लेना भी आवश्यक है। जब पृथ्वी की धारणा का प्रारंभ होता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि कुहरे के समान कोई सूक्ष्म वस्तु आकाश को आच्छादित कर रही है। यह प्रथम स्वरूप है। इसके उपरान्त जब वह कुहरा निवृत्त हो जाता है, तब दूसरे रूप का दर्शन होता है। इसमें देह के भीतर एवं सम्पूर्ण आकाश में जल ही जल दिखाई देता है। तीसरी स्थिति में सर्वत्र आग की ज्वालायें दिखाई देती हैं। इसके विलीन हो जाने पर आकाश में सर्वत्र वायु का अनुभव होता है। इस समय साधक को शरीर का मात्र ऊपरी भाग ही दिखाई देता है। जब वह तेज का संहार कर वायु पर विजय पाता है, तो वायु का सूक्ष्म रूप आकाश में लीन हो जाता है। इस समय एक छिद्ररूपी नीला आकाश ही विद्यमान रहता है। योगी का शरीर सूक्ष्मता को प्राप्त करता है और उसे स्थूल शरीर का कोई भान नहीं रहता।’’


    शुकदेव ने कहा - ‘‘जी पिताजी। इसकी प्रक्रिया क्या है?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘पृथ्वी भाग में भावना द्वारा प्रणवसहित लं बीज एवं वायु देवता की स्थापना करके चतुर्मुख ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिये। पाँच घड़ी तब इस धारणा से पृथ्वी तत्त्व पर विजय मिलती है। इससे साधक में सृष्टि की शक्ति आ जाती है। जल की धारणा में प्रणवसहित वं बीज एवं वायु देवता की स्थापना करके चतुर्भुज विष्णु का ध्यान करना चाहिये। पाँच घड़ी की साधना से सभी प्रकार के रोगों से मुक्ति मिलती है तथा साधक समस्त पृथ्वी को कम्पित करने की क्षमता वाला हो जाता है। अग्नि के स्थान में प्रणवसहित रं बीज एवं वायु देवता की स्थापना से त्रिनेत्रधारी शिव का ध्यान करने से अग्नि से जलने का भय नष्ट हो जाता है। वायु के स्थान में प्रणवसहित वं बीज एवं वायु देवता की स्थापना कर शंकर का ध्यान करने से आकाश में विचरने की शक्ति आ जाती है। तब आकाश तत्त्व के स्थान में प्रणवसहित हं बीज एवं वायु देवता की स्थापना कर शंकर का ध्यान करने से शरीर को अदृश्य करने की क्षमता आ जाती है। इसके बाद अव्यक्त की धारणा में नाद का चिंतन किया जाता है। फिर जब वह अहंकार पर विजय प्राप्त कर लेता है, तो समस्त भूत उसके वश में आ जाते हैं। पंचभूत एवं अहंकार इन छः तत्त्वों का आत्मा है बुद्धि। जब वह साधाक इस बुद्धि को जीत लेता है, तो उसे समस्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति हो जाती है। तब उसे विशुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है। इसी समय योगी को तत्त्व का अथवा यों कहें कि ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है।’’


विश्वजीत 'सपन'

Sunday, August 11, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 86)




महाभारत की कथा की 111 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

प्रलय एवं उसका क्रम
===============

    पूर्वकाल की बात है। महर्षि व्यास के पुत्र शुकदेव ने अपने पिता से सृष्टि की उत्पत्ति एवं काल के बारे में जानने के बाद पूछा - ‘‘पिताजी, आपने बताया कि ब्रह्मा के दिन प्रारंभ से सृष्टि का प्रारंभ होता है और रात्रि पर प्रलय। सृष्टि की उत्पत्ति मैं समझ गया। यह प्रलय किस प्रकार होता है? कृपया मुझे विस्तार से बतायें।’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘तुम जान ही चुके हो कि एक हजार चतुर्युग का ब्रह्मा जी का एक दिन और उतने ही समय की एक रात्रि होती है। ब्रह्मा जी दिन के प्रारंभ में सृष्टि की रचना करते हैं तथा रात्रि के प्रारंभ में सबको स्वयं में लीन करना प्रारंभ करते हैं। ब्रह्मा जी के दिन बीतने पर इस सृष्टि का लय किस प्रकार होता है तथा ब्रह्मा जी इस स्थूल जगत् को सूक्ष्म करके किस प्रकार अपने भीतर लीन कर लेते हैं, उसे तुम सुनो।’’


    शुकदेव ने सिर हिलाकर अपनी सहमति दी। 


व्यास जी ने कहना प्रारंभ किया - ‘‘तुम्हें पता ही है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी अपने गुणों को विकसित करके जगत् का निर्माण करते हैं। इन पंचमहाभूतों को सूक्ष्मता किस प्रकार आती है, यह ज्ञान अति अवश्यक है। जब जगत् के प्रलय का समय आता है, तब ऊपर से तेजस्वी सूर्य तथा नीचे से अग्नि की सात ज्वालायें संसार को भस्म करने लगती हैं। सर्वप्रथम पृथ्वी के चराचर प्राणी इन ज्वालाओं से दग्ध होकर नष्ट होने लगते हैं। सभी प्राणी, पादप आदि जल कर राख बन जाते हैं। पृथ्वी इनसे विहीन होकर कछुए की पीठ की भाँति दृष्टिगत होती है, जहाँ श्मशान जैसी वीरानी फैल जाती है। स्थावर-जंगम कुछ भी संसार में बचा नहीं रहता। 


उसके बाद यही तेज पृथ्वी के गुण गन्ध को भी ग्रहण कर लेता है। पृथ्वी तब गन्धहीन हो जाती है तथा यही गन्धहीन पृथ्वी अपने कारणभूत जल में लीन हो जाती है। जल में लीन होते समय जल की ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगती हैं। चारों ओर से जल पृथ्वी को घेरने लगते हैं। एक विनाशलीला का प्रारंभ होता है। सम्पूर्ण भूमि, पर्वत आदि डूबने लगते हैं। कुछ समय के उपरान्त सम्पूर्ण विश्व जल में निमग्न हो जाता है। 


तदनन्तर तेज जल के गुण रस को ग्रहण कर लेता है तथा रसहीन जल तेज में लीन हो जाता है। जल की धारायें उठ-उठकर तीव्रता से तेज में समाने लगती हैं। यह ऐसा समय होता है, जब सम्पूर्ण आकाश अग्नि की लपटों से आच्छादित-सा दिखाई देता है। जैसे अगस्त्य मुनि ने समुद्र को पी लिया था, ठीक उसी प्रकार समस्त जल का पान हो जाता है।


उसके बाद तेज के गुण रूप को वायुतत्त्व ग्रहण कर लेता है। तेज के वायु के ग्रहण करते ही अग्नि ठण्डी हो जाती है और वायु में मिल जाती है। इस मिलन के कारण वायु अबाध गति से चलने लगती है। चारों ओर विनाश का दृश्य दिखाई देने लगता है। वायु की गति अत्यधिक हो जाती है और हर दिशा में हरहराते हुए चलने लगती है। 


उसके उपरान्त आकाश वायु के गुण स्पर्श का ग्रहण कर लेता है। इसके कारण वायु शान्त होकर आकाश में लीन हो जाती है। तदनन्तर शब्द गुण से युक्त मात्र आकाश रह जाता है। इस समय रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श का कुछ भी अंश उपलब्ध नहीं रहता। वे सभी शब्द में लीन हो जाते हैं। इसके उपरान्त इस दृश्य जगत् को व्यक्त करने वाला मन आकाश के गुण शब्द को स्वयं में लीन कर लेता है। मन से ही शब्द की उत्पत्ति होती है तथा वह उसी में पुनः लीन हो जाता है। इस प्रकार इन पंचभौतिक का ब्रह्मा के मन में लीन होना ही प्रलय कहलाता है। इसे ब्राह्म प्रलय भी कहा जाता है। इस प्रकार देखा जाये, तो समस्त भूतों के प्रलय स्थान भी ब्रह्मा जी ही हैं।


यही संक्षेप में प्रलय का वृत्तान्त है। यही सृष्टि एवं प्रलय का क्रम निरन्तर चलता रहता है। इसी प्रकार एक-एक हजार चतुर्युगों के ब्रह्मा जी के दिन एवं रात होते रहते हैं। उनके दिन के आरंभ में सृष्टि एवं रात्रि के आरंभ में प्रलय का यह क्रम सतत् चलता रहता है।’’


कहते हैं कि इसी प्रकार संसार की उत्पत्ति एवं प्रलय का क्रम चलता रहता है। संसार की सृष्टि एवं उसके प्रलय का यह प्राकृतिक नियम कभी भंग नहीं होता। यही जीवन का एक महासत्य है, जिसे प्रत्येक मनुष्य को जानना चाहिये। 


विश्वजीत 'सपन'

Sunday, August 4, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 85)




महाभारत की कथा की 110 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

समत्वबुद्धि से ब्रह्मपद-प्राप्ति

====================
   
    प्राचीन काल की बात है। मुनियों में उपदेश ग्रहण करने की प्रथा थी। वे किसी भी ऋषि-मुनि से अपनी जिज्ञासाओं को शान्त करने का अनुरोध किया करते थे। तब ऋषि-मुनि भी उनकी जिज्ञासाओं का समुचित समाधान किया करते थे। ऐसी ही एक प्राचीन कथा है, जिसमें असित-देवल मुनि जैगीषव्य के आश्रम पहुँचे। उनके मन में ब्रह्मपद प्राप्ति हेतु उपायों को जानने की जिज्ञासा थी। मुनि जैगीषव्य ने उनका अतिथि के समान सत्कार किया और बोले - ‘‘बताइये मुनिवर, आपके मेरे आश्रम में आने का क्या प्रयोजन है? मैं आपकी किस प्रकार सेवा कर सकता हूँ।’’


    इस पर असित-देवल ने मुनि को प्रणाम कर कहा - ‘‘मुनिश्रेष्ठ, आप धर्मज्ञानी हैं। आप मुझे बतायें कि एक धर्मज्ञानी की क्या गति होती है।’’


    मुनि जैगीषव्य ने कहा - ‘‘धर्मज्ञानी को कभी कोई दुःख नहीं होता। वे इसका अनुभव नहीं करते। वे धर्म के अनुसार अपना जीवन चलाते हैं तथा हमेशा ही सुखी रहते हैं। वास्तव में वे ही जीवन को जीते हैं, शेष तो मात्र जीवन काटते हैं।’’


    असित-देवल ने कहा - ‘‘मुनिवर, मैंने सुना है कि यदि कोई आपको प्रणाम करे, तो आपको अधिक प्रसन्नता नहीं होती तथा कोई आपकी निंदा करे, तो भी आप क्रोध नहीं करते। इसका क्या रहस्य है? यह कैसे संभव है?’’


    मुनि जैगीषव्य ने कहा - ‘‘मुनिवर, इसे समत्वबृद्धि कहते हैं। महात्मा पुरुष वे होते हैं, जिसकी कोई निंदा करे अथवा प्रशंसा के गीत गाये, चाहे उसके सदाचार एवं पुण्यकर्मों पर परदा डाले, वे सबके प्रति एक समान ही बुद्धि रखते हैं। यही समत्वबुद्धि है। मेरा जीवन इसी के अधीन है, अतः मेरी ऐसी वृत्ति है।’’


    असित-देवल ने पूछा - ‘‘किन्तु मुनिवर, निन्दा होने पर अपमान की अनुभूति होती है। एक मानव इसे सहन नहीं कर सकता। इस पर किस प्रकार विजयश्री पायी जा सकती है?’’


    मुनि जैगीषव्य ने कहा - ‘‘मुनिवर, एक तत्त्ववेत्ता अपमान को अमृत के समान समझ कर उससे संतुष्ट होते हैं तथा सम्मान को विषतुल्य समझ कर उससे डरते हैं। एक निर्दोष आत्मा को अपमान से कोई चिन्ता नहीं होती। वह इस बात को समझता है कि अपमान करने वाला स्वयं ही अपने अपराध से मारा जाता है। उसकी चिन्ता करने की उसे कोई आवश्यकता नहीं होती। अपमान अथवा सम्मान मात्र भ्रम है। समझने की सबसे बड़ी बात यह है कि निन्दा से न कोई हानि होती है और प्रशंसा से न कोई लाभ। तब इनके बारे में सोचना ही अनुचित जान पड़ता है। इसी कारण धर्मज्ञानी मनुष्य इनसे कभी भी किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं होते।’’


    असित-देवल ने कहा - ‘‘उचित है मुनिवर। आपका हार्दिक आभार अनुपम ज्ञान की बातें बताने के लिये। कृपया इस प्रकार की बुद्धि के बारे में मुझे विस्तार से बताने की कृपा करें।’’


    जैगीषव्य ने कहा - ‘‘बुराई को कभी बुराई न मानना। उसे भूल जाना। भविष्य की चिन्ता न करना और वर्तमान में जीना। जो बीत चुका है, उसके लिये शोक न करना। किसी भी बात के लिये प्रतिज्ञा न करना। क्रोध को जीतना एवं जितेन्द्रिय बनना। मन, वाणी एवं शरीर से अपराध न करना। मन में ईर्ष्या न रखना। सर्वथा शान्त एवं सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न रहना। हृदय की अज्ञानमयी गाँठ को खोलकर चारों ओर आनन्द से विचरण करना। न किसी को शत्रु मानना और न ही किसी का शत्रु बनना। ये सभी व्यवहार इस बुद्धि के होते हैं। यह बुद्धि समत्व का ज्ञान देती है और किसी भी मनुष्य के लिये सभी प्रकार के सुख का कारण बनती है।’’


    असित-देवल ने कहा - ‘‘इस प्रकार की बुद्धि का फल क्या होता है? इसे विस्तार से बताने की कृपा करें, मुनिश्रेष्ठ।’’


    जैगीषव्य ने कहा - ‘‘पुण्यकर्म करने वाले मनुष्यों को इस बुद्धि से परम गति की एवं शान्ति की प्राप्ति होती है। यह बुद्धि उन्हें धर्म पालन में संलग्न करती है। वे समस्त प्रकार के इस व्रत के आचरण के कारण सुखी होते हैं। इन्द्रियों को अपने वश में करके अविनाशी ब्रह्मपद को प्राप्त करते हैं। इससे उत्तम गति और क्या हो सकती है। यह देवता, गन्धर्व, पिशाच एवं राक्षस के लिये अति दुर्लभ होती है। अतः शास्त्रों के अनुसार यही सर्वथा उपयुक्त बुद्धि बतायी गयी है। धर्म मार्ग का अवलम्बन करने के कारण इन्हें सदा ही शान्ति का अनुभव होता है।’’


विश्वजीत 'सपन'