Monday, December 22, 2014

गीता ज्ञान - 11



विश्वरूपदर्शनयोग
 
गीता का एकादश अध्याय ‘विश्वरूपदर्शनयोग’ के नाम से प्रचलित है। यह अध्याय आध्यात्म को परिपूर्ण ढंग से समझने के लिये अति-महत्त्वपूर्ण है। भगवान् के दो रूप होते हैं - ऐश्वर्य एवं मधुर। ऐश्वर्यमय रूप में ज्ञानशक्ति, बल, वीर्य और तेज समाविष्ट होता है। यही भगवान् का विश्वरूप अथवा विराट् रूप है। यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि प्रारंभ में भागवत धर्म में ऐश्वर्य भाव की ही उपासना होती थी और कालान्तर में मधुर भाव का प्रवेश हुआ, जिसका विकसित प्रारूप श्रीभद्भागवत-महापुराण में भली-भाँति उल्लेख है। वस्तुतः एक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से देखें तो परमसत्ता के ऐश्वर्य को देखना किसी भी भक्त का सपना होता है और इसी दर्शन से भक्ति का संचार होता है। एक बार इस रूप को देखने पर उसकी आत्मा तृप्त हो जाती है और उसे बोध हो जाता है कि वह उस परमसत्ता के हाथों का एक खिलौना मात्र है। उसका रहा-सहा गर्व भी ढह जाता है और परमसत्ता में उसका विश्वास अटल हो जाता है। 

इस अध्याय में इसी ज्ञानतत्त्व का वर्णन है और भगवान् के नारायण स्वरूप का अति-सुन्दर वर्णन है। अर्जुन को इस बात का विश्वास हो गया कि उसके रथ की बागडोर सम्भालने वाले वासुदेव श्रीकृष्ण कोई नर नहीं हैं, बल्कि स्वयं नारायण हैं और उनकी इच्छा हुई कि वे भगवान् के ऐश्वर्यरूप का दर्शन करें ताकि उनका रहा-सहा भ्रम भी पूर्णतः दूर हो जाये। अर्जुन ने भगवान् से प्रार्थना की -


मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मनमव्ययम्।। गी. 11.4।।


अर्थात् हे प्रभो! यदि मेरे द्वारा आपका यह विराट् रूप प्रत्यक्ष देखा जाना संभव है और उसके लिये आप मुझे पात्र मानते हैं, तो हे योगेश्वर! आप मुझे अपने उस अविनाशी विराट् रूप का दर्शन कराइये। 


भगवान् ने अर्जुन की बात मानकर कहा कि हे पार्थ! अब तुम मेरे सैकड़ों, सहस्रों, नाना प्रकार के, नाना वर्ण के और नाना आकृतियों वाले अलौकिक रूप को देखो। मुझमें द्वादश आदित्यों, आठ वसुओं, एकादश रुद्र, दोनों अश्विनी कुमारों, उनचास मरुतों को देखो। मेरे इस शरीर में स्थित चराचर सम्पूर्ण जगत् को देखो और जो कुछ और भी देखना चाहते हो, उसे भी देखो। किन्तु तुम अपने इन नेत्रों से उन्हें नहीं देख सकते, अतः इस हेतु मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। इस दिव्य दृष्टि के बिना ईश्वर रूप को देखना असंभव है। यही दिव्य दृष्टि संजय के पास भी थी, जो महाराज धृतराष्ट्र को महाभारत के उस युद्ध को पल-पल होते दिखा रहा था। (संजय को यह दिव्य दृष्टि भगवान् वेदव्यास ने प्रदान की थी।) उसने महाराज धृतराष्ट्र को बताया कि ऐसा कहकर महायोगेश्वर ने अपना परम ऐश्वर्यरूप दिखाया।


अनेक मुखों और नेत्रों से युक्त, अनेक अद्भुत दर्शनों वाले, अनेक दिव्याभूषणों से युक्त, अनेक दिव्यायुध धारण किये हुए, दिव्य माला और वस्त्रों से सुशोभित, दिव्य सुगन्धों का अनुलेपन किये हुए, सम्पूर्ण आश्चर्यों से भरे, असीम, सभी दिशाओं में मुख किये हुए विराट् रूप परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। उस समय फैला प्रकाश सहस्रों सूर्यों के एक साथ उदय होने पर जितना प्रकाश हो, उससे भी कहीं तीव्र और अधिक था। अनेक प्रकार से विभक्त सम्पूर्ण जगत् को उस परमसत्ता के शरीर में एक साथ स्थित हुए देखकर अर्जुन ने आश्चर्यचकित, कंपनयुक्त शरीर के साथ परमेश्वर के समक्ष नतमस्तक होकर कहा।


हे देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण वेदों को, अनेक भूतसमुदायों को, कमलासन पर स्थित ब्रह्मा को, महादेव को, सम्पूर्ण ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ। अनेक भुजाओं, उदरों, मुखों और नेत्रों से युक्त, सभी ओर अनेक रूपों वाला देखता हूँ, जिसका न आदि, न मध्य और न ही अंत देख पा रहा हूँ। अनन्त भुजा वाले, चन्द्र, सूर्य रूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्निरूप मुख वाले और इस जगत् को स्वतेज से संतप्त होते देखता हूँ। स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का समग्र आकाश तथा सभी दिशायें आपसे ही परिपूर्ण हैं और आपके इस अलौकिक रूप को देखकर तीनों लोक भय से व्यथित हो रहे हैं। सभी देव-दानव, ऋषि-मुनि, सिद्ध-गंधर्व सभी विस्मित हैं। धृतराष्ट्र के सभी पुत्रादि, उनके सभी योद्धा और वीर आपके विकराल बने मुख में प्रवेश कर रहे हैं। कई तो चूर्णित सिरों समेत आपकी दाँतों के मध्य लटके हुए-से दिख रहे हैं। सभी प्रजातियाँ, वनस्पति आदि अति वेग से उड़कर आपके मुखों द्वारा ग्रास बनाये जा रहे हैं। इस उग्र रूप वाले आप कौन है? आप प्रसन्न हों, हे देवों के देव। 


अर्जुन को पूरी तरह से भयभीत और प्रार्थना करते देखकर श्री भगवान् बोले - मैं लोकों का विनाशक बढ़ा हुआ काल हूँ। इस समय लोकों को नष्ट करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ। ये योद्धागण बिना तुम्हारे भी नष्ट हो जायेंगे। अतः उठो और युद्ध करो। तुम भय मत करो, क्योंकि निश्चित ही तुम उनके विनाश के कारण बनोगे।


असल में यह विराट् रूप भगवान् के ऐश्वर्य का चरम विकास था। ऐसा ऐश्वर्य रूप को देखकर किसी का भी गर्व चकनाचूर हो सकता है और उसे इस बात का अनुभव होता है कि वह कुछ भी नहीं। अर्जुन को भी अनुभव हुआ कि वह बिना बात के ही स्वयं पर सभी योद्धाओं के संहार का आरोप लगा रहा था। उसका अहंकार ही मिथ्या था। यही जगत् सत्य है। ईश्वर ही कर्ता हैं, वही पालनहार एवं संहारक भी हैं। मानव को मात्र उनके उद्देश्यों के अनुसार ही जीवनयापन करना चाहिये।


अर्जुन को इस बात की अनुभूति भी हो रही थी कि उसके सखा कोई आम मनुष्य नहीं थे, बल्कि स्वयं ईश्वर थे, जिनके समक्ष मनुष्य स्वयं को दीन-हीन ही समझ सकता है। अपने कर्मों के लिये क्षमा ही माँग सकता है। अर्जुन बोल उठे - आप इस जगत् के परम आश्रय एवं उसे जानने वाले तथा जानने योग्य परम धाम हैं। आपको मैं बारंबार नमन करता हूँ। आपको जिस भी प्रकार से मैंने संबोधित किया वह मात्र प्रेम के कारण ही हुआ, उसके लिये मुझे क्षमा करें। तात्पर्य यह कि उन्होंने बिना यह जाने कि श्रीकृष्ण स्वयं नारायण हैं, उन्हें, मित्र, सखा, कृष्ण आदि नामों से पुकारा था। अतः जिस प्रकार पिता पुत्र के, सखा अपने सखा के और पति अपनी प्रियतमा के अपराध को सहन कर क्षमा करते हैं, आप भी करें। आपके इस आश्चर्यजनक विराट् रूप को देखकर मन हर्षित है, साथ ही भय से व्याकुल भी है। अतः हे देवेश, आप मुझे मुकुटधारी, गदा और चक्र धारण किये हुए रूप को दिखाइये। आप अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट होइये।


सामान्य मनुष्य में इतनी शक्ति नहीं कि वह ईश्वर के विराट् रूप को निरन्तर देखता रह सके। उस रूप में जो कार्य सम्पादित होते हैं, वे ईश्वर के अतिरिक्त न कोई समझ सकता है और न ही सहन कर सकता है, क्योंकि निर्लिप्तता आवश्यक है। मनुष्य मानसिक रूप से इतना सशक्त नहीं है। अतः अर्जुन का भयभीत होना एक स्वाभाविक आचरण था।


अतः श्री भगवान् बोले कि हे अर्जुन, जिस रूप को तुमने देखा, वह सामान्य रूप से कभी नहीं देखा सकता। यह मैंने ही तुम्हारे लिये संभव किया, किन्तु तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं होना चाहिये। तुम निर्भय हो जाओ औ मेरे चतुर्भुज रूप को फिर से देखो। इसके साथ ही भगवान् श्रीकृष्ण पुनः अपने सामान्य रूप में आ गये।


इस विराट् विश्वरूप को केवल अर्जुन एवं संजय ही देख पाये थे। इसके पूर्व भी भगवान् ने अक्रूर, यशोदा और दुर्योधन आदि को अपना विश्वरूप दिखाया था, किन्तु यह सबसे विलक्षण था। यह ऐश्वर्य प्रधान उग्र रूप था, जिसमें विकराल वीर योद्धाओं के महाविनाश का रोमांचकारी दृश्य भी सम्मिलित था। यह कहना अत्युक्ति नहीं कि आराध्य की महत्ता की गम्भीर आधारशिला पर भक्ति के भव्य प्रसाद का महल खड़ा होता है। इस कारण इस अध्याय की महत्ता स्वयंसिद्ध हो जाती है।


भगवान् के सहज रूप को देखकर अर्जुन पुनः शांत हो गये तब श्री भगवान् ने पुनः कहा - मेरे इन रूपों को कोई भी व्यक्ति आसानी से नहीं देख सकता। सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला, मेरे परायण, मेरा भक्त, जो आसक्ति रहित है और जो सम्पूर्ण प्राणियों से प्रेमभाव रखने में सक्षम है, वही भक्त मुझे प्राप्त कर सकता है।


गीता के सातवें अध्याय से दसवें अध्याय तक भगवान् श्रीकृष्ण ने जिन सर्वेश्वरत्व, अनन्तरूप का वर्णन किया है, उसका प्रायोगिक रूप इस अध्याय में प्रस्तुत किया गया है। अर्जुन की स्वीकृति इस महत्ता को प्रतिपादित करती है कि समस्त वैदिक देवताओं का समाहार श्रीकृष्ण में है। उन्हें पाने का सर्वसुलभ मार्ग भक्ति ही है। साथ ही भक्ति के वात्सल्यभाव, सख्यभाव एवं कान्ताभाव के बीज का अंकुरण भी इस अध्याय में स्पष्ट दिखाई देता है। 


विश्वजीत ‘सपन’

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