Sunday, October 20, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 92)




महाभारत की कथा की 117 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 


श्रद्धाहीन कर्म व्यर्थ है

===============

    प्राचीन काल में जाजलि नामक एक ऋषि हुआ करते थे। वे अपनी कठोर एवं उग्र तपस्या हेतु प्रसिद्ध थे। एक बार की बात है। तपस्या करते समय उनके बाल भीगे होने के कारण उलझकर जटा में परिणत हो गये। तब उन्हें कोई ठूँठ समझकर एक चिड़िया के जोड़े ने उसमें अपना एक घोंसला बना लिया। जाजलि बड़े दयालु थे। वे हिले-डुले नहीं तथा उन्होंने चिड़िया के घोंसले को भी नहीं हटाया एवं उसी प्रकार खड़े रहे। वे दोनों पक्षी वहीं सुख से रहने लगे। चार महीने बीत गये, फिर महर्षि के मस्तक पर ही उन्होंने अण्डे भी दिये। कुछ समय के बाद उन अण्डों से चिड़िया के बच्चे भी बाहर निकले तथा वे भी वहीं पलने-बढ़ने लगे। कुछ समय बाद बच्चों के पर निकल आये और वे उड़ने लगे, तो महर्षि को बड़ा हर्ष हुआ। वे हिलते-डुलते नहीं थे। कुछ समय बाद चिड़ियों के माँ-बाप अकेले ही बाहर जाने लगे तथा वे बच्चे भी अपनी आवश्यकताओं के अनुसार आने-जाने लगे। अब वे दिन भर बाहर रहते तथा सन्ध्या ही वापस आते थे। फिर एक दिन वे सभी कहीं चले गये तथा महीनों तक वापस नहीं आये। मुनि को आश्चर्य भी हुआ, किन्तु वे स्वयं को सिद्ध समझने लगे। उन्हें लगा कि उन्होंने बड़ा पुण्य का कार्य किया। 


    एक दिन उन्हीं बातों को याद करके उन्होंने मन ही मन कहा - ‘‘मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया है।’’


    उनके ऐसा कहते ही आकाशवाणी हुई - ‘‘जाजलि, तुम नहीं जानते कि धर्म पालन के संदर्भ में काशीनगरी के तुलाधार वैश्य की बराबरी कोई नहीं कर सकता।’’


    मुनि को बड़ा अमर्ष हुआ तथा वे तत्काल ही तुलाधार से मिलने चल दिये। काशी नगरी में उन्होंने देखा कि तुलाधार अपनी दुकान पर बैठा व्यापार कर रहा था। जाजलि को देखते ही उसने कहा - ‘‘प्रणाम मुनिवर, आपने समुद्र तट पर बड़ी भारी तपस्या की। आपके मस्तक पर चिड़ियों ने अण्डे दिये। वे जब चले गये, तो अपने स्वयं को बड़ा धर्मात्मा समझा। तभी आकाशवाणी हुई तथा उसी के कारण आप यहाँ आये हैं। बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।’’
    जाजलि विस्मित हो गये और पूछा - ‘‘आश्चर्य है कि तुम व्यापार करते हुए भी इतना कुछ जानते हो। बताओ तुम्हें ऐसी बुद्धि किस प्रकार प्राप्त हुई।’’


    तुलाधर ने कहा - ‘‘मुनिवर, मैं सनातन धर्म के रहस्यों को जानता हूँ। किसी भी प्राणी से द्रोह न करके जीविका चलाना धर्म माना गया है। मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हूँ। मैं समस्त प्राणियों के प्रति एक समान भाव रखता हूँ। यही मेरा व्रत है। धर्म तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म है तथा कोई भी धर्म निष्फल नहीं होता। व्यवसाय ही मेरा धर्म है। उसका पालन करना मेरा कर्तव्य।’’


    जाजलि ने कहा - ‘‘तुम व्यवसाय करते हुए धर्म का उपदेश दे रहे हो। तुम्हारी बातें नास्तिक की भाँति हैं। कर्म करना उचित है, किन्तु ईश्वरीय सत्ता को मानना पड़ता है।’’


    तुलाधार ने कहा - ‘‘मैं नास्तिक नहीं हूँ, मैं यज्ञादि का विरोध नहीं करता, बल्कि धर्म के स्वरूप को भली-भाँति जानता हूँ। धन कमाना अनुचित नहीं, किन्तु वैदिक वचनों के तात्पर्य न समझकर मिथ्या यज्ञों का प्रचार व्यर्थ है। शुभ कर्म द्वारा जिस हविष्य का संग्रह किया जाता है, देवता उसी के होम से प्रसन्न होते हैं। कामना के वशीभूत यज्ञ करना, बगीचा बनवाना, तालाब खुदवाना उचित नहीं। उस कामना से उत्पन्न संतान भी लोभी होती है। समदर्शी कोई कामना नहीं करता, क्योंकि उसकी कामनायें स्वतः पूर्ण हो जाती हैं। असल में ज्ञानी पुरुष तो अपने को ही यज्ञ का उपकरण मानकर मानसिक यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। कर्म का त्याग करने वाले ही लोक-संग्रह के लिये मानसिक यज्ञ में प्रवृत्त होते हैं।’’


    जाजलि ने कहा - ‘‘मानसिक यज्ञ मैंने नहीं सुना तथा यह कठिन भी प्रतीत होता है। जो मानसिक यज्ञ का अनुष्ठान नहीं कर सकते, उनकी क्या गति होती है?’’


    तुलाधार ने कहा - ‘‘मुनिवर, श्रद्धालु पुरुष घी, दूध, दही तथा पूर्णाहुति से ही अपना यज्ञ पूर्ण कर लेते हैं। यह आत्मा ही प्रधान तीर्थ है। इसके लिये जगह-जगह भटकना आवश्यक नहीं। अहिंसा-प्रधान धर्म का पालन करना ही धर्म का अनुपालन है। आदरणीय, ये जो पक्षी आकाश में उड़ रहे हैं, उनमें से अनेक आपके मस्तक से उत्पन्न हुए हैं। आप उनके पितालुल्य हैं। मेरी बात छोड़िये तथा उन्हें बुलाइये। वे ही अहिंसा-प्रधान धर्म की बातें आपसे कहेंगे।’’


    जाजलि ने आश्चर्य मिश्रित पुकार से उन्हें बुलाया तो वे आये एवं मनुष्य की भाँति स्पष्ट बोली में बोलने लगे। उन्होंने कहा - ‘‘ब्रह्मन्, हिंसा की भावना से रहित जो कर्म किये जाते हैं, वे ही इस लोक एवं परलोक में कल्याणकारी होते हैं। हिंसा श्रद्धा का नाश करती है, जो मनुष्य का सर्वनाश करती है। श्रद्धा सबकी रक्षा करती है। उसके ही प्रभाव से विशुद्ध जन्म प्राप्त होता है। ध्यान एवं जप से भी अधिक श्रद्धा का महत्त्व है। असल में श्रद्धाहीन कर्म व्यर्थ हो जाता है। अश्रद्धा सबसे बड़ा पाप है। आपने हमारे लिये जो भी किया उसमें श्रद्धा का अभाव था, क्योंकि आपको अपने धर्म पर गर्व था न कि उस श्रद्धा से कि जो आपने किया वह उचित था।’’


    जाजलि को अब समझ में आया कि आकाशवाणी का क्या अर्थ था। तालाब खुदवाना देना, अन्न वितरण कर देना अथवा किसी को शरण देना तब तक तो ठीक है, जबकि उन्हें श्रद्धा से किया गया हो, अन्यथा वह व्यर्थ है। दम्भ से किया गया उपकार, उपकार न होकर पाप बन जाता है। 


विश्वजीत 'सपन'  
   

No comments:

Post a Comment