अथ चतुर्दशोऽध्यायः
गुणत्रयविभाग योग
प्रस्तुत 14वाँ अध्याय ‘गुणत्रयविभाग योग’ कहलाता है। 13वें अध्याय के अंत में भगवान् ने कहा कि ज्ञानचक्षु से क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के भेद को देखने वाला परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। तब प्रश्न उठता है कि वह ज्ञान क्या है? उसका स्वरूप क्या हैं? उसे प्राप्त करने के उपाय क्या हैं? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर हमें इस अध्याय में प्राप्त होते हैं और इसमें प्रकृति के तीन विशेष गुणों के संदर्भ में विस्तार से बताया गया है।
इस अध्याय के प्रारम्भ के दो श्लोकों में इसी ज्ञान की महिमा बताई गयी है कि संसार में प्रकृति-पुरुष के भेद बताने वाला ज्ञान किसी भी प्रकार के ज्ञान से उत्तम है। इस ज्ञान से मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं। सभी योनियों से जितने शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं उनकी योनि तो प्रकृति है और ईश्वर बीज की स्थापना करने वाला पिता है अर्थात् परमात्मा ही पिता है और प्रकृति माता, जिनके संसर्ग से सृष्टि का विकास होता है। समस्त प्राणियों और जड़जंगम की उत्पत्ति होती है। यही ज्ञान सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है। इसी प्रकृति के गर्भ से तीन गुण उत्पन्न होते हैं - सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।गी.14.5।।
अर्थात् हे महाबाहो! प्रकृति के गर्भ से तीन गुण उत्पन्न होते हैं - सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण। ये तीनों गुण अक्षय हैं और जीवात्मा को शरीर में बाँधकर परवश कर देते हैं।
सत्त्वगुण निर्मल होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख और ज्ञान के आकर्षण के सम्बन्ध से जीव को बाँधता है। सृष्टि में जो दीप्ति, प्रकाश, ज्ञान एवं सात्त्विकता का अंश है, उसका कारण सत्त्वगुण ही है।
रजोगुण रागात्मक है। यह विषयों के प्रति तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न होता है और जीवात्मा को उसके कर्मों के फल की आसक्ति के द्वारा बाँधता है। जो गति, प्रकृति अथवा क्रियाशीलता है, उसका कारण रजोगुण है।
तमोगुण भटकाने वाला है। यह जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बाँधता है। अर्थात् जो आलस्य, प्रमाद, जड़ता, अज्ञान, अंधकार है, उसका कारण तमोगुण ही है। और इस प्रकार प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। इस विषय पर गीताकार विस्तृत व्याख्या करते हैं।
रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण तथा सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण की अभिवृद्धि होती है। सत्त्वगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है। मन शुद्ध होता है। रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, स्वार्थ और बुद्धि से कर्मों को सकाम भाव से आरम्भ करने की प्रवृत्ति जगती है। तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अज्ञान का अंधकार, कर्तव्य कर्मों में अप्रवृत्ति और निद्रादि वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार कहा जाये, तो सत्त्वगुण से ज्ञान, रजोगुण से लोभ और तमोगुण से प्रमाद एवं मोह उत्पन्न होते हैं।
ऐसे गुणों वाले मानव की मृत्यु होने पर क्या-क्या संभव है, इस पर गीताकार विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि सत्त्वगुण के वृद्धिकाल में शरीर छोड़ने वाले को स्वर्गादि लोक प्राप्त होते हैं, रजोगुण के वृद्धिकाल में शरीर छोड़ने वाले मर्त्यलोक में रहते हैं, वे कर्मासक्त घरों में पैदा होते हैं। तमोगुण के वृद्धिकाल में शरीर छोड़ने वाले नरकादि में जाते हैं और कीट, पशु आदि योनियों में उनके जन्म होते हैं।
इन गुणों के कारण ही व्यक्ति के आचरण में अच्छाई या बुराई, तृष्णा या त्याग, प्रवृत्ति या निवृत्ति, चेतना या आलस्य के रूप में विशेषतायें आती हैं। ये गुण स्वभाव बनाते हैं। मनुष्य उसी प्रकार के स्वभाव से बँधा रहता है। सत्त्वगुण का लौकिक परिणाम और स्वरूप श्रेष्ठ माना जाता है, किन्तु वह भी ‘मैं अच्छा हूँ’, ‘मैं महान हूँ’, ‘मैं गुणी हूँ’, ‘मैं त्यागी हूँ’, आदि सात्त्विक अभिमान से बाँधता है। गुण शब्द ही बंधनकारक है। अतः गुणातीत की बात बताई गयी है। पातंजल योगसूत्र के अनुसार भी गुणातीत को ही कैवल्य का अधिकारी बताया गया है। यहाँ भगवान् भी यही कहते हैं।
गुणानेतानतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।गी.14.20।।
अर्थात् यह सम्पूर्ण शरीर, मन-बुद्धि आदि और इन्द्रियों के उपभोग विषय और वस्तुयें, प्रकृति से उत्पन्न होने वाले तीनो गुणों आदि के ही कार्य हैं और जो ऐसा समझकर गुणातीत जीवन बिताता है, वह जन्म-मृत्यु आदि दोषों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है।
कहने का अर्थ यह है कि जो इन गुणों से उत्पन्न होने वाले प्रभावों में विचलित नहीं होता है, ‘‘मैं आत्मा हूँ’’ ऐसा निरन्तर भाव रखता है, मान-सम्मान, निन्दा-स्तुति में समान भाव वाला रहता है, परमात्मा पर दृढ़ निश्चयपूर्वक आश्रित रहता है, वह पुरुष गुणातीत कहलाता है। ऐसा पुरुष जब भगवान् में पूर्ण समर्पण भाव से लिप्त होता है, तो वह जन्म-मृत्यु आदि दुःख-दोषों से मुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त होता है।
*** विश्वजीत ‘सपन’
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