Wednesday, September 30, 2020

महाभारत की लोककथा - (भाग 103)

 

महाभारत की कथा की 128 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।


महातपस्वी शुकदेव जी - मोक्ष का विचार (भाग 1)

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एक बार व्यास जी ने हिमालय पर उग्र तपस्या की। प्रसन्न होकर महादेव जी ने उन्हें वर दिया कि उनका पुत्र महान् तपस्वी होगा। शुकदेव जी को जन्म से ही सब वेद आदि उपस्थित हो गये, जिस प्रकार उन्हें व्यास जी जानते थे। ब्रह्मचर्य में ही मोक्ष का विचार करते हुए उन्होंने अपने पिता से पूछा तो व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटा, तुम मोक्ष एवं अन्यान्य धर्मों का अध्ययन करो।’’


    तब शुकदेव जी ने सम्पूर्ण योग एवं सांख्यशास्त्र का अध्ययन किया। जब व्यास जी को विश्वास हो गया कि उनका पुत्र अब योग्य हो गया है, तब उन्होंने कहा - ‘‘बेटा, अब तुम मिथिलानगरी राजा जनक के पास जाओ। एक साधारण व्यक्ति की भाँति जाओ। उनकी आज्ञा का पालन करो तथा उनसे मोक्ष ज्ञान की शिक्षा लो।’’


    आज्ञा पाकर शुकदेव जी मिथिला की ओर चल दिये। पर्वत, नदी, तीर्थ आदि पार करते हुए चीन तथा हूण आदि देशों को पार करते हुए आर्यावर्त पहुँचे। फिर वे मिथिलानगरी के राजमहल के पास गये, तो उन्हें द्वारपाल ने रोक दिया। वे वहीं रुक गये, किन्तु उस स्थान से हटे नहीं। प्रातः से मध्याह्न हो गया। वे डटे रहे। न शोक किया तथा न ही क्रोध। एक द्वारपाल को प्रतीत हुआ कि शुकदेव जी अवश्य ही कोई असाधारण मानव हैं। तब उसने उनकी पूजा करके उन्हें महल में प्रवेश करा दिया। कुछ देर के उपरान्त राजमन्त्री आये तथा उन्हें महल की तीन ड्योढ़ी तक ले गये। वहाँ अन्तःपुर से सटा हुआ एक अति मनभावन बगीचा था। उसका नाम प्रमदावन था। वहीं उन्हें एक आसन दिखाकर वे बाहर निकल गये।

 
    मन्त्री के जाते ही पचास वारांगनायें उनकी सेवा में उपस्थित हुई। वे सभी अति सुन्दर नवयुवतियाँ थीं। उन्होंने विधिवत पूजा कर उन्हें भोजनादि दिया। फिर उन्होंने उन्हें प्रमदावन की सैर कराई, किन्तु शुकदेव जी को न हर्ष हुआ न ही विषाद। वे बस चलते रहे। उन्हें सुन्दर बिछौना दिया गया, तो उन्होंने हाथ-पैर धोकर संध्योपासन किया तदुपरान्त ध्यानमग्न हो गये। रात्रि के प्रथम पहर तक वे उसी प्रकार ध्यानमग्न रहे। फिर योगशास्त्र के अनुसार रात्रि के मध्यभाग में सो गये। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौचादि से निवृत्त होकर पुनः ध्यानमग्न हो गये।

 
    कुछ समय के बाद राजा जनक की अन्तःपुर समस्त स्त्रियाँ तथा पुरोहित एवं मन्त्रियों के साथ शुकदेव जी के पास आये। उन्हें आसन दिया एवं उनकी विधिवत पूजा की। राजा जनक ने उनका स्वागत किया और पूछा - ‘‘मुने, किस निमित्त से आपका शुभागमन हुआ है?’’


    व्यासनन्दन ने कहा - ‘‘मैं अपने पिता की आज्ञा से आपसे कुछ पूछने आया हूँ।’’


जनक ने कहा - ‘‘मुने, यदि आपके पिता ने कहा है, तो अवश्य ही कोई बात होगी। बताइये, मैं किस प्रकार आपकी सेवा कर सकता हूँ?’’
शुकदेव जी ने पूछा -  ‘‘राजन्, ब्राह्मण का क्या कर्तव्य है? मोक्ष का स्वरूप क्या है? उसकी प्राप्ति तप से होती है या ज्ञान से?’’


    जनक ने कहा - ‘‘यज्ञोपवीत के बाद वह वेदाध्ययन करे। गुरु की सेवा, तप का अनुष्ठान एवं ब्रह्मचर्य का पालन ये तीन परम कर्तव्य हैं। वेदाध्ययन के बाद गुरु को दक्षिणा देकर समावर्तन संस्कार के पश्चात् घर लौटे। फिर गार्हस्थ धर्म का पालन करे। पुत्र-पौत्र के बाद वानप्रस्थ का पालन करे। उसके बाद संन्यास आश्रम में प्रवेश करे। यही नियम बताया गया है।’’


    शुकदेव जी ने कहा - ‘‘जी, आपकी बात उचित है। कृपाकर यह भी बताने का कष्ट करें कि यदि किसी को ब्रह्मचर्य आश्रम में ही सनातन ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति हो जाये, तो उन्हें तीन आश्रमों में रहना क्या आवश्यक है?’’


    जनक ने कहा - ‘‘मुने, आपकी जिज्ञास में कोई त्रुटि नहीं है, किन्तु बिना सद्गुरु के ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। लोक मर्यादा तथा कर्म परम्परा की रक्षा करने के लिये चारों आश्रमों के धर्म का पालन करना आवश्यक माना गया है, किन्तु अनेक जन्मों में कर्म करते-करते जब इन्द्रियाँ पवित्र हो जाती हैं, तो शुद्ध अन्तःकरण वाला मनुष्य पहले ही आश्रम में मोक्ष धर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता। ऐसा प्राणी इच्छा एवं द्वेष रहित हो जाता है। वह ब्रह्मरूप हो जाता है। वह मन, वाणी या क्रिया द्वारा किसी की बुराई नहीं करता। उस समय समान भाव की क्षमता विकसित हो जाती है। निन्दा-स्तुति आदि का प्रभाव उस पर नहीं पड़ता।’’


    ज्ञान प्राप्ति के बाद शुकदेव जी पुनः अपने पिता के पास आये। उस समय व्यास जी अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। वह अंतिम उपदेश था कि वे लोग वेदों का विस्तार करें तथा सभी योग्य मनुष्य को पढ़ायें। विद्यादान हमेशा सदाचारियों को ही करना चाहिये। जो शिष्य भाव से न पढ़े उसे वेदाध्ययन नहीं कराना चाहिये। उपदेश के उपरान्त सभी शिष्य चले गये, तो व्यास जी को अच्छा नहीं लगा। तब नारद जी ने आकर उन्हें शुकदेव जी के साथ वेदाध्ययन करने को कहा। जब वे वेदाध्ययन कर रहे थे, तो बड़ी तीव्र आँधी आई। व्यास जी ने अनध्याय काल बताकर अपने पुत्र को वेदाध्ययन से रोक दिया। तब शुकदेव जी ने कारण पूछा।


    व्यास जी ने कहा - ‘‘जब बाहर प्रचण्ड वायु चल रही हो, तब वेद मन्त्रों का ठीक-ठीक सस्वर उच्चारण नहीं होता, अतः उस समय वेदाध्ययन नहीं करते।’’ 


    वेद हेतु यह ज्ञान अत्यावश्यक माना गया है। किसे वेदाध्ययन कराना चाहिये और कब इसका अध्ययन वर्जित होता है। 


विश्वजीत सपन

Wednesday, July 1, 2020

महाभारत की लोककथा (भाग - 102)

महाभारत की कथा की 127 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।


ब्रह्म से उत्पन्न सभी वर्ण ब्राह्मण हैं

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    देवरात के पुत्र महायशस्वी राजा जनक ने महर्षि याज्ञवल्क्य से एक बार पूछा - ‘‘मुनिवर, उस अव्यक्त परब्रह्म के सम्बन्ध में मुझे ज्ञान दें, जो मनुष्यों के लिये सर्वाधिक लाभकारी है।’’


    याज्ञवल्क्य ने कहा - ‘‘बड़ी गूढ़ बात तुमने पूछी है। इसे ध्यानपूर्वक सुनो। पूर्वकाल की बात है। एक बार मैंने सूर्य की तपस्या की। वे प्रसन्न होकर बोले - ‘ब्रह्मर्षे, तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ। तुम्हें क्या वर चाहिये?’
यह सुनकर मैंने उन्हें प्रणाम किया और कहा - ‘भगवन्, मुझे यजुर्वेद का ज्ञान नहीं है। इस ज्ञान को प्राप्त करने का वर दीजिये।’
तब सूर्यदेव ने कहा - ‘‘विप्रवर, आपको यजुर्वेद प्रदान करता हूँ। तुम अपना मुख खोलो, वाग्देवता सरस्वती को प्रवेश करने दो।’’ 


मैंने अपना मुख खोला, तो देवी सरस्वती मेरे मुख में प्रवेश कर गयीं। उससे मेरे शरीर में जलन होने लगी। मैं जल में प्रवेश कर गया कि जलन थोड़ी कम हो जाये, तब भगवान् सूर्य ने कहा - ‘‘थोड़ी देर तक इसे सहन कर लो। यह अपने-आप शान्त हो जायेगी।’’ तब ऐसा ही हुआ। कुछ समय के उपरान्त जलन समाप्त हो गयी। 


उसके पश्चात् सूर्यदेव ने कहा - ‘‘परकीय शाखाओं तथा उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेद तुम्हारे भीतर प्रतिष्ठित होंगे। साथ ही तुम सम्पूर्ण शतपथ का भी सम्पादन करोगे। उसके बाद तुम्हारी बुद्धि मोक्ष में स्थिर होगी।’’


सूर्यदेव के जाने के बाद मैंने देवी सरस्वती का स्मरण किया। तब देवी ऊँकार को आगे करके प्रकट हुईं। मैंने सूर्यदेव को निमित्त करके अर्घ्य निवेदन किया तथा उन्हीं का चिंतन करता बैठ गया। तब बड़े हर्ष से मैंने रहस्य-संग्रह तथा परिशिष्ट भाग सहित समस्त शतपथ का संकलन किया। इस प्रकार सूर्यदेव के द्वारा उपदेश दी हुई पन्द्रह शाखाओं का ज्ञान प्राप्त करके, फिर मैंने वेद-तत्त्व का चिन्तन किया।
एक समय वेदान्त-ज्ञान में कुशल विश्वावसु नामक गन्धर्व ने मुझसे पूछा - ‘‘सत्य एवं सर्वोत्तम वस्तु क्या है?’’


तब मैंने कहा था - ‘‘गन्धर्वराज, वेदप्रतिपाद्य ज्ञेय परमात्मा ही सर्वोत्तम वस्तु है और यही सत्य है। सम्पूर्ण वेद ज्ञान के बाद भी यदि परमेश्वर का ज्ञान न हुआ, तो वह मूर्ख शास्त्र-ज्ञान का बोझ ढोने वाला ही है। अज्ञानी मनुष्य पच्चीसवें तत्त्व जीवात्मा एवं सनातन परमात्मा को भिन्न-भिन्न मानते हैं, किन्तु साधु पुरुषों की दृष्टि में दोनों एक ही हैं।’’


विश्वावसु ने कहा - ‘‘मुनिवर, आपने पच्चीसवें तत्त्व जीवात्मा को परमात्मा से अभिन्न बतलाया, किन्तु वास्तव में जीवात्मा परमात्मा है अथवा नहीं, इस बारे में संदेह है।’’


तब मैंने कहा - ‘‘तुम मेधावी हो। प्रकृति जड़ है, उसे पच्चीसवाँ तत्त्व जीवात्मा जानता है, किन्तु वह जीवात्मा को नहीं जानती। सांख्य एवं योग के विद्वान् प्रकृति को प्रधान कहते हैं। साक्षी पुरुष चौबीसवें तत्त्व प्रकृति को, पच्चीसवें अपने को तथा छब्बीसवें परमात्मा को देखता है। जब जीवात्मा अभिमान कर स्वयं को सबसे बड़ा मानता है, तब वह परमात्मा को नहीं देख पाता, किन्तु परमात्मा सबको देखता है। जब जीवात्मा को यह ज्ञान हो जाता है कि मैं भिन्न हूँ, प्रकृति मुझसे सर्वथा भिन्न है, तब वह उससे असंग होकर छब्बीसवें तत्त्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है। परमात्मा का दर्शन हो जाने के बाद वह पुनर्जन्म के बन्धन से सदा के लिये छुटकारा पा लेता है। यही ज्ञान है तथा शेष अज्ञान।’’


यह सुनने के उपरान्त विश्वावसु इस ज्ञान को मंगलकारी बता कर चले गये। तो राजन्, ज्ञान से ही मोक्ष होता है, अज्ञान से नहीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा नीच योनि में उत्पन्न पुरुष से भी यदि ज्ञान मिल सके, तो उसे उस पर श्रद्धा रखनी चाहिये। ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण सभी वर्ण ब्राह्मण हैं। इस सबकी उत्पत्ति ब्रह्मा से ही हुई है, अतः किसी भी वर्ण को ब्रह्म से भिन्न नहीं समझना चाहिये।’’


इस प्रकार याज्ञवल्क्य जी से उपदेश पाकर मिथिला नरेश को अति प्रसन्नता हुई। उन्होंने सत्कार पूर्वक मुनि की प्रदक्षिणा की तथा उन्हें विदा किया। तदनन्तर उन्होंने सुवर्णसहित एक करोड़ गायें दान कीं तथा अनेक ब्राह्मणों को रत्नादि उपहार में दिये। कुछ समय बाद उन्होंने मिथिला का राज्य अपने पुत्र को सौंपकर यतिधर्म का पालन करने लगे।


 कहा गया है कि जो कुछ दिया जाता है, जो प्राप्त होता है, जो देता है तथा जो ग्रहण करता है; वह सब एकमात्र आत्मा ही है। सदा यही मान्यता रखनी चाहिये तथा इसके विपरीत विचार में कभी मन नहीं लगाना चाहिये। जो शास्त्र के अनुसार चलने वाले हैं, वे ही प्रकृति से पर, नित्य, जन्म-मरण से रहित, मुक्त एवं सत्स्वरूप परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस उपदेश का मनन करने से मनुष्य सनातन, अविनाशी, शुभ, अमृतमय तथा शोकरहित ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।


विश्वजीत ‘सपन’

Monday, May 18, 2020

महाभारत की लोककथा - (भाग 101)

महाभारत की कथा की 126 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

Saturday, May 2, 2020

महाभारत की लोककथा - (भाग 100)

महाभारत की कथा की 125 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

Sunday, April 12, 2020

महाभारत की लोककथा (भाग - 99)


महाभारत की कथा की 124 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

पराशर गीता
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(राजा जनक एवं पराशर मुनि के मध्य हुए सम्वाद को पराशर गीता कहा जाता है। यह सम्वाद जीवन-दर्शन है।)

एक बार राजा जनक ने पराशर मुनि से पूछा - ‘‘मुनिवर, कौन-सा कर्म सम्पूर्ण प्राणियों के लिये इस लोक तथा परलोक में भी कल्याणकारी है?’’


पराशर मुनि ने कहा - ‘‘धर्म का आचरण ही इस लोक एवं परलोक में कल्याणकारी है। मनुष्य नेत्र, मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा चार प्रकार के कर्म करते हैं। जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। इन्द्रिय संयम, क्षमा, धैर्य, तेज, संतोष, सत्यभाषण, लज्जा, अहिंसा, दुर्व्यसन का अभाव एवं चतुरता - ये सभी गुण सुख देने वाले हैं। निन्दा कभी नहीं करनी चाहिये। जान-बूझकर किया गया पाप अक्षम्य होता है। अनजाने में किये पाप का प्रायश्चित्त संभव है। तब अहिंसाव्रत का पालन करना चाहिये। गुणों में ही अनुराग करना चाहिये, दोषों में नहीं। ब्राह्मण को प्रतिग्रह से मिला हुआ, क्षत्रिय को युद्ध द्वारा प्राप्त, वैश्य को खेती आदि से प्राप्त तथा शूद्र को सेवा से प्राप्त थोड़ा धन ही उत्तम माना गया है। उस धन का यदि धर्म कार्य में उपयोग किया जाये, तो वह महान् फलदायक होता है। जब धर्म का बल असुरों को नहीं देखा गया, तो वे प्रजा में व्याप्त हो गये। तब दर्प का प्रादुर्भाव हुआ। उसके बाद क्रोध उत्पन्न हुआ। तब सदाचार का लोप हुआ एवं मोह की उत्पत्ति हुई। यहीं से अराजकता उत्पन्न हुई। तब समस्त असुरों को मारकर भगवान् शंकर ने पुनः धर्म की स्थापना की। धर्म का पालन ही श्रेष्ठ है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘भगवन्, आप मुझे वर्णों के विशेष धर्म बतलाइये।’’


मुनि पराशर ने कहा - ‘‘दान लेना, यज्ञ कराना एवं विद्या पढ़ाना ब्राह्मण के विशेष धर्म हैं। प्रजा की रक्षा करना क्षत्रिय के लिये उत्तम है। खेती, गौ रक्षा तथा व्यापार वैश्य हेतु कहा गया है। द्विजातियों की सेवा करना शूद्र का धर्म है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘अब सामान्य धर्मों का भी वर्णन करें आदरणीय।’’


मुनि पराशर ने कहा - ‘‘दया, अहिंसा, सावधानी, दान, श्राद्धकर्म, सत्य, अक्रोध, अतिथि सत्कार, अपनी पत्नी से संतुष्ट रहना, किसी का दोष न देखना, आत्मज्ञान तथा सहनशीलता सामान्य धर्म हैं। चारों वर्णों को इन सामान्य धर्मों का पालन करना चाहिये। हीन व्यक्ति भी सदाचार का पालन करते हुए अपने धर्म का आचरण करे, तो उसे उत्तम लोक की प्राप्ति होती है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘मुनिवर, मेरे मन में संदेह है कि मनुष्य अपने कर्म से दोष का भागी होता है अथवा अपनी जाति से?’’


पराशर मुनि ने कहा - ‘‘इसमें संदेह नहीं कि कर्म एवं जाति दोनों ही दोषकारक होते हैं। जाति तथा कर्म से किसी का भी आश्रय लेकर बुरा कर्म नहीं करना चाहिये। जाति से दूषित होकर भी कोई पाप कर्म नहीं करता तो वह दोषी नहीं होता। उत्तम जाति वाला भी निन्दित कर्म करे, तो वह दूषित होता है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘महामुने, इस संसार में कौन-कौन-से ऐसे धर्मानुकूल कर्म हैं, जिनसे कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं होती?’’


मुनि पराशर ने कहा - ‘‘अग्निहोत्र का त्याग कर जो संन्यास धारण करते हैं, उनका कल्याण होता है। हिंसा प्रधान कर्मों का त्याग एवं सत्यभाषण ही उत्तम कर्म है। पिता, गुरु, मित्र तथा धर्मपत्नी से सदा प्रेम रखना चाहिये। मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु अज्ञान है। वैदिक प्रमाणों पर विचार कर धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। समस्त प्राणियों को स्नेहभरी दृष्टि से देखना चाहिये। दान, त्याग, शान्त भाव से तपस्या करनी चाहिये। अपनी शक्ति के अनुसार इष्टि, पुष्टि (शान्तिकर्म), यजन, याजन, श्राद्ध एवं पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करना चाहिये।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘मुनिश्रेष्ठ, श्रेय का साधन क्या है?’’


मुनि ने कहा - ‘‘आसक्ति का अभाव एवं ज्ञान - ये दोनों ही श्रेय के मूल में हैं। अधर्म ज्ञानी पुरुष को लिप्त नहीं कर सकता। धर्म करने का कोई समय नियत नहीं है। जब तक मृत्यु नहीं आ जाती, तब तक इसे करते रहना चाहिये।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘उत्तम गति कौन-सी है?’’


मुनि ने कहा - ‘‘ज्ञान से प्राप्त होने वाली गति ही सबसे उत्तम गति है। जो अधर्ममय बन्धन का उच्छेद कर धर्म में अनुरक्त होता है तथा समस्त प्राणियों को अभयदान देता है, उसे उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। जैसे अंधा प्रतिदिन अभ्यास से घर के बाहर निकल पुनः घर लौट आता है, ठीक उसी प्रकार योगयुक्त चित्त के द्वारा उस परम गति को प्राप्त कर लेता है। जन्म में मृत्यु एवं मृत्यु में जन्म निहित है। अतः मोक्ष धर्म ही श्रेष्ठ है। जब वह मन को योगयुक्त (आत्मा में लीन) करता है, तब उसे परमात्मा का साक्षात्कार होने लगता है।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘कौन-सा कर्म नष्ट नहीं होता?’’


मुनि ने कहा - ‘‘स्वयं किया हुआ तप तथा सुपात्र को दिया हुआ दान - ये कभी नष्ट नहीं होते।’’


राजा जनक ने कहा - ‘‘कहाँ जाने पर पुनः यहाँ लौटना नहीं पड़ता?’’


मुनि पराशर ने कहा - ‘‘आसक्ति को त्याग कर जब योगी मुक्त हो जाता है। तब उसे वापस आना नहीं पड़ता। जैसे समुद्र में सब ओर से अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं, उसी प्रकार मन योग के वशीभूत होकर मूल प्रकृति में लीन हो जाता है। तब उसका आवागमन सदा के लिये रुक जाता है।’’ 


जीवन को समझने के लिये पराशर गीता का बड़ा महत्त्व है। इस ज्ञान का अनुपालन करने वाला न केवल सुखी होता है, बल्कि मोक्ष का भी भागी बनता है। 


विश्वजीत 'सपन'  

Sunday, March 15, 2020

महाभारत की लोककथा (भाग - 98)




महाभारत की कथा की 123 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 


भगवान् शंकर का क्रोध

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    प्राचीन काल की बात है। हिमालय के निकट गंगा के द्वार पर प्रजापति दक्ष ने यज्ञ प्रारम्भ किया। सभी देवता, ऋषि-मुनि आदि वहाँ पधारे। महामुनि दधीचि ने देखा कि सभी वहाँ आये, किन्तु भगवान् शिव कहीं दिखाई नहीं दिये। उन्होंने इसका विरोध किया और कहा कि यदि भगवान् शिव की पूजा नहीं होती, तो कोई भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता। 


    दक्ष ने कहा - ‘‘महर्षे, देखिये विधिपूर्वक मन्त्र से पवित्र की हुई हवि इस सुवर्ण पात्र में रखी है। इसे मैं भगवान् विष्णु को अर्पित करूँगा। वे ही समर्थ, व्यापक एवं यज्ञ भाग के समर्पण के योग्य हैं।’’


    मुनि दधीचि ने कहा - ‘‘उचित है, किन्तु भगवान् शिव तो यज्ञ के अग्रभोक्ता हैं। उनके बिना यज्ञ अधूरा है। वे अवश्य ही इसका संज्ञान लेंगे। यदि आपने उन्हें आमंत्रित नहीं किया, तो वे अवश्य ही इस यज्ञ का विध्वंस कर डालेंगे।’’


    उधर कैलास पर माता पर्वती उदास होकर भगवान् शंकर से कह रही थीं कि वे कौन-सा व्रत या तप करें कि उनके पति को यज्ञ का एक तिहाई भाग अवश्य प्राप्त हो। यह सुनकर भगवान् शंकर ने कहा - ‘‘देवि, मैं सम्पूर्ण यज्ञों का ईश्वर हूँ। जिस यज्ञ के कारण तुम्हें दुःख हुआ है, उसे नष्ट करने के लिये मैं एक वीर पुरुष को उत्पन्न कर रहा हूँ।’’


    इस प्रकार कहकर भगवान् शंकर ने अपने मुख से एक अत्यन्त ही बलशाली पुरुष को उत्पन्न किया और माता पर्वती के मुख से एक बलशाली स्त्री की उत्पत्ति हुई। वह पुरुष वीरभद्र था, जो शौर्य, बल आदि में भगवान् शंकर के समान ही था। शंकर ने उससे कहा - ‘‘दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दो।’’


    भगवान् शंकर के ऐसा कहते ही वीरभद्र के रोम-रोम से ‘‘रौम्य’’ नामक गण प्रकट हो गये। वे हजारों की संख्या में यज्ञ को नष्ट करने चल दिये। कुछ समय में उन लोगों ने शोर मचाते हुए दक्ष की सम्पूर्ण यज्ञशाला को नष्ट कर दिया। देवता, ऋषि एवं मनुष्य सभी छुप गये। तब ब्रह्मा आदि देवता तथा प्रजापति दक्ष ने हाथ जोड़कर पूछा - ‘‘आप कौन हैं? आपने ऐसा क्यों किया?’’


    वीरभद्र बोला - ‘‘मैं वीरभद्र हूँ। मैं भगवान् रुद्र के कोप से प्रकट हुआ हूँ। ये भद्रकाली हैं तथा भगवती उमा के क्रोध से इनका प्रादुर्भाव हुआ है। आपने भगवान् शंकर का अपमान किया, इस कारण उनकी आज्ञा से आपके यज्ञ को हमने नष्ट कर दिया। आप लोग उनकी शरण में जायें, तभी कल्याण होगा।’’


    यह सुनकर दक्ष को अनुभव हो गया कि उनसे अनुचित कार्य हो गया है। उन्होंने तत्क्षण ही प्रार्थना प्रारम्भ कर दी। वे बोलने लगे - ‘‘हे सम्पूर्ण जगत् के पालनहार, नित्य, अविकारी एवं सनातन प्रभु महादेव मैं आपकी शरण में हूँ। मेरी विनती स्वीकार करें, प्रभु।’’


     इस प्रकार प्रजापति दक्ष के विनती करने पर हजारों सूर्य के समान भासित होते भगवान् शिव सहसा अग्निकुण्ड से प्रकट हुए और बोले - ‘‘ब्रह्मन्, बताओ, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’’


    देवगुरु बृहस्पति ने वेदपाठ करते हुए भगवान् शिव की स्तुति की। तत्पश्चात् अश्रुपूरित नेत्रों से हाथ जोड़कर प्रजापति दक्ष ने कहा - ‘‘भगवन्, क्षमा करें। मुझसे अनुचित हो गया। यदि आप प्रसन्न हैं, तो यह जो यज्ञ हमने रखा था, वह व्यर्थ न जाये। इसकी पूर्ति हो जाये।’’


    भगवान् शंकर ने ‘‘तथाऽस्तु’’ कहकर दक्ष की प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसके उपरान्त दक्ष ने भगवान् शिव के सैकड़ों नामों का उच्चारण कर उनकी स्तुति करनी प्रारम्भ की तथा कहा - ‘‘हे भगवन्, आपके माहात्म्य को ठीक-ठीक जानने में ब्रह्मा, विष्णु तथा ऋषि भी समर्थ नहीं हैं। आप ही सम्पूर्ण भूतों के जन्मदाता, पालक एवं संहारक हैं तथा आप ही समस्त प्रणियों के अन्तरात्मा हैं। नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा आपका ही यजन किया जाता है। आप ही सबके कर्ता हैं, इसी कारण मैंने अलग से आपको आमंत्रण नहीं दिया था। अथवा यों कहें कि आपकी सूक्ष्म माया से मैं मोह में पड़ गया था। इस कारण आपको निमंत्रण देने में भूल हुई। मैं भक्तिभाव से आपकी शरण में आया हूँ। आप प्रसन्न होइये। मेरा हृदय, मेरी बुद्धि तथा मेरा मन सब आप में समर्पित है।’’


    इस प्रकार स्तुति करके जब दक्ष चुप हो गये, तो भगवान् शिव ने कहा - ‘‘मै तुम्हारी इस स्तुति से संतुष्ट हूँ। तुम्हें एक सहस्र अश्वमेध तथा वाजपेय यज्ञ का फल मिलेगा। इस यज्ञ में जो विघ्न डाला गया है, इसके लिये तुम खेद न करना। मैंने पहले कल्प में भी तुम्हारे यज्ञ का विध्वंस किया था। यह घटना भी पूर्वकल्प के अनुसार ही हुई है। जिस पाशुपत यज्ञ का मैंने देवताओं एवं दानवों के लिये अनुष्ठान किया था, उस यज्ञ का फल भी तुम्हें प्राप्त होगा।’’


    इतना कहकर भगवान् शिव, माता पर्वती समेत सभी गणों के साथ दक्ष एवं समस्त लोगों की दृष्टि से ओझल हो गये। कहते हैं कि जो भी मनुष्य दक्ष द्वारा स्तवन का कीर्तन अथवा श्रवण करेगा, उसका कभी अमंगल नहीं होगा तथा वह दीर्घायु बनेगा। सम्पूर्ण स्तोत्रों में यह स्तवन ही श्रेष्ठ माना गया है।

विश्वजीत ‘सपन’

Sunday, February 2, 2020

महाभारत की लोककथा (भाग - 97)




महाभारत की कथा की 122 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

कर्म-अकर्म संदेश

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प्राचीन काल की बात है। वृत्रासुर की बढ़ी शक्ति का नाश करने इन्द्र देवताओं समेत उससे युद्ध करने चल दिये। जब वृत्रासुर के पास पहुँचे, तो उसके विशालकाय स्वरूप को देखकर विस्मित रह गये। वह पाँच सौ योजन ऊँचा तथा तीन सौ योजन मोटा था। उसके इस डीलडौल को देखकर देवता लोग भयभीत हो गये। स्वयं इन्द्र भी भय से काँपने लगे। बड़ा भीषण युद्ध छिड़ा। दोनों ओर से बाणों आदि की वर्षा होने लगी। वृत्रासुर ने बड़ा तप किया था। वह आकाश में उड़कर इन्द्र पर पत्थर बरसाने लगा। देवताओं को बड़ा क्रोध आया तथा उन लोगों ने बाणों की वर्षा करके पत्थरों को रोक दिया, किन्तु मायावी वृत्रासुर ने मायायुद्ध करके इन्द्र को को मोह में डाल दिया। तब इन्द्र मूर्च्छित हो गये। देवताओं की सेना घबरा गयी। विचारकर देवताओं ने वसिष्ठ जी से आग्रह किया। तब वसिष्ठ जी ने रथन्तर साम द्वारा उन्हें सचेत किया तथा उन्हें उत्साहित करते हुए वृत्रासुर का वध करने को कहा।


अब इन्द्र का बल बढ़ गया। उन्होंने महायोग का प्रयोग कर वृत्र की माया को नष्ट कर दिया। इस मध्य वृत्रासुर का पराक्रम देखकर बृहस्पति तथा अन्य महर्षियों ने उसके नाश करने के लिये महादेव एवं भगवान् विष्णु से प्रार्थना की। भगवान् शंकर के भीषण तेज ने ज्वर बनकर वृत्रासुर के शरीर में प्रवेश किया और उसी क्षण भगवान् विष्णु ने इन्द्र के वज्र में प्रवेश किया।


अवसर देखकर समस्त ऋषियों ने इन्द्रदेव से कहा - ‘‘देवराज, आप वृत्रासुर का वध कर दीजिये, अभी ही अवसर है।’’


महादेव जी ने इन्द्र से कहा - ‘‘देवेश्वर, इस वृत्रासुर ने बल प्राप्ति के लिये साठ हजार सालों तक कठिन तप किया, तब ब्रह्माजी ने इसे वर दिया। यह अनेक प्रकार के योगबल, तेज आदि से परिपूर्ण है। मैंने अपने तेज से इसे ज्वर दे दिया है और अपना तेज तुम्हें प्रदान करता हूँ। इसे तत्काल ही मार डालो।’’


यह सुनकर इन्द्र ने कहा - ‘‘भगवन्, आपकी कृपा से मैं इस दुर्जय दैत्य को अभी मार डालता हूँ।’’


उस ज्वर से तपते हुए उस महादैत्य ने जम्हाई ली और अमानुषी गर्जना की। समस्त संसार काँप उठा। तभी उसकी क्षीण होती शक्ति को परखते हुए इन्द्र ने वज्र से उस पर प्रहार किया। वह तत्क्षण ही पृथ्वी पर जा गिरा। देवता लोग हर्षना करने। इन्द्र ने वज्र के साथ स्वर्ग में प्रवेश किया। इसी समय उस महादैत्य के मृत देह से महाभयावनी ब्रह्महत्या प्रकट हुई। वह इन्द्र को खोजने लगी, तो इन्द्र भाग कर कमलनाल में छुप गये। अनेक प्रयास करने पर भी ब्रह्महत्या ने इन्द्र का पीछा नहीं छोड़ा तो वे ब्रह्मा जी के पास गये तथा उन्हें अपना कष्ट बताया। ब्रह्मा जी ने यह सुनकर ब्रह्महत्या को कहा - ‘‘कल्याणि, ये देवराज हैं। तुम इनका पीछा छोड़ दो। इसके बदले तुम जो भी इच्छा रखती हो उसे कहो।’’


ब्रह्महत्या ने कहा - ‘‘भगवन्, आपने कह दिया, तो मुझे सब-कुछ प्राप्त हो गया, किन्तु आपका ही बनाया हुआ धर्म है कि ब्राह्मण की हत्या करने वाले को ब्रह्महत्या लगेगी। इसके बाद भी आप यदि प्रसन्न हैं, तो आप ही मेरे लिये कोई स्थान निश्चित कीजिये, मैं वहीं चली जाऊँगी।’’


तब ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘ठीक है, तो अब मैं ही तुम्हारे लिये उचित स्थान का प्रबंध करता हूँ।’’ ऐसा कहकर उन्होंने अग्निदेव का स्मरण किया। तत्क्षण ही अग्निदेव उपस्थित होकर बोले - ‘‘भगवन्, आपने मुझे स्मरण किया। बताइये मेरे लिये क्या आज्ञा है?’’


ब्रह्मा जी ने बड़ा विचारकर कहा - ‘‘इन्द्र को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त करते हुए ब्रह्महत्या के कई विभाग करता हूँ। उनमें से एक चतुर्थांस तुम ग्रहण करो।’’


अग्निदेव ने कहा - ‘‘हे ईश्वर, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, किन्तु मुझसे इस पाप की निवृत्ति कैसे होगी, इसका भी उपाय बताने की कृपा करें।’’


ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘हे अग्निदेव, उचित है। कभी भी प्रज्ज्वलित अवस्था में यदि कोई अज्ञानवश बीज, औषधि या रसों द्वारा तुम्हारा पूजन नहीं करेगा, तुम्हारी ब्रह्महत्या तत्काण उसमें प्रवेश कर जायेगी।’’


ब्रह्मा जी के ऐसा कहते ही ब्रह्महत्या के एक चौथाई भाग ने अग्नि में प्रवेश कर लिया। उसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने तृण, वृक्ष तथा समस्त औषधियों को बुलाकर उनसे भी चतुर्थांस लेने की बात कही, तो वे बोले - ‘‘आपकी आज्ञा है, तो हम अवश्य ग्रहण करेंगे त्रिलोकी नाथ, किन्तु इससे छुटकारे का उपाय भी बताने का कष्ट करें।’’


ब्रह्मा जी ने इस पर कहा - ‘‘जो भी मनुष्य पुण्य तिथियों पर वृक्षादि को काटेगा, तो यह उसके पीछे लग जायेगी। यह सृनकर वृक्षादि ने उनकी बात स्वीकार कर ली और अपने-अपने स्थान को लौट गये।

 तब ब्रह्मा जी ने अप्सराओं को बुलाकर चतुर्थांस ग्रहण करने की बात की। अप्सराओं ने कहा - ‘‘आपकी आज्ञा का पालन होगा जगतकर्ता, किन्तु इससे छुटकारे का विधान भी कर दें, तो बड़ी कृपा होगी।’’
ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘तुम लोग सर्वथा निश्चिन्त रहो। जो पुरुष रजस्वला स्त्री के साथ समागम करेगा, यह उसके साथ चली जायेगी।’’


यह सुनकर अप्सरायें अपने विहार हेतु चली गयीं। फिर ब्रह्मा जी ने जल हेतु संकल्प किया। जल के उपस्थित होने पर उससे भी उन्होंने वही बात कही, तो जल ने कहा ‘‘लोकेश्वर, आपकी आज्ञा का पालन होगा, किन्तु इसके निस्तार का समय भी निर्धारित करने की कृपा करें।’’


इस पर ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘उचित है। जो भी मनुष्य अपनी बुद्धि की मन्दता के कारण जल में थूक-खखार तथा मल-मूत्र आदि को डालेगा, तो यह उसके पास चली जायेगी।’’


इस प्रकार वह महाभयावह ब्रह्माहत्या उन-उन स्थानों पर चली गयी। जो भी ऐसे कर्म करता है, वह उसके पास चली जाती है। यही सृष्टि रचयिता ब्रह्मा जी का विधान है।


विश्वजीत 'सपन'

Thursday, January 9, 2020

महाभारत की लोककथा (भाग - 96)




महाभारत की कथा की 121 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

निवृत्ति प्रधान धर्म की श्रेष्ठता
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    पूर्व काल की बात है। ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से स्यूमरश्मि ने कपिल मुनि से पूछा - ‘‘गार्हस्थ्य धर्म एवं योग धर्म में कौन श्रेष्ठ है?’’


    कपिल मुनि ने कहा - ‘‘ज्ञान मार्ग का आश्रय लेकर परब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। जो इसकी प्राप्ति कर लेता है, तो सम्पूर्ण लोकों में कहीं भी उसकी गति का अवरोध नहीं होता। इस विचार से ज्ञान मार्ग ही श्रेष्ठ धर्म का आश्रय बनता है।’’


    स्यूमरश्मि ने कहा - ‘‘किन्तु मुनिवर, यदि पुरुषार्थ की चरमसीमा ज्ञान प्राप्त करके परब्रह्म में स्थित होना है, तो गृहस्थ धर्म का महत्त्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि गृहस्थों का आश्रय लिये बिना किसी भी आश्रम का कार्य संभव नहीं। गृहस्थ ही यज्ञ एवं तप भी करता है। वह अन्य धर्मों के लिये संसाधनों को जुटाता है। संतान सुख इसी धर्म का सबसे बड़ा सुख है। यह तो लोकहित का आश्रम है। वेद भी पुकार-पुकार कर कहते हैं कि मनुष्य पितरों, देवताओं तथा ऋषियों के ऋणी हैं। तब गृहस्थ धर्म में इन ऋणों को चुकाये बिना मोक्ष कैसे संभव है? वास्तव में वेदों के अनुसार कर्म करने से ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है।’’


    कपिल मुनि ने कहा - ‘‘सत्य है कि वैदिक कर्मों का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये क्योंकि उनमें सनातन धर्म की स्थिति है, किन्तु जो संन्यास धर्म को स्वीकार कर कर्मानुष्ठान से निवृत्त हो गये हैं तथा धीर, पवित्र एवं ब्रह्मस्वरूप में स्थित हैं, वे ही अपने ब्रह्मज्ञान से देवताओं को तृप्त कर सकते हैं। इसका आश्रय लेकर किया हुआ तप संसार के मूलभूत अज्ञान का नाश कर डालता है। इस तथ्य को समझना आवश्यक है कि अनुष्ठान आदि से नाशवान् फल की ही प्राप्ति होती है।’’


    स्यूमरश्मि ने कहा - ‘‘मुनिवर, मैं स्यूमरश्मि ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से ही आपकी शरण में आया हूँ। मैंने जो कहा वह मेरा पक्ष नहीं है, अपितु कल्याण की इच्छा से सरलभाव से निवेदन है। मुझे अपना शिष्य समझकर ही उपदेश दीजिये। चारों वर्णों एवं आश्रमों के लोग एकमात्र सुख के लिये ही अपने-अपने कर्मों में प्रवृत्त हो रहे हैं; अतः बताने की कृपा करें कि अक्षय सुख क्या है? किस आश्रम धर्म से इसकी प्राप्ति संभव है?’’


    कपिल मुनि ने कहा - ‘‘स्यूमरश्मे, किसी भी वर्ण अथवा आश्रम में शास्त्र के अनुसार ही कर्म का आचरण किया जाता है। वही पुरुषार्थ का साधक होता है। जो जिस वर्ण या आश्रम के कर्तव्य का पालन करता है, उसको वहीं अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। वास्तव में वेद ही प्रमाण है। यह अकाट्य है। वेदों का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। वेद कहते हैं कि ब्रह्म के दो रूप होते हैं - शब्दब्रह्म एवं परब्रह्म। जो मनुष्य शब्दब्रह्म में पारंगत है, वह परब्रह्म को भी प्राप्त कर लेता है। असल में ब्रह्मनिष्ठ मनुष्य एक ही आश्रम धर्म को चार प्रकार से विभक्त हुआ मानते हैं। कोई संन्यासी होकर, कोई वन में रहते हुए, कोई गृहस्थ बनकर तथा कोई ब्रह्मचर्य का सेवन कर परमपद को प्राप्त करता है। ब्राह्मण है क्या? जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, गुरुसेवा में तत्पर रहता है, दृढ़निश्चयी एवं समाहित चित्त वाला है, वही तो ‘ब्राह्मण’ है। शुद्धचित्त एवं संयतात्मा ब्राह्मण ही उस सनातन परब्रह्म को प्राप्त करते हैं।’’


    स्यूमरश्मि ने कहा - ‘‘आप तो ज्ञाननिष्ठ हैं तथा गृहस्थ लोग कर्मनिष्ठ होते हैं। आप इस समय सभी आश्रम धर्मों की एकता का प्रतिपादन कर रहे हैं। इससे कर्म एवं ज्ञान की एकता एवं पृथकता के कारण भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, अतः यथार्थ को समझाने की कृपा करें।’’


    कपिल मुनि ने कहा - ‘‘कर्म मन की शुद्धि करते हैं तथा ज्ञान परमगतिरूप है। जब कर्मों के द्वारा चित्त के दोष जल जाते हैं, तब मनुष्य रसस्वरूप ज्ञान में स्थित हो जाता है। सब प्राणियों पर दया, क्षमा, शान्ति, अहिंसा, सत्य, सरलता, अद्रोह, निरभिमानता, लज्जा, तितिक्षा एवं शम ही ब्रह्मप्राप्ति के साधन हैं। इनके द्वारा पुरुष परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। जिस स्थिति को संतुष्ट, शान्त, विशुद्धचित्त और ज्ञाननिष्ठ पुरुष प्राप्त कर लेते हैं, उसी का नाम ‘परमगति’ है।’’


    स्यूमरश्मि ने पूछा - ‘‘मुनिवर, यह ब्रह्म क्या है? किस प्रकार इसे जान सकते हैं?’’


    कपिल मुनि ने कहा - ‘‘वेदज्ञ पुरुष ही सभी विषयों को जानते हैं। जो मनुष्य सम्पूर्ण वेद एवं उनके प्रतिपाद्य परब्रह्म को ठीक-ठीक जानता है, उसे ही वेदज्ञ कहते हैं। वेद में ही ब्रह्म का ज्ञान समाहित है। जो कुछ भी है तथा जो कुछ नहीं है, उन सभी विषयों की स्थिति वेद में है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि इस जगत् का आदि, अन्त एवं मध्य ब्रह्म ही है। सर्वस्व त्याग कर ही उसकी प्राप्ति होती है। वह आनन्दस्वरूप से सबमें अनुगत एवं अपवर्ग (मोक्ष) में प्रतिष्ठित है। इसी कारण से ब्रह्म ऋत, सत्य, ज्ञात, ज्ञातव्य, सबका आत्मा, चराचरमूर्ति, मंगलमय, विशुद्धसुखस्वरूप, सर्वोत्कृष्ट, अव्यक्त का कारण है तथा अविनाशी है।’’


    वेद ज्ञान है और ज्ञान से ही मोक्ष संभव है। आदिकाल से यही परम्परा चली आ रही है। शास्त्रों की निष्ठा यही है कि यह दृश्य जगत् प्रतीतिकाल में तो है, किन्तु उसके बीत जाने पर नहीं। यही परम ज्ञान है।


विश्वजीत 'सपन'