अथ पञ्चदशोऽध्यायः
पुरुषोत्तमयोग
पन्द्रहवें अध्याय को पुरुषोत्तम योग कहा गया है। इस अध्याय में जगत्, जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है। संसार के स्वरूप को पीपल के वृक्ष के प्रतीक के रूप में समझाने की चेष्टा की गयी है, जो अति-विलक्षण वृक्ष है।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।। गी. 15.1।।
सामान्य वृक्ष की जड़ें नीचे होती हैं और शाखायें ऊपर, किन्तु इस संसार वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर और शाखायें नीचे की ओर हैं। इसके मूल में परमात्मा का वास है तथा इसकी उत्पत्ति का कारण परमात्मा ही हैं। इसके पत्ते वेद हैं। वेद का अर्थ ज्ञान होता है। ज्ञान के कारण प्राणी जीवित है और वेद वर्णित ज्ञान ही संसार के विकास का प्रमुख साधन है। इस वृक्ष को जिसने जान लिया, उसने समस्त वेदों को जान लिया। इसकी शाखायें सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से सिंचित होकर बढ़ती आयी हैं। इनमें जो कोंपलें हैं, वे ही विषय हैं। इसमें कर्मबंधन वाली अहंता (मैं-पन), ममता (मेरा-पन) और वासनारूपी जड़ें और ऊपर सभी लोकों में फैली हुई हैं।
इस संसार रूपी वृक्ष की गति भी विलक्षण है। इसका स्वरूप असल में भिन्न है, जैसा इसे देखा अथवा बताया गया है। तत्त्वज्ञान होने पर इसका स्वरूप भिन्न दिखायी देता है। यह संसार प्रतिपल परिवर्तनशील है। इस संसार में व्यक्ति, वस्तु अथवा प्राणियों का विकास-क्रम समाप्त नहीं होता है। वह अनादि काल से चलता आ रहा है और अनन्त काल तक चलता ही रहेगा। इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं, क्षर (नाशवान्) तथा अक्षर (अनश्वर), इनमें प्राणियों का शरीर क्षर है और जीवात्मा का अक्षर। यही अपरा और परा प्रकृति है। यही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भी कहा गया है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थनि कर्षति।। गी.15.7।।
अर्थात् इस देह में स्थित जीवात्मा जो सनातन है, वह मेरा ही अंश है, परन्तु प्रकृति में स्थित होने पर वही मन एवं इन्द्रियों को आकर्षित करता है तथा उन्हें सजातीय मान लेता है। तात्पर्य यह कि जीवात्मा तो परमात्मा का ही अंश है, किन्तु वह मन एवं इन्द्रियों से अपनत्व जोड़ लेता है, जबकि यह वास्तविकता नहीं है। वास्तव में मात्र एक ही सत्य है, परमात्मा। इसी कारण मनुष्य नव शरीर धारण करता है, क्योंकि वह जिस शरीर का त्याग करता है, उसके समस्त संस्कारों को समेट लेता है। साथ ही इन्द्रियों द्वारा विषयों का सेवन करता है। शरीर को त्याग कर तीनों गुणों से युक्त आत्मा को अज्ञानीजन नहीं जान पाते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया होता है। मोहवश वे इन्द्रियों के बंधन में बंध जाते हैं और नवीन शरीर धारण करते हैं, किन्तु विवेकशील ज्ञानी इस आत्मा को तत्त्वपूर्वक जान लेते हैं।
इसके पश्चात् भगवान् परमात्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! जो तेज सम्पूर्ण जगत् का प्रकाशक है तथा जो तेज सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा में व्याप्त है, वह परमात्मा का ही हैं। वे ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को धारण करते हैं और वे ही रसरूप चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को पुष्ट करते हैं। वे समस्त प्राणियों के हृदय में सूक्ष्म रूप से स्थित होते हैं और उनसे ही स्मृति, ज्ञान और बुद्धि में रहने वाले संशय दूर होते हैं। वे ही परब्रह्म और वेदज्ञ हैं।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृत।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।। गी.15.17।।
श्री भगवान् कहते हैं कि इस संसार में नाशवान् और अनश्वर दो प्रकार के पुरुष हैं और इन दोनों से उत्तम परमपुरुष वह है, जो इनसे पृथक् तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका पोषण करता है, जो अविनाशी, परमेश्वर, परमात्मा नामों से पुकारा जाता है। वह नश्वर जड़वर्ग ‘क्षेत्र’ से सर्वथा अतीत हैं और जीवात्मा से भी उत्तम हैं। अस्तु वे लोक और वेद में ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हैं। जो भी ज्ञानी उन्हें इस प्रकार तत्त्वपूर्वक से पुरुषोत्तम रूप में जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है। पुरुषोत्तम में भक्ति जीव की मुक्ति का कारण है। यही परमात्मा अथवा ईश्वर है और यही सत्य है।
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विश्वजीत ‘सपन’
Great, I'll follow it
ReplyDeleteआभार sanjeeva जी।
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