अथाष्टादशोऽध्यायः
(मोक्षसंन्यास योग)
(भाग-4)
अठारहवें अध्याय का यह अंतिम भाग है और इसके बाद गीता ज्ञान समाप्त हो जायेगा। इस भाग में शेष बचे श्लोंकों की व्याख्या की जायेगी। भक्तियोग की बात बताकर भगवान् ने अर्जुन के माध्यम से संदेश दिया है कि मानव को ईश्वर की शरण में चला जाना चाहिए। यह श्लोक ही गीता के उपदेश का सार है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।गी.18.66।।
अर्थात् सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़ कर, केवल मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिंता मत कर।
स्वयं भगवान् के शरणागत हो जाना - यह सम्पूर्ण साधनों का सार है। इसमें शरणगत भक्त को कुछ भी करना शेष नहीं रहता है। भगवान् के साथ कर्मयोगी का ‘नित्य’ संबंध होता है, ज्ञानयोगी का ‘तात्त्विक’ संबंध होता है और शरणागत भक्त का ‘आत्मीय’ संबंध होता है। नित्य संबंध में संसार के अनित्य संबंध का त्याग है, तात्त्विक संबंध में तत्त्व के साथ एकता (तत्त्वबोध) है और आत्मीय संबंध में भगवान् के साथ अभिन्नता (प्रेम) है। नित्य संबंध में शान्त रस है, तात्त्विक संबंध में अखण्ड रस है और आत्मीय संबंध में अनन्त रस है। इस अनन्त रस के बिना शरणगति की प्राप्ति नहीं होती। यह शरणागति ही गीता का सार है। केवल पापों से मुक्ति ही शरणागति का फल नहीं है। यह ईश्वर की प्राप्ति है। कहा भी गया है कि कुछ चाहने से कुछ ही मिलता है, किन्तु कुछ न चाहने से सब-कुछ (अनन्त) मिलता है। शरणागत भक्त के वश भी स्वयं ईश्वर भी हो जाते हैं। इसी शरणागति में गीता के उपदेश की पूर्णता होती है। यहाँ भक्तियोग की सगुणता का प्रतिपादन बड़ी सुन्दरता से हुआ है। यही सर्वाधिक सरल मार्ग है ईश्वर-प्राप्ति का। इसी पूर्ण शरणागति को प्रपत्तिवाद भी कहते हैं।
इसके बाद गीताकार भगवान् के श्रीमुख से गीतोपदेश की अपात्रता के बारे में कहते हैं कि गीता का यह गूढ़ रहस्य अतपस्वी को नहीं कहना चाहिए, भक्तिहीन को नहीं कहना चाहिए तथा जो नहीं सुनना चाहता है, उसे भी नहीं कहना चाहिए। साथ ही जो ईश्वर में दोष-दृष्टि रखते हैं उन्हें भी नहीं कहना चाहिए। जो भगवान् से प्रेम करके, परम रहस्य को उनके भक्तों से कहेगा, वह ईश्वर को प्राप्त होगा। अर्थात् वह ईश्वर को प्राप्त करेगा। ऐसा करने वाला ही उनका सबसे परम प्रिय होगा। भगवान् को भक्त प्रिय होते ही हैं और जो गीताशास्त्र का प्रचार-प्रसार करेगा, वह भक्त तो अति प्रिय होगा ही। सभी इसका अध्ययन नहीं कर सकते, तब उन्हें बताने वाला भी होना चाहिए। तो न केवल इसका अध्ययन करने वाला, बल्कि इसे दूसरों के कल्याण के लिये बताने वाला भी ईश्वर-भक्ति करता है। साथ ही जो इसका श्रवण करता है, वह ईश्वर-भक्ति करता है।
जो इस धर्ममय गीताशास्त्र का अध्ययन करेगा, उसके इस ज्ञानयज्ञ द्वारा ईश्वर की ही पूजा होगी। तात्पर्य इसका अध्ययन ईश्वर की पूजा से कम नहीं है। दोष-दृष्टि से रहित जो श्रद्धालु इस गीताशास्त्र का श्रवण करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर शुभ लोकों को प्राप्त करेगा। इस प्रकार गीता-ज्ञान और उसका माहात्म्य बताकर श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं कि हे पार्थ! क्या तुमने इस गीता-ज्ञान को ध्यान से सुना? क्या तुम्हारा अज्ञान जनित मोह भंग हुआ? अर्थात् अर्जुन का युद्ध न करने का जो निर्णय था, जो उसका भ्रम था, क्या वह दूर हुआ।
तब अर्जुन ने कहा कि हे अच्युत! आपकी की कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने कर्तव्य विषयक अपनी स्मृति प्राप्त कर ली है। मेरा सन्देह मिट गया है, मैं स्थिर हो गया हूँ और आपके आदेश वचनों का पालन करूँगा। तात्पर्य यह कि अर्जुन ने अपने स्व-स्वभाव कर्म अर्थात् क्षात्र-धर्म के पालन का निर्णय ले लिया, क्योंकि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा उसका अज्ञान अब दूर हो चुका था। उसे भगवान् से मिले आदेश का पालन करना था। वह जान चुका था कि कर्ता वह नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर हैं।
ये बातें बताने के बाद संजय ने धृतराष्ट्र से कहा कि तो इस प्रकार मैंने वासुदेव श्रीकृष्ण एवं महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रोमांचक संवाद को सुना। श्रीव्यास जी की कृपा से दिव्यदृष्टि (अर्जुन को श्रीकृष्ण की कृपा से एवं संजय को श्रीव्यास जी की कृपा से दिव्यदृष्टि मिली थी, अतः संजय व्यास जी को कृतज्ञता प्रकट करते हैं) पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है। हे राजन! इस पवित्र और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं पुनः-पुनः अत्यन्त हर्षित हो रहा हूँ। श्रीकृष्ण के विलक्षण रूप को स्मरण करके मुझे पुनः-पुनः महान् आश्चर्य हो रहा है।
गीता के आरम्भ में धृतराष्ट्र का प्रश्न था कि युद्ध का परिणाम क्या होगा? तो उसके उत्तर में संजय गीता के अंतिम श्लोक में कहते हैं कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीवधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है।
इति
विश्वजीत ‘सपन’
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