Friday, June 21, 2019

महाभारत की लोककथा - (भाग 81)

 महाभारत की कथा की 106 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा



एक जापक ब्राह्मण की कथा

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    पूर्वकाल की बात है। हिमालय की कंदराओं में कौशिक वंश में उत्पन्न एक महायशस्वी ब्राह्मण रहता था। वह वेदों का महाज्ञाता था। एक बार गायत्री का जाप करते हुए सैंकड़ों वर्षों तक उसने तपस्या की। प्रसन्न होकर सावित्री देवी ने उसे दर्शन दिये और कहा - ‘‘हे ब्राह्मण देवता, मैं प्रसन्न हूँ। बताइये आपकी मनोकामना क्या है?’’


    ब्राह्मण ने कहा - ‘‘शुभे, इस मन्त्र के जप में मेरी इच्छा निरन्तर बढ़ती रहे तथा मन की एकाग्रता में प्रतिदिन वृद्धि हो।’’


    गायत्री ने कहा - ‘‘तथाऽस्तु। तुम एकाग्रचित्त होकर नियमपूर्वक जप करो। धर्म स्वयं तुम्हारे पास आयेगा।’’


    यह कहकर सावित्री देवी चली गयीं। वह ब्राह्मण पुनः जप करने लगा। लगभग सौ वर्षों तक उसने पुनः जप किया, तो एक दिन धर्म ने आकर कहा - ‘‘मुने, तुम्हारा संकल्प पूर्ण हुआ। तुम्हें जप का फल मिल चुका है। मनुष्यों एवं देवताओं को प्राप्त होने वाले जितने भी लोक हैं, उन्हें तुमने जीत लिया है। अब तुम देह-त्याग कर उन लोकों का भोग करो।’’


    ब्राह्मण ने कहा - ‘‘मुझे इन लोकों से क्या काम? यह मेरा संकल्प नहीं है।’’


    धर्म ने कहा - ‘‘किन्तु, तुम्हें अपने शरीर का त्याग करना ही चाहिये। उसकेे बाद तुम स्वर्गलोक जा सकते हो।’’


    ब्राह्मण ने कहा - ‘‘हे धर्म, शरीर के बिना स्वर्ग में रहने की इच्छा नहीं है। आप जाइये, मैं यहीं प्रसन्न हूँ।’’


    उसी समय यम, काल एवं मृत्यु भी उसके पास आये और उन्होंने अपना परिचय दिया, तो ब्राह्मण ने कहा - ‘‘सूर्यपुत्र यम, महात्मा काल, मृत्यु एवं धर्म का मैं सादर स्वागत करता हूँ, किन्तु वह नहीं चाहिये, जो आप चाहते हैं।’’


    ऐसा कहकर उस ब्राह्मण ने पाद्य-अर्घ्य आदि का निवेदन किया और कहा - ‘‘आपलोगों से मिलकर मुझे अति प्रसन्नता हुई। अब मुझे क्या आज्ञा है?’’


    दैवयोग से उसी समय यात्रा को निकले राजा इक्ष्वाकु भी वहाँ आ पहुँचे। उस ब्राह्मण ने उनका आदर-सत्कार किया तथा कुशल-क्षेम पूछने के बाद कहा - ‘‘महाराज, आपका स्वागत है। कहिये मैं आपके लिये कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ?’’


    राजा इक्ष्वाकु ने कहा - ‘‘मुनिवर, पहले मेरा प्रणाम स्वीकार करें। तदनन्तर मेरा अनुरोध है कि मैं आपको दान देना चाहता हूँ। आपको जितने धन की इच्छा है माँग लीजिये।’’


    ब्राह्मण ने कहा - ‘‘ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं - निवृत्तिमार्ग पर चलने वाले एवं प्रवृत्तिमार्ग पर चलने वाले। मैं अब प्रतिग्रह से निवृत्त हूँ, अतः आप उन्हें दान दीजिये, तो प्रवृत्तिमार्ग पर चलने वाले हों। हाँ, यदि आपकी कोई इच्छा हो, तो अवश्य बतायें।’’


    राजा ने कहा - ‘‘मुनिवर, यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं, तो आपने जो सौ वर्षों तक जप करके फल प्राप्त किये हैं, उन्हें दे दीजिये।’’


    ब्राह्मण ने कहा - ‘‘एवमस्तु, आप मेरे जप का उत्तम फल स्वीकार कीजिये।’’


    राजा ने कहा - ‘‘आपने फल दे दिया, किन्तु यह तो बताइये कि इस जप का फल क्या है?’’


    ब्राह्मण ने कहा - ‘‘वह फल क्या होगा, यह तो मैं नहीं जानता, किन्तु अब आपको प्रदान कर दिया है। ये धर्म, काल, यम एवं मृत्यु भी इसके साक्षी हैं।’’


    राजा ने कहा - ‘‘मुनिवर, यदि फल अज्ञात है, तो ऐसे फल को लेकर मैं क्या करूँगा। यह आप ही अपने पास रखिये और मुझे आज्ञा दीजिये।’’


    ब्राह्मण बोला - ‘‘राजन्, मैंने फल प्राप्त करने की इच्छा से जप नहीं किया था, अतः नहीं जान सकता कि फल क्या होगा। आपने माँगा और मैंने दे दिया। अब आप पीछे नहीं हट सकते। इस बात का ध्यान रखें कि जो कोई प्रतिज्ञा करके देना नहीं चाहता तथा जो याचना करके लेना नहीं चाहता, वे दोनों ही मिथ्यावादी होते हैं। आपको सत्य का साथ देना चाहिये।’’


    तब राजा ने कहा - ‘‘उचित है मुने, किन्तु क्षत्रिय तो प्रजा की रक्षा करता है और दाता है, वह दान कैसे ले सकता है?’’


    ब्राह्मण बोला - ‘‘राजन्, मैंने दान लेने की प्रार्थना नहीं की थी। आपने ही माँगा था, अतः आपको स्वीकार करना ही होगा।’’


    राजा ने कहा - ‘‘तब ठीक है मुनिवर, एक उपाय है कि हम दोनों ही एक साथ इस एकत्र फल को भोगें। इसका कारण है कि क्षत्रिय दान लेते नहीं, बल्कि देते हैं। यदि ऐसा नहीं, तो आप भी मेरे शुभ कर्मों के फल को स्वीकार करें।’’


    ब्राह्मण ने कहा - ‘‘आपने जो माँगा, वह मेरे पास धरोहर है, उसे आपको लेना ही होगा अन्यथा मैं आपको शाप दे दूँगा।’’


    राजा को बड़ा दुःख हुआ और वह बोला - ‘‘आज तक मैंने हाथ नहीं फैलाया, किन्तु आज आपसे कहता हूँ कि मेरी धरोहर मुझे दे दीजिये।’’


    तब उस ब्राह्मण ने तथा राजा ने संकल्प जल ले लिया। ब्राह्मण ने कहा कि मेरे समस्त पुण्यों का फल आप ग्रहण करें और तभी राजा ने कहा - ‘‘मैंने ग्रहण किया, किन्तु मेरे हाथ में भी संकल्प का जल है, अतः हमलोग साथ-साथ रहकर समान फल के भागी हों।’’


    तब उस ब्राह्मण ने भी उसे स्वीकार कर लिया। इसके बाद देवराज इन्द्र भी समस्त देवी-देवताओं के साथ उपस्थित हुए। आकाश में तुरही आदि बजने लगे। फूलों की वर्षा होने लगी। उसके बाद उन दोनों ने अपने मन से विषयों को निकाल दिया। फिर मूलाधार चक्र से कुण्डलिनी को उठाकर प्राण वायुओं को स्थापित किया। फिर मन को प्राण एवं अपान के साथ मिलाकर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि साधे हुए दोनों भौहों के मध्य आज्ञाचक्र में स्थिर किया। उसके बाद उन्होंने मन को जीकर दृष्टि को एकाग्र करके प्राणसहित मन को मूर्धा में स्थापित किया तथा वे समाधिस्थ हो गये। तभी उस महात्मा ब्राह्मण के ब्रह्मरन्ध्र का भेदन करके एक प्रकाश निकला और स्वर्ग की ओर चल पड़ा। ब्रह्मा जी ने उसका स्वागत किया और बोले - ‘‘जप करने वालों को भी वही फल मिलता है, जो योगियों को मिलता है। तुम अब मुझमें निवास करो।’’


    ब्रह्मा जी की आज्ञा लेकर वह प्रकाश ब्रह्मा जी के मुख में प्रवेश कर गया। इसी प्रकार राजा इक्ष्वाकु भी भगवान् ब्रह्मा जी में लीन हो गया।


    देवताओं की पृच्छा पर ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘जो महास्मृति एवं अनुस्मृति का पाठ करता तथा योग में अनुरक्त रहता है, वह भी इसी प्रकार शरीर त्याग करके उत्तम गति को प्राप्त करता है।’’


विश्वजीत 'सपन'

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