Wednesday, July 1, 2020

महाभारत की लोककथा (भाग - 102)

महाभारत की कथा की 127 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।


ब्रह्म से उत्पन्न सभी वर्ण ब्राह्मण हैं

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    देवरात के पुत्र महायशस्वी राजा जनक ने महर्षि याज्ञवल्क्य से एक बार पूछा - ‘‘मुनिवर, उस अव्यक्त परब्रह्म के सम्बन्ध में मुझे ज्ञान दें, जो मनुष्यों के लिये सर्वाधिक लाभकारी है।’’


    याज्ञवल्क्य ने कहा - ‘‘बड़ी गूढ़ बात तुमने पूछी है। इसे ध्यानपूर्वक सुनो। पूर्वकाल की बात है। एक बार मैंने सूर्य की तपस्या की। वे प्रसन्न होकर बोले - ‘ब्रह्मर्षे, तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ। तुम्हें क्या वर चाहिये?’
यह सुनकर मैंने उन्हें प्रणाम किया और कहा - ‘भगवन्, मुझे यजुर्वेद का ज्ञान नहीं है। इस ज्ञान को प्राप्त करने का वर दीजिये।’
तब सूर्यदेव ने कहा - ‘‘विप्रवर, आपको यजुर्वेद प्रदान करता हूँ। तुम अपना मुख खोलो, वाग्देवता सरस्वती को प्रवेश करने दो।’’ 


मैंने अपना मुख खोला, तो देवी सरस्वती मेरे मुख में प्रवेश कर गयीं। उससे मेरे शरीर में जलन होने लगी। मैं जल में प्रवेश कर गया कि जलन थोड़ी कम हो जाये, तब भगवान् सूर्य ने कहा - ‘‘थोड़ी देर तक इसे सहन कर लो। यह अपने-आप शान्त हो जायेगी।’’ तब ऐसा ही हुआ। कुछ समय के उपरान्त जलन समाप्त हो गयी। 


उसके पश्चात् सूर्यदेव ने कहा - ‘‘परकीय शाखाओं तथा उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेद तुम्हारे भीतर प्रतिष्ठित होंगे। साथ ही तुम सम्पूर्ण शतपथ का भी सम्पादन करोगे। उसके बाद तुम्हारी बुद्धि मोक्ष में स्थिर होगी।’’


सूर्यदेव के जाने के बाद मैंने देवी सरस्वती का स्मरण किया। तब देवी ऊँकार को आगे करके प्रकट हुईं। मैंने सूर्यदेव को निमित्त करके अर्घ्य निवेदन किया तथा उन्हीं का चिंतन करता बैठ गया। तब बड़े हर्ष से मैंने रहस्य-संग्रह तथा परिशिष्ट भाग सहित समस्त शतपथ का संकलन किया। इस प्रकार सूर्यदेव के द्वारा उपदेश दी हुई पन्द्रह शाखाओं का ज्ञान प्राप्त करके, फिर मैंने वेद-तत्त्व का चिन्तन किया।
एक समय वेदान्त-ज्ञान में कुशल विश्वावसु नामक गन्धर्व ने मुझसे पूछा - ‘‘सत्य एवं सर्वोत्तम वस्तु क्या है?’’


तब मैंने कहा था - ‘‘गन्धर्वराज, वेदप्रतिपाद्य ज्ञेय परमात्मा ही सर्वोत्तम वस्तु है और यही सत्य है। सम्पूर्ण वेद ज्ञान के बाद भी यदि परमेश्वर का ज्ञान न हुआ, तो वह मूर्ख शास्त्र-ज्ञान का बोझ ढोने वाला ही है। अज्ञानी मनुष्य पच्चीसवें तत्त्व जीवात्मा एवं सनातन परमात्मा को भिन्न-भिन्न मानते हैं, किन्तु साधु पुरुषों की दृष्टि में दोनों एक ही हैं।’’


विश्वावसु ने कहा - ‘‘मुनिवर, आपने पच्चीसवें तत्त्व जीवात्मा को परमात्मा से अभिन्न बतलाया, किन्तु वास्तव में जीवात्मा परमात्मा है अथवा नहीं, इस बारे में संदेह है।’’


तब मैंने कहा - ‘‘तुम मेधावी हो। प्रकृति जड़ है, उसे पच्चीसवाँ तत्त्व जीवात्मा जानता है, किन्तु वह जीवात्मा को नहीं जानती। सांख्य एवं योग के विद्वान् प्रकृति को प्रधान कहते हैं। साक्षी पुरुष चौबीसवें तत्त्व प्रकृति को, पच्चीसवें अपने को तथा छब्बीसवें परमात्मा को देखता है। जब जीवात्मा अभिमान कर स्वयं को सबसे बड़ा मानता है, तब वह परमात्मा को नहीं देख पाता, किन्तु परमात्मा सबको देखता है। जब जीवात्मा को यह ज्ञान हो जाता है कि मैं भिन्न हूँ, प्रकृति मुझसे सर्वथा भिन्न है, तब वह उससे असंग होकर छब्बीसवें तत्त्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है। परमात्मा का दर्शन हो जाने के बाद वह पुनर्जन्म के बन्धन से सदा के लिये छुटकारा पा लेता है। यही ज्ञान है तथा शेष अज्ञान।’’


यह सुनने के उपरान्त विश्वावसु इस ज्ञान को मंगलकारी बता कर चले गये। तो राजन्, ज्ञान से ही मोक्ष होता है, अज्ञान से नहीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा नीच योनि में उत्पन्न पुरुष से भी यदि ज्ञान मिल सके, तो उसे उस पर श्रद्धा रखनी चाहिये। ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण सभी वर्ण ब्राह्मण हैं। इस सबकी उत्पत्ति ब्रह्मा से ही हुई है, अतः किसी भी वर्ण को ब्रह्म से भिन्न नहीं समझना चाहिये।’’


इस प्रकार याज्ञवल्क्य जी से उपदेश पाकर मिथिला नरेश को अति प्रसन्नता हुई। उन्होंने सत्कार पूर्वक मुनि की प्रदक्षिणा की तथा उन्हें विदा किया। तदनन्तर उन्होंने सुवर्णसहित एक करोड़ गायें दान कीं तथा अनेक ब्राह्मणों को रत्नादि उपहार में दिये। कुछ समय बाद उन्होंने मिथिला का राज्य अपने पुत्र को सौंपकर यतिधर्म का पालन करने लगे।


 कहा गया है कि जो कुछ दिया जाता है, जो प्राप्त होता है, जो देता है तथा जो ग्रहण करता है; वह सब एकमात्र आत्मा ही है। सदा यही मान्यता रखनी चाहिये तथा इसके विपरीत विचार में कभी मन नहीं लगाना चाहिये। जो शास्त्र के अनुसार चलने वाले हैं, वे ही प्रकृति से पर, नित्य, जन्म-मरण से रहित, मुक्त एवं सत्स्वरूप परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस उपदेश का मनन करने से मनुष्य सनातन, अविनाशी, शुभ, अमृतमय तथा शोकरहित ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।


विश्वजीत ‘सपन’

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