Friday, February 17, 2012

शकुंतला का विरह

जनमेजय ने वैशम्पायन जी से देवताओं, दानवों आदि के जन्म की कथा सुनने के बाद कुरुवंश की उत्पत्ति की कथा सुनने की इच्छा प्रकट की। तब वैशम्पायन जी ने इसी क्रम में दुष्यंत एवं शकुन्तला की कथा सुनाई।
महाभारत, आदिपर्व


शकुंतला का विरह



यह उस समय की बात है, जब पुरुवंश के प्रतापी राजा दुष्यंत हस्तिनापुर पर राज किया करते थे। उस समय पशु-पक्षियों का शिकार करना एक मनोरंजन का साधन था। राजसी लोग अक्सर शिकार करने के लिए वनों में जाते रहते थे। 
     एक दिन की बात है। राजा दुष्यंत शिकार खेलने वन में गए। शिकार खेलते-खेलते घने वन में जा पहुँचे। उनकी सेना पीछे छूट गई। किन्तु वे आगे बढ़ते गए। उस वन को पार करने के बाद उन्हें एक उपवन मिला। वह उपवन बहुत ही सुन्दर था। वहाँ चारों ओर फल-फूलों के वृक्ष लगे हुए थे। उन पर तरह-तरह के फल-फूल लदे थे। उनकी सुगंध दूर-दूर तक फैल रही थी। सुन्दर-सुन्दर पक्षी अपने मधुर स्वरों में चहक रहे थे। उस उपवन की शोभा बड़ी निराली थी।
     दुष्यंत को जानने की इच्छा हुई कि वह उपवन किसका था। वे और आगे बढ़े तो सामने ही उन्हें एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ जगह-जगह पर ऋषि-मुनि तपस्या कर रहे थे। मालिनी नदी के तट पर बसा वह आश्रम ब्रह्मलोक के समान प्रतीत हो रहा था। उन्होंने आश्रम में प्रवेश किया, किन्तु वहाँ पर कोई दिखाई नहीं दिया। निर्मल एवं शांत उस आश्रम के द्वार पर जाकर उन्होंने पुकार लगाई। कुछ देर बाद अप्सरा के सामान अति-सुंदर एक कन्या तपस्विनी के परिधान में बाहर निकली। अतिथि को देखकर आदर से बोली - "हे अतिथि देव, आपका ऋषि कण्व के आश्रम में स्वागत है।"
     राजा ने अपना परिचय दिया तो उस तपस्विनी कन्या ने उन्हें आदरपूर्वक आसन दिया और  एक अतिथि के समान स्वागत-सत्कार करना प्रारंभ कर दिया। वह बड़े मनोयोग से अतिथि की सेवा करती जा रही थी, जैसे उसका प्रतिदिन का नियम हो। दुष्यंत ने अनुभव किया कि उस कन्या के मुख पर अस्वाभाविक तेज था। वह शांत भाव से एक कुशल स्त्री की भाँति कार्य कर रही थी। राजा दुष्यंत एकटक उस परम सुंदरी को देखते रह गए। वैसा अद्भुत एवं अनुपम सौंदर्य उन्होंने उससे पहले कभी नहीं देखा था। उधर वह स्त्री उन्मुक्त भाव से अतिथि सत्कार में लगी हुई थी। उसे न संकोच था और न ही इस बात का भान कि राजा उसकी सुंदरता पर मोहित होते जा रहे थे। 
     अपने सारे काम निपटा कर उस स्त्री ने राजा से पूछा - "राजन्, हमारा आतिथ्य स्वीकार करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार। कहिए मैं आपके लिए क्या कर सकती हूँ।"
     राजा ने पूछा - "तुम कौन हो देवी? तुम्हारे माता-पिता कौन हैं?"
     "मैं शकुंतला हूँ और मैं महर्षि कण्व की पुत्री हूँ।" 
     राजा चकित हो गये और पूछा - "हे सुन्दरी, महर्षि कण्व तो अखण्ड ब्रह्मचारी हैं। फिर तुम उनकी पुत्री कैसे हो सकती हो?"
     "राजन्, इसके लिए आपको मेरे जन्म की कहानी सुननी पड़ेगी।" तपस्विनी बोली।
     "हे सुन्दरी, मैं जानना चाहता हूँ।" राजा ने कहा।
     "तो सुनिये राजन्।"
     तपस्विनी कन्या उनके पास ही बैठ गई और कहने लगी - "एक ऋषि के पूछने पर मेरे पिता कण्व ने मेरे जन्म की कथा कुछ इस प्रकार सुनाई थी। एक बार परम तपस्वी विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे। उनकी तपस्या के कारण इन्द्र का आसन डोलने लगा, तब उनकी तपस्या भंग करने के उद्देश्य से भगवन इन्द्र ने मेनका नामक एक अप्सरा को भेजा था। तपस्वी विश्वामित्र एवं उस अप्सरा के संयोग से मेरा जन्म हुआ। मेरी माता मुझे वन में छोड़कर चली गई। तब शकुन्तों (पक्षियों) ने जंगली पशुओं से मेरी रक्षा की। इसलिए मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। सौभाग्य से महर्षि कण्व उस वन में घूम रहे थे। उन्होंने मुझे वहाँ उस हालत में देखा तो उठाकर आश्रम ले आए। उन्होंने ही मुझे पाला-पोसा और बड़ा किया। कहते हैं कि जन्म देने वाले, प्राणों की रक्षा करने वाले और अन्न देने वाले पिता कहे जाते हैं। इसलिए महर्षि कण्व मेरे पिता हैं।"
     तपस्विनी ने बड़ी रोचकता से कहानी बताई।
     दुष्यंत को यह जानकर खुशी हुई कि शकुन्तला क्षत्रिय कन्या थी। वे उसकी सुन्दरता पर पहले से ही मोहित थे। इसलिए अब वे विवाह करने को इच्छुक हो गये। बिना समय नष्ट किए राजा ने शकुंतला के सामने गंधर्व-विवाह का प्रस्ताव रख दिया।
    
          शकुन्तला ने कहा - "राजन्, यह संभव नहीं है?"
     राजा का दिल बैठ गया। उसने पूछा - "किन्तु, क्यों देवी? तुम एक क्षत्रिय कन्या हो। फिर हमारा विवाह क्यों नहीं हो सकता? क्षत्रियों में गंधर्व विवाह की परम्परा है।"
     शकुंतला ने कहा - "आपका कहना उचित है, राजन्। किन्तु, बात यह है कि बिना पिता की अनुमति के विवाह करना अनुचित है।"
     "तुम्हारे पिता कब तक आएँगे, देवी?"
     "संध्या वंदना से पहले वे अवश्य आ जायेंगे,राजन्।"
     "किन्तु देवी, तब तो बहुत देर हो जायेगी।" राजा ने अधीर होते हुए कहा। 
     "किन्तु राजन्, मैं अपने पिता कण्व की अनुमति के बिना विवाह नहीं कर सकती।" शकुंतला ने कहा।
     किन्तु राजा हठ करते रहे और अनेक प्रकार से अनुनय-विनय करते रहे। 
     तब राजा के बार-बार आग्रह करने पर शकुंतला बोली - "राजन्, मैं इस शादी के लिए तैयार हूँ। लेकिन मेरी एक शर्त है।"
     "मुझे तुम्हारी हर शर्त मंजूर है।" राजा ने अधीर होते हुए कहा।
     राजा दुष्यंत प्रेम में इतना पागल हो चुके थे कि उन्होंने किसी संभावना पर विचार करना भी छोड़ दिया था कि इस प्रकार के विवाह के क्या परिणाम हो सकते थे।
     अत: जब शकुंतला ने शर्त बताई तो वे बिना विचारे ही स्वीकार कर लिए गए।
     शकुंतला ने अपनी शर्त रखी, "राजन्, आपके बाद हमारा पुत्र ही सम्राट होगा। वह मेरे जीवन काल में ही युवराज होगा। यदि आप मेरी यह शर्त स्वीकार करते हैं तो मैं आपको स्वीकार करती हूँ। लेकिन आपको यह प्रतिज्ञा करनी होगी।"
     राजा दुष्यंत ने उसकी शर्त स्वीकार कर ली और वचन भी दे दिया। तब शकुंतला ने राजा से उसी समय गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ समय बिताने के बाद दुष्यंत अपने नगर वापस आ गए। जाते समय उन्होंने कहा कि वे बहुत जल्द अपने पूरे दल-बल के साथ उसे ले जाने आएँगे। शकुंतला राजा से वचन पाकर वहीं आश्रम में रह गई। 
     जब ऋषि कण्व आश्रम में आये तो शकुंतला ने राजा दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह वाली बात बताई। तब ऋषि ने उसे सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया और यह सोचकर बहुत प्रसन्न हुए कि शकुंतला को एक योग्य वर की प्राप्ति हो गई थी। वे बहुत दिनों से इसी चिंता में थे कि उसके लिए योग्य वर कि तलाश वे कैसे कर पाएँगे क्योंकि उनके लिए नगर में जाकर यह कार्य करना कठिन था। फिर एक ब्राह्मण के घर में पली-बढ़ी कन्या को किसी राजा द्वारा स्वीकार करना कठिन था। यह तो अवश्य ही कोई विधि का विधान होगा।
     वे खुशी-खुशी रहने लगे, लेकिन सालों बीत गए, राजा नहीं आये। इस बात ने ऋषि कण्व को चिंता में डाल दिया। ऋषि जानते थे कि क्षत्रिय अपने वचन के पक्के होते हैं। किन्तु, राजा का इतने दिनों तक कोई खोज-खबर नहीं लेना कुछ उचित संकेत नहीं दे रहा था। 
     इस बीच शकुंतला ने एक अत्यंत सुन्दर और वीर बालक को जन्म दिया। वह देव कुमार के समान लगता था। छः वर्ष की छोटी उम्र में ही वह बड़े-बड़े पशुओं को आश्रम के वृक्षों से बाँध दिया करता था। इसलिए आश्रम के लोगों ने उसका नाम रखा - सर्वदमन। महर्षि कण्व भी उससे बहुत प्रभावित थे।
     इन्हीं परिस्थितियों से विवश होकर एक दिन उन्होंने शकुंतला को बुलाया। लेकिन वे शकुंतला को अपनी चिंता से चिंतित नहीं करना चाहते थे। अत: उन्होंने अपनी बात को दूसरी तरह से कही ताकि वाह जायज प्रतीत हो।
     "बेटी, अब यह बालक युवराज होने योग्य हो गया है। पता नहीं राजा कब तक यहाँ आ पाएँगे। राजाओं के पास बहुत काम होते हैं। अत: तुम ही इसे राजा के पास ले जाकर सौंप दो।"
     पिता की आज्ञा लेकर शकुंतला अपने पुत्र सर्वदमन के साथ हस्तिनापुर पहुँची। सूचना मिलने पर राजा ने उसे राजसभा में आने को कहा। शकुंतला को अच्छा तो नहीं लगा। फिर यह सोचकर कि राजा की कोई मजबूरी होगी, वह राजसभा में गई।
     राजा ने उसे इस प्रकार देखा जैसे कि उसे पहली बार देखा हो और वह उसकी प्रार्थना सुनना चाहते हों। शकुंतला को यह बात अच्छी नहीं लगी, किन्तु वह कुछ बोली नहीं। 
     राजा ने पूछा -"बताओ, तुम्हें क्या कहना है?"
     शकुंतला को अब कुछ ठीक नहीं लग रहा था। उसे प्रतीत हो चुका था कि राजा या तो उसे भूल चुके हैं या फिर अपनाने में हिचक रहे हैं. अत: उसने उन्हें याद दिलाने का प्रयत्न करना चाहिए। वह सर्वदमन को दिखाते हुए बोली - "राजन्, यह आपका पुत्र है। अब आप अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार इसे युवराज बनाइये।"
     "कैसी प्रतिज्ञा? और तुम कौन हो, जो मुझ पर ऐसे लाँछन लगा रही हो?" राजा ने अपने तेवर कड़े कर पूछा।
     शकुंतला क्षणभर के लिए तो अचंभित रह गई। उसे लगा शायद राजा मसखरी कर रहे हैं। इसलिए उसने फिर से वही निवेदन किया तो राजा दुष्यंत भड़क उठे।
     "दुष्ट तापसी, पता नहीं तू किसकी पत्नी है और क्यों यह नाटक कर रही है? मेरा तुझसे कोई संबंध न कभी था और न है।"
     शकुंतला को लगा कि जैसे उसके सिर पर किसी ने वज्र से प्रहार कर दिया हो और वह अपने होश खो बैठेगी। उसने अपने कान बंद कर लिए। ऐसे अपशब्द तो कोई साधारण स्त्री के लिए भी नहीं कहता। वह सोचने लगी। राजा ऐसा क्यों कह रहे हैं? क्या वे मुझे सचमुच ही भूल गए हैं? यदि भूल गए हैं तो मैं उन्हें याद दिलाने का प्रयत्न करती हूँ। यदि मेरे याद दिलाने से उन्हें याद आ जाता है तो एक और बार प्रयास करने में कोई हानि नहीं है।
     "राजन्, आपका और मेरा गन्धर्व विवाह हुआ है।"

     यह कहकर उसने ऋषि कण्व के आश्रम वाली सारी बातें बता दीं। किन्तु दुष्यंत नहीं माने और शकुंतला को पहचानने से इंकार करते रहे। शकुंतला अब पूरी तरह से निराश हो गई। उसे लगा कि शायद पुत्र के लिए उनके मन में कुछ दया हो। यदि पुत्र कि दुहाई दी जाए तो संभव है कि वे ऐसा आचरण नहीं करेंगे और हमें अपना लेंगे। 
     "राजन्, यह आपका ही पुत्र है। इसे पहचानने का प्रयत्न कीजिए। मेरी आपसे विनती है कि आप चाहें तो मुझे छोड़ सकते हैं, किन्तु इस बालक का क्या कसूर है? कृपाकर इसे स्वीकार कर लें।"
     किन्तु, दुष्यंत पर इसका भी कोई असर नहीं हुआ। तब शकुंतला अपने भाग्य को कोसते हुए कहने लगी - "मैं मेनका की कन्या हूँ। विश्वामित्र मेरे पिता हैं। अवश्य ही मैंने पूर्वजन्म में कोई पाप किया होगा, जिस कारण बचपन में मेरी माँ ने मुझे छोड़ दिया और अब आप भी मुझे छोड़ रहे हैं।"
     उसकी बात सुनकर दुष्यंत हँसने लगे और व्यंग्य करते हुए बोले - "कहाँ विश्वामित्र और मेनका और कहाँ तुम एक साधारण तापसी? वैसे भी एक तपस्विनी का गन्धर्व विवाह से क्या संबंध हो सकता है? तुम अवश्य झूठ बोल रही हो। तुम्हारे मन में छल है।"
     "छल तो आप कर रहे हैं राजन् जो सच को सच मानने से इंकार कर रहे हैं। मैंने तीन वर्ष तक इस पुत्र को अपने गर्भ में धारण किया है। देखिए इसे यह बिल्कुल आपके जैसा ही है।’
     शकुंतला ने सर्वदमन को आगे कर कहा।
     "हे कपट नारी, तुम्हारा अपराधी मन बता रहा है कि तुम झूठ बोल रही हो। इतने कम समय में यह बालक इतना बड़ा कैसे हो सकता है भला!" राजा ने उसके दिल पर चोट की।
     "देव गुण का कोई उत्तर नहीं होता राजन् !" शकुंतला रोते हुए बोली - "मैं समझ गई कि आप मुझे अपनाना नहीं चाह रहे हैं। यदि आपकी यही इच्छा है तो ठीक है। मैं आश्रम वापस चली जाऊँगी। परन्तु अपने पुत्र को तो अपना लीजिए। इसमें इसका क्या कसूर है?"
     ‘झूठी स्त्री, इसी से तुम्हारे आचरण का पता चलता है। तुम्हारे कहे अनुसार तुम मेरी पत्नी हो, लेकिन केवल पुत्र को मेरे पास रखना चाहती हो ताकि वह मेरे राज्य को हड़प सके।" राजा दुष्यंत का स्वर कठोर और निर्णायक था।
     शकुंतला से अब सहा नहीं गया। इतना बड़ा अन्याय ! पत्नी का ऐसा तिरस्कार करने वाला पति कहलाने योग्य नहीं है। इस तरह अपमान सहने से तो यहाँ से चले जाना ही बेहतर है। पता नहीं उसकी कैसी मति मारी गई थी जो उसने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। किन्तु मन की बात कहकर ही कम किया जा सकता है। यह सोचकर वह गुस्से से बोली।
     "राजन् ! जिस राज्य में स्त्री का आपमान हो वह राज्य कभी सुखी नहीं हो सकता। तुमने भरी राजसभा में न केवल मेरा अपमान किया, बल्कि अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़ी है। सत्य से बढ़कर  धर्म नहीं है। और झूठ का साथ हमेशा नहीं रहता है। मैं एक पतिव्रता स्त्री हूँ और झूठ का साथ नहीं दे सकती। मैं जा रही हूँ, लेकिन इतना कहकर जाती हूँ कि चाहे तुम इसको अपनाओ या नहीं, मेरा यह पुत्र ही सारी पृथ्वी पर राज करेगा।"
     इतना कहकर शकुंतला राजसभा से चल पड़ी। उसी समय आकाशवाणी हुई।
     "राजन् ! तुम शकुंतला का अपमान मत करो। शकुंतला सच कह रही है। यह बालक तुम्हारा ही पुत्र है। इसे ग्रहण करो। तुम्हारे भरण-पोषण के कारण ही इसका नाम भरत होगा।"
     यह सुनकर सारी राजसभा चकित रह गई। आकाशवाणी ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया। राजा का ऐसा बर्ताव और देवताओं की यह कैसी वाणी ! लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मामला क्या था?
     लोगों को इस प्रकार दुविधा में देखकर दुष्यंत ने कहा - "आपलोगों ने देवताओं की वाणी सुन ली। मैं भी यह स्वीकार करता हूँ कि यह मेरा ही पुत्र है। आपलोग मुझे क्षमा करें। मुझे यह नाटक करना पड़ा। यदि मैं केवल शकुंतला के कहने से इसे स्वीकार कर लेता तो सारी प्रजा इस पर संदेह करती। पुत्र भरत के युवराज होने पर भी आपत्ति करती। इसी कारण मैंने ऐसा दुर्व्यवहार किया।"
     राजसभा में बैठे सभी लोगों ने राजा के ऐसा कहने पर शंख आदि बजाकर इस सत्य को स्वीकार कर लिया। राजकुमार भरत को युवराज के सिंहासन पर बिठा दिया गया। फिर दुष्यंत ने सबों के सामने ही शकुंतला से क्षमा माँगी। सहृदय शकुंतला ने राजा दुष्यंत को क्षमा कर दिया और अपने बेटे और पति के साथ सुखपूर्वक रहने लगी।

विश्वजीत 'सपन'      

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति. शैली सरल एवं रोचक है. साधुवाद.

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    1. धन्यवाद, आत्माराम जी, अच्छा लगा कि आपने इसे देखा.

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  2. Good read. Would look forward to more of such stories

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    1. Thank you Mamu. Aroung 60 such stories are in making. All will be put up here one by one.

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