Sunday, February 2, 2020
महाभारत की लोककथा (भाग - 97)
महाभारत की कथा की 122 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
कर्म-अकर्म संदेश
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प्राचीन काल की बात है। वृत्रासुर की बढ़ी शक्ति का नाश करने इन्द्र देवताओं समेत उससे युद्ध करने चल दिये। जब वृत्रासुर के पास पहुँचे, तो उसके विशालकाय स्वरूप को देखकर विस्मित रह गये। वह पाँच सौ योजन ऊँचा तथा तीन सौ योजन मोटा था। उसके इस डीलडौल को देखकर देवता लोग भयभीत हो गये। स्वयं इन्द्र भी भय से काँपने लगे। बड़ा भीषण युद्ध छिड़ा। दोनों ओर से बाणों आदि की वर्षा होने लगी। वृत्रासुर ने बड़ा तप किया था। वह आकाश में उड़कर इन्द्र पर पत्थर बरसाने लगा। देवताओं को बड़ा क्रोध आया तथा उन लोगों ने बाणों की वर्षा करके पत्थरों को रोक दिया, किन्तु मायावी वृत्रासुर ने मायायुद्ध करके इन्द्र को को मोह में डाल दिया। तब इन्द्र मूर्च्छित हो गये। देवताओं की सेना घबरा गयी। विचारकर देवताओं ने वसिष्ठ जी से आग्रह किया। तब वसिष्ठ जी ने रथन्तर साम द्वारा उन्हें सचेत किया तथा उन्हें उत्साहित करते हुए वृत्रासुर का वध करने को कहा।
अब इन्द्र का बल बढ़ गया। उन्होंने महायोग का प्रयोग कर वृत्र की माया को नष्ट कर दिया। इस मध्य वृत्रासुर का पराक्रम देखकर बृहस्पति तथा अन्य महर्षियों ने उसके नाश करने के लिये महादेव एवं भगवान् विष्णु से प्रार्थना की। भगवान् शंकर के भीषण तेज ने ज्वर बनकर वृत्रासुर के शरीर में प्रवेश किया और उसी क्षण भगवान् विष्णु ने इन्द्र के वज्र में प्रवेश किया।
अवसर देखकर समस्त ऋषियों ने इन्द्रदेव से कहा - ‘‘देवराज, आप वृत्रासुर का वध कर दीजिये, अभी ही अवसर है।’’
महादेव जी ने इन्द्र से कहा - ‘‘देवेश्वर, इस वृत्रासुर ने बल प्राप्ति के लिये साठ हजार सालों तक कठिन तप किया, तब ब्रह्माजी ने इसे वर दिया। यह अनेक प्रकार के योगबल, तेज आदि से परिपूर्ण है। मैंने अपने तेज से इसे ज्वर दे दिया है और अपना तेज तुम्हें प्रदान करता हूँ। इसे तत्काल ही मार डालो।’’
यह सुनकर इन्द्र ने कहा - ‘‘भगवन्, आपकी कृपा से मैं इस दुर्जय दैत्य को अभी मार डालता हूँ।’’
उस ज्वर से तपते हुए उस महादैत्य ने जम्हाई ली और अमानुषी गर्जना की। समस्त संसार काँप उठा। तभी उसकी क्षीण होती शक्ति को परखते हुए इन्द्र ने वज्र से उस पर प्रहार किया। वह तत्क्षण ही पृथ्वी पर जा गिरा। देवता लोग हर्षना करने। इन्द्र ने वज्र के साथ स्वर्ग में प्रवेश किया। इसी समय उस महादैत्य के मृत देह से महाभयावनी ब्रह्महत्या प्रकट हुई। वह इन्द्र को खोजने लगी, तो इन्द्र भाग कर कमलनाल में छुप गये। अनेक प्रयास करने पर भी ब्रह्महत्या ने इन्द्र का पीछा नहीं छोड़ा तो वे ब्रह्मा जी के पास गये तथा उन्हें अपना कष्ट बताया। ब्रह्मा जी ने यह सुनकर ब्रह्महत्या को कहा - ‘‘कल्याणि, ये देवराज हैं। तुम इनका पीछा छोड़ दो। इसके बदले तुम जो भी इच्छा रखती हो उसे कहो।’’
ब्रह्महत्या ने कहा - ‘‘भगवन्, आपने कह दिया, तो मुझे सब-कुछ प्राप्त हो गया, किन्तु आपका ही बनाया हुआ धर्म है कि ब्राह्मण की हत्या करने वाले को ब्रह्महत्या लगेगी। इसके बाद भी आप यदि प्रसन्न हैं, तो आप ही मेरे लिये कोई स्थान निश्चित कीजिये, मैं वहीं चली जाऊँगी।’’
तब ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘ठीक है, तो अब मैं ही तुम्हारे लिये उचित स्थान का प्रबंध करता हूँ।’’ ऐसा कहकर उन्होंने अग्निदेव का स्मरण किया। तत्क्षण ही अग्निदेव उपस्थित होकर बोले - ‘‘भगवन्, आपने मुझे स्मरण किया। बताइये मेरे लिये क्या आज्ञा है?’’
ब्रह्मा जी ने बड़ा विचारकर कहा - ‘‘इन्द्र को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त करते हुए ब्रह्महत्या के कई विभाग करता हूँ। उनमें से एक चतुर्थांस तुम ग्रहण करो।’’
अग्निदेव ने कहा - ‘‘हे ईश्वर, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, किन्तु मुझसे इस पाप की निवृत्ति कैसे होगी, इसका भी उपाय बताने की कृपा करें।’’
ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘हे अग्निदेव, उचित है। कभी भी प्रज्ज्वलित अवस्था में यदि कोई अज्ञानवश बीज, औषधि या रसों द्वारा तुम्हारा पूजन नहीं करेगा, तुम्हारी ब्रह्महत्या तत्काण उसमें प्रवेश कर जायेगी।’’
ब्रह्मा जी के ऐसा कहते ही ब्रह्महत्या के एक चौथाई भाग ने अग्नि में प्रवेश कर लिया। उसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने तृण, वृक्ष तथा समस्त औषधियों को बुलाकर उनसे भी चतुर्थांस लेने की बात कही, तो वे बोले - ‘‘आपकी आज्ञा है, तो हम अवश्य ग्रहण करेंगे त्रिलोकी नाथ, किन्तु इससे छुटकारे का उपाय भी बताने का कष्ट करें।’’
ब्रह्मा जी ने इस पर कहा - ‘‘जो भी मनुष्य पुण्य तिथियों पर वृक्षादि को काटेगा, तो यह उसके पीछे लग जायेगी। यह सृनकर वृक्षादि ने उनकी बात स्वीकार कर ली और अपने-अपने स्थान को लौट गये।
तब ब्रह्मा जी ने अप्सराओं को बुलाकर चतुर्थांस ग्रहण करने की बात की। अप्सराओं ने कहा - ‘‘आपकी आज्ञा का पालन होगा जगतकर्ता, किन्तु इससे छुटकारे का विधान भी कर दें, तो बड़ी कृपा होगी।’’
ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘तुम लोग सर्वथा निश्चिन्त रहो। जो पुरुष रजस्वला स्त्री के साथ समागम करेगा, यह उसके साथ चली जायेगी।’’
यह सुनकर अप्सरायें अपने विहार हेतु चली गयीं। फिर ब्रह्मा जी ने जल हेतु संकल्प किया। जल के उपस्थित होने पर उससे भी उन्होंने वही बात कही, तो जल ने कहा ‘‘लोकेश्वर, आपकी आज्ञा का पालन होगा, किन्तु इसके निस्तार का समय भी निर्धारित करने की कृपा करें।’’
इस पर ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘उचित है। जो भी मनुष्य अपनी बुद्धि की मन्दता के कारण जल में थूक-खखार तथा मल-मूत्र आदि को डालेगा, तो यह उसके पास चली जायेगी।’’
इस प्रकार वह महाभयावह ब्रह्माहत्या उन-उन स्थानों पर चली गयी। जो भी ऐसे कर्म करता है, वह उसके पास चली जाती है। यही सृष्टि रचयिता ब्रह्मा जी का विधान है।
विश्वजीत 'सपन'
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