Friday, April 18, 2014

गीता ज्ञान - 3




कर्मयोग
            गीता को पढ़ते समय इस बात का अनुभव किया जा सकता है कि गीता के द्वितीय अध्याय का प्रारंभिक भाग वेदान्त दर्शन से प्रभावित है। उस कालखण्ड में सांख्य को ही सर्वोच्च दर्शन माना गया था, जिसमें ज्ञान की महत्ता को उचित और मोक्ष का कारण माना गया था तथा कर्म त्याग को प्रश्रय दिया गया था। हमें इस बात को समझना होगा कि महाभारत काल में सांख्ययोग एवं कर्मयोग की साधनाएँ बहुलता से प्रचलित थीं और वे विपरीत दिशा में गमनशील थीं। स्थितियाँ इतनी विकट थीं कि संन्यासी कर्म नहीं करता था और गृहस्थ संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता था। जबकि यह भी सत्य है कि भारतीय दर्शन में कभी भी कर्म की महत्ता को कम नहीं किया गया था। यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ (यजु. 1.1) अर्थात् प्रत्येक शुभकर्म यज्ञ है, यह वैदिक काल से ही मान्यता रही थी। किन्तु समय के साथ समाज में परिवर्तन नियम है और एक विचार को अधिक प्रश्रय देना भी स्वाभाविक है। ऐसे में जब समाज दो धड़ों में बँट गया तो एक सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक हो गया था और इसी पृष्ठभूमि में कर्म की महत्ता को स्थापित करना गीता का उद्देश्य था। वह कर्म कैसा हो? क्यों हो? यही विस्तार तृतीय अध्याय में मिलता है। अतः अर्जुन की दुविधा मात्र उसकी नहीं है बल्कि समस्त समाज की है और इसलिए जब कर्म-त्याग को प्रश्रय दिया गया और पुनः कर्म करने को कहा गया जो परस्पर विरोधी बातें थीं तो अर्जुन का भ्रमित होना अपेक्षित था।
                    ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
          तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।गी.3.1।।
          अर्थात् हे जनार्दन, यदि कर्म की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है तो हे केशव, मुझे आप युद्ध जैसे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?
          अर्जुन का कहना उचित था और प्रश्न भी उचित था कि जब इस संसार में ज्ञान की ही महत्ता है और उसे श्रेष्ठ माना गया है तो फिर युद्धकर्म को किस प्रकार उचित माना जाए। इसमें तो मानव-हत्या का भी दोष है। ऐसे कर्म करने को कहना क्या उचित है? अर्जुन का कथन इसलिए भी उचित प्रतीत होता है क्योंकि जब केवल ज्ञान से ही भ्रम दूर होगा और किसी का कल्याण संभव होगा तो कर्म करने की क्या आवश्यकता है? जब श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय में पहले ज्ञानयोग और उसके पश्चात् कर्मयोग की बातें कीं तो अर्जुन का इस तरह भ्रमित होना एक सामान्य स्थिति थी और यह वह स्थिति थी जहाँ से कर्म और ज्ञान के समन्वय की स्थापना का बीज बोना था। अतः श्रीकृष्ण ने अर्जुन की भ्रांति का निवारण करते हुए बताया कि कर्मत्याग के निर्देश नहीं हैं बल्कि दोनों ही योगों में कर्म आवश्यक हैं।
                    न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
          न च संन्सनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।गी.3.4।।
          अर्थात् मनुष्य न तो कर्मों को करना बंद करके निष्कामता को प्राप्त कर सकता है और न ही कर्मों के त्यागमात्र से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
          कर्म तो प्राकृतिक हैं और उन्हें करना ही होता है और साथ ही गीता में स्पष्ट कहा गया है कि कर्म तो स्रष्टा का प्रथम आदेश है। इसलिए गीता में कर्म को यज्ञ कहा गया है और यज्ञकर्म करने के बाद अन्न ग्रहण करने वाले को पुण्यात्मा कहा गया है। वस्तुतः यज्ञकर्म में ही ब्रह्म नित्य स्थित है - "तस्मात् ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्" (गी.3.15)। यह इसलिए भी कि कर्म प्रणिमात्र का धर्म है और उसे चाहिए कि वह अच्छे कर्म करके एक आदर्श प्रस्तुत करे ताकि लोग उनका अनुसरण कर सकें - "यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः" (गी.3.21)। यह भी एक सत्य है कि जैसे कर्म बड़े लोग करते हैं, छोटे भी उसी का अनुसरण करते हैं और इसलिए ईश्वर जो सबसे बड़े हैं, उन्हें सबसे अधिक सावधान होकर कर्म करना पड़ता है। किन्तु वे कर्म कैसे हों? इस पर भी विचार गीता के इस अध्याय में विस्तार से किया गया है।
                    यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
          तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचार।।गी.3.9।।
          अर्थात् यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अलावा यदि कोई अन्य कर्म करता है तो वह कर्म-बंधन में बँधता है, अतः हे कुन्तीनन्दन! तुम यज्ञ में करणीय कर्म को अनासक्त होकर करो।
          कर्तव्य पालन के कर्म का अर्थ है सभी प्रकार के कार्य अर्थात् खेती-बाड़ी, व्यापार, नौकरी आदि मनुष्य के कर्तव्य-पालन रूपी कर्म हैं। गृहस्थ कर्म तो मानवमात्र का सबसे का धर्म है। ऐसे कर्मों से ही जीवन का निर्धारण होता है, जिसका त्याग ईश्वरीय इच्छा का सम्मान नहीं हो सकता है। केवल इस बात का ध्यान रखना होगा कि मनुष्य को अपने मन से इन्द्रियों पर नियंत्रण करके आसक्ति रहित होकर संयमपूर्वक निष्काम भाव से निर्धारित कर्म करना होगा और जो ऐसे कर्म करेगा, वही श्रेष्ठ मनुष्य है। और इसलिए हे अर्जुन, तुम कर्तव्य के निमित्त किए जाने वाले कर्मों को अनासक्त होकर करो। तुम्हारा कर्म क्षत्रिय धर्म है और जब पाप का विनाश करना हो तो पाप के विरुद्ध युद्ध करना तुम्हारा यज्ञकर्म ही है।
          इस प्रकार श्रीकृष्ण कर्म की महत्ता को समझाते हुए यह कहते हैं कि कर्म-विषयक हमारा दृष्टिकोण शुद्ध होना चाहिए। कर्म में स्वधर्म भी आवश्यक है। मानव को कामरूप शत्रु को अपनी बुद्धि मन एवं इन्द्रियों को संयमित करके नष्ट कर देना चाहिए। तभी निष्काम कर्म संभव है। वस्तुतः शरीर, इन्द्रिय आदि सभी प्रकृति के द्वारा निर्मित हैं किन्तु आत्मा उनसे पृथक है और जब इस तथ्य को समझ कर कोई स्वकर्म करते हुए निर्लिप्त रहते हुए अहंता-ममता से मुक्त रहते हैं तो वे ज्ञानी कहलाते हैं।
विश्वजीत सपन

Wednesday, April 9, 2014

गीता-ज्ञान भाग-२




द्वितीय अध्याय – सांख्ययोग
गीता के द्वितीय अध्याय में सांख्ययोगका वर्णन किया गया है। यह दर्शन का वह उच्च मार्ग है, जो अति-प्राचीन काल से भारत में प्रचलित रहा है। महाभारत के शांतिपर्व में इसके संबंध में कहा गया है - ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किचिंत् सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन्सांख्यशब्द की व्युत्पत्ति कुछ इस प्रकार है - सम्यक् ख्यानं ज्ञानमिति सांख्यम् जिसका अर्थ है सम्यक् ख्याति और सत्य ज्ञान। एक समय था जब इस दर्शन की मान्यता अत्यधिक थी। इस दर्शन में एक बात पर बल दिया गया था कि कर्म कितना ही क्यों न किया जाए दुःख दूर नहीं हो सकते जब तक कि आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होगा। इस दर्शन की सबसे प्रसिद्द उक्ति रही है कि बिना प्रकाश के रस्सी रुपी सर्प का नाश नहीं हो सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकाश के अभाव में हम रस्सी को सर्प समझ लेते हैं और जैसे ही प्रकाश होता है तो हमें ज्ञान होता है कि यह तो रस्सी है। यही ज्ञान आवश्यक हैयहाँ ज्ञान का अर्थ आध्यात्मज्ञान अथवा आत्मज्ञान से है अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मवस्तु एवं अनात्मवस्तु का बोध हो।
इसे समझने के लिए हम सरल भाषा में इस प्रकार कह सकते हैं कि मनुष्य भटका हुआ प्राणी है। उसे जीव-जगत् विषयक वास्तविक ज्ञान नहीं है। ऐसे में व्यक्ति कभी-कभी अपने कर्तव्य-पथ से विचलित हो जाता है। तब वह कर्तव्य को अकर्तव्य और अकर्तव्य को कर्तव्य समझ कर स्वधर्म से विचलित हो जाता है। यही बात गीतकार अर्जुन के माध्यम से कहते हैं :
            गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
            हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।
         अर्थात् अर्जुन कहता है कि महानुभाव गुरुजनों को मार कर जीवन जीने की तुलना में मैं इस लोक में भिक्षान्न से जीवन बिताना अधिक कल्याणकारी समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मार कर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ एवं कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा। यह कथन ही क्षत्रिय धर्म से विचलित होने का प्रमाण है। युद्ध अर्जुन का स्वधर्म था और क्षत्रिय-सुलभ कर्म भी था। ऐसे में अज्ञानवश भिक्षाटन कर जीवन जीने का उपक्रम और संन्यासी बन जीवन को जीने कि उसकी लालसा उसका धर्म नहीं हो सकता था। भावनाओं के भाव-सागर में लिप्त अर्जुन को यह भी ज्ञात नहीं रहा कि शरीर तो नश्वर है; उसका विनाश तो अटल है तो फिर मोह कैसा? तब श्रीकृष्ण उसे का सत्य का अवलोकन करवाते हैं और कहते हैं :
            य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
            उभौ तौ न विजीनीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
            अर्थात् जो व्यक्ति इस आत्मा को मारने वाला अथवा मरने वाला मानते हैं, ऐसे दोनों ही सत्य को नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वस्तुतः न तो किसी को मारती है एवं न ही किसी के द्वारा मारी जाती है। सच तो यह है कि आत्मा न कभी जन्म लेती है और न ही कभी मरती है। यह तो अजन्मा, निरंतर रहने वाली, सनातन है। शरीर चाहे मृत हो जाए, किन्तु आत्मा कभी नहीं मर सकती।
            सच तो यह है कि नये शरीर का मिलना जन्म है और पुराने शरीर का छूटना मृत्यु है। जन्म और मृत्यु तो शश्वत नियम हैं। इससे विचलित होना भ्रम है। "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।"  संसार में केवल दो ही तत्त्व हैं - सत् एवं असत्। सत् का नाश नहीं हो सकता और असत् को विनाश से नहीं बचाया जा सकता। आत्मा सत् है। अतः आत्मा के नाश का दुःख असत् है। आत्मा के सत् होने के साथ ही इस अध्याय में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संयोजन किया गया है। विचारणीय है कि मैं शरीर हूँ - यह मानना अहंताहै और शरीर से संबंधित व्यक्ति एवं वस्तुएँ मेरी हैं, यह मानना ममताहै। श्रेय-पथ में अहंताएवं ममतादोनों ही बाधक होते हैं। कर्तव्य का स्थान भावना से बहुत ऊँचा होता है। अतः कर्तव्य का पालन ही श्रेष्ठ है। अर्जुन अहंता एवं ममता में पड़ कर स्वधर्म के पालन से विमुख हो रहा था। इसके बाद भी हिंसा तो हिंसा ही है। एक साधारण मनुष्य युद्धजनित हिंसा को भी बुरा मान ही सकता है। तब भगवान् श्रीकृष्ण उसे यह अमर ज्ञान देते हैं कि युद्धजनित हिंसा दोषमुक्त है। यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि हिंसा कहते हैं किसे हैं और किसे नहीं। सीमा पर एक सिपाही जब विरोधी सिपाही को मारता है तो क्या वह हिंसा है अथवा वह हिंसा है जो समाज में किसी लाभ अथवा सोद्देश्य की गई हत्या? इसे हम कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं कि जिस प्रकार एक न्यायाधीश फाँसी देता है, किन्तु हत्या का दोष उसे नहीं लगता क्योंकि वह निरपेक्ष है, ठीक उसी प्रकार युद्धजनित हिंसा भी निरपेक्ष होता है। वस्तुतः विनाश की क्रिया परमात्मा अथवा प्रकृति द्वारा होती है। मनुष्य तो निमित्तमात्र है।
            यदि ध्यान एवं ज्ञान से देखा जाए तो संसार में पूर्णतः सुखमय अथवा दुःखमय कुछ भी नहीं होता। अनुकूल जहाँ सुख देता हैं, वहीं प्रतिकूल दुःख का कारण बनता है। अतः समदृष्टि आवश्यक है। समत्व ही संतुलित जीवन का पर्याय है और यही साधना मनुष्य को स्थितप्रज्ञता की ओर लेकर जाती है। यही वह स्थिति है जब मनुष्य हर प्रकार के दुःख एवं सुख से पृथक हो जाता है और मात्र स्वधर्म का पालन करता है। इस स्थिति का भान होने पर अर्जुन स्थितप्रज्ञ के बारे में पूछते हैं -
स्थितिप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।
       अर्थात् हे केशव! स्थितप्रज्ञ की क्या परिभाषा है, उसके लक्षण क्या हैं, वे कैसे बोलते हैं, उठते-बैठते कैसे हैं?
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -
            प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
            आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
            अर्थात् हे अर्जुन! जब मनुष्य मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग देता है और आत्मिक सुख द्वारा आत्मा में संतुष्ट रहता है, तो वह पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
            यह सर्वथा परमानंद की स्थिति होती है। यह आनंद इतना उत्तम और पूर्ण होता है कि मनुष्य को किसी अन्य आनंद की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। तब उसका समत्वयोग सिद्ध हो जाता है। ऐसी स्थिति में कभी राग, द्वेष, भय, घृणा, कुण्ठा, क्रोधाधि उत्पन्न नहीं होते हैं। इस समय अखण्ड शांति का अनुभव होता है और तब निश्चय ही यह जगत् स्वप्न-संसार की भाँति निस्सार और मिथ्या प्रतीत होता है। यही असल में सत्य है। यही जीवन रहस्य है।
            यहाँ गीता में जिस सांख्ययोग का वर्णन है और जो आत्मतत्त्व का विवेचन है वह वेदान्त का प्रभाव है। यह एक वृहद् विषय है और इस पर चर्चा फिर कभी क्योंकि कपिल द्वारा प्रतिपादित सत्कार्यवाद के सिद्धांत को सांख्ययोग के रूप में देखा जा सकता है और इसके भी दो मत हैं – परिणामवाद और विवर्तवाद। उसके बाद भी कई मत बने जो उस समय प्रासंगिक थे और समाज के कल्याण के लिए आवश्यक थे। एक सम्यक विचार को समाज के कल्याण हेतु प्रस्तुत करते हुए इस अध्याय के माध्यम से श्रीकृष्ण यह संदेश दे रहे हैं कि जीवन एवं मरण शाश्वत सत्य है। इसे लेकर दुःख करना अनावश्यक है। जो भी नष्ट होता है वह परमात्मा की इच्छा से होता है अतः उसके लिए शोक नहीं करना चाहिए। मनुष्य को स्थितप्रज्ञ बनकर जीवन को निरपेक्ष भाव से देखना एवं जीना चाहिए। यहाँ जो उद्देश्य निहित है वह है कि कर्मक्षेत्र में निष्ठापूर्वक समभाव कर्म करना ही सच्चा ज्ञान है। यही ज्ञान उद्धारक है। असल में वर्णाश्रम निहित कर्म ही प्रत्येक मनुष्य का प्रथम धर्म है। और संक्षेप में कहा जाए तो आत्मतत्त्व को भली-भाँति समझकर निर्लिप्त भाव से कर्म करना ही सांख्ययोग है।
           
विश्वजीत 'सपन'

Sunday, April 6, 2014

पढ़े-लिखे और विद्वान् का सम्मान होना चाहिए



शास्त्रोपस्कृतशब्दसुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयाऽगमा
विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभोनिर्धनाः।
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयस्त्वर्थं विनापीश्वराः
कुत्स्याः स्युः कुपरीक्षका हि मणयोयैरर्घतः पातिताः।।


अर्थात् शास्त्रोपरिष्कृत शब्दों से सुन्दर वाणी से युक्त, शिष्यों को देने योग्य विद्या से युक्त, प्रसिद्ध कवि जिस राजा के राज्य में निर्धन होकर रहते हैं। वह राजा की मूर्खता है। कवि तो धन के बिना भी ऐष्वर्यसम्पन्न हैं। यदि मणियाँ परीक्षकों द्वारा गिरा दी जाए तो दोष मणियों का नहीं होता।

कहने का तात्पर्य यह है कि राजा का कर्तव्य होता है कि वह अपने राज्य में स्थित विद्वानों का यथोचित सम्मान करे और यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वस्तुतः यह उसकी मूर्खता ही कही जाएगी क्योंकि विद्वानों के पास जो यशरूपी धन होता है उसे कोई क्षीण नहीं कर सकता और वह बिना धन के ही धनवान् बना रहता है। यदि कोई अज्ञानी हीरे को पत्थर समझकर उसको उपेक्षापूर्वक कूड़े में फेंक दे तो दोष हीरे का नहीं होता।
यही जगत का एक सत्य है। जिसने भी इसके महत्त्व को समझा वह जीवन में व्यवहार समझ लेता है।

सपन

Thursday, April 3, 2014

गीता ज्ञान - प्रथम 1





प्रथम अध्याय
 

श्रीमद्भागवद्गीता में प्रवेश से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि यह महाग्रंथ महाभारत के भीष्मपर्व के २५ से ४२ वें अध्याय तक का अंश है। कथा कुछ इस प्रकार है कि बारह वर्षों के वनवास एवं एक वर्ष के अज्ञातवास के पश्चात् पांडव जब वापस आये तो उन्होंने अपना आधा राज्य माँगा। दुर्योधन ने जब अस्वीकार कर दिया तो युद्ध अवश्यम्भावी हो गया। कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत का महासमर प्रारंभ हुआ। सैन्य निरीक्षण के दौरान अर्जुन को अपने ही सगे-सम्बन्धियों से युद्ध करना उचित नहीं लगा और उसके विषादयोग का प्रारंभ हुआ।

गीता के प्रथम अध्याय में विषादयोग का वर्णन किया गया है। विषाद अर्थात् मनोव्यथा ही दुःख है। विषम परिस्थितियों में विचलित हो जाना ही मानवीय सहज प्रवृत्ति है। दुःख से सभी दूर रहना चाहते हैं, तो इसे कैसे ईश्वर से योग का साधन माना जाए। इसी तथ्य को इस अध्याय में बताया गया है।

महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन का सामना भी इसी विषाद के साथ हुआ था, जब उसने देखा कि जो युद्धरत थे, वे कोई अन्य नहीं थे, बल्कि उसके अपने ही सगे-संबंधी थे। अपनों को शत्रु के रूप में देखकर अर्जुन विषादयुक्त हो उठा था।

          अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
        यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।

अर्थात् यह अत्यंत ही शोक एवं आश्चर्य की बात है कि हम बुद्धिमान होकर भी जान-बूझ कर इस कुलाघात के महापाप करने को तत्पर हो गए हैं और राज्य सुख के लोभ में स्वजनों के वध को ही तत्पर हो गए हैं।

ऐसे ही अनेक प्रकार के शोक मानव को जीवन भर सताते रहते हैं। किन्तु क्या इसे पकड़कर रखना चाहिए और जीवन भर संतप्त होकर जीना चाहिए? यह एक सामान्य प्रश्न है। इस प्रश्न को गीतकार ने सम्मुख रखकर इस अध्याय का सृजन किया है कि यदि हम दुःख को प्रभु का प्रसाद मानकर एवं इनके उपचार हेतु स्वयं को प्रभु की शरण में उपस्थित कर दें तो यही विषाद प्रभु से मिलन की पहली सीढ़ी भी बन जाती है। अर्जुन ने भी यही किया और स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया।


          कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
       यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यतेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।

अर्थात् हे प्रभु, कायरतारूपी दोष से उपहत स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में चित्त डगमगाने वाला हुआ मेरा मार्ग प्रशस्त करें क्योंकि मैं आपका शरणागत शिष्य हूँ।

यहीं से अर्जुन के भगवद्योग का प्रारंभ हो जाता है। जब आस्तिकता और आस्था की डोर पकड़कर विषाद को मानव ईश्वरार्पित कर देता है तो ईश्वर उसका समाधान अवश्य करते हैं और अपने भक्त की सुधि लेते हैं। जिस प्रकार जीवन-चक्र चलता है, ठीक उसी प्रकार हर्ष एवं विषाद का चक्र भी सत्य है अर्थात् हर्ष के पहले विषाद एक सत्य है और सागर-मंथन का यही प्रथम रत्न है। यही विषादयोग है और यह वेदान्त दर्शन के प्रथम सूत्र "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" के समान है।

यहाँ यह कहना उपयुक्त होगा कि अर्जुन की चिंता मानवता से परे कदापि नहीं थी, किन्तु वह प्रासंगिक नहीं थी। अवसर के अनुकूल नहीं थी क्योंकि यह स्वधर्म से पृथक थी। एक युद्ध के लिए तैयार हो जाने के पश्चात् रणभूमि को त्यागना क्षत्रिय धर्म नहीं कहा जा सकता था। साथ ही वह अधर्म के विरुद्ध खड़ा था, जिसका नाश करना उसका कर्तव्य भी था।

                                                                                                                            विश्वजीत 'सपन'