Wednesday, October 17, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 54


महाभारत की कथा की 79वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

अरुणा नदी का माहात्म्य
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प्राचीन काल की बात है। उस समय दानवों का राजा नमुचि था। उसने बड़ा उत्पात मचाया, तो इन्द्र ने उसे मारने का प्रण लिया। इस बात से नमुचि भयभीत हो गया और भय के कारण सूर्य की किरणों में जाकर छुप गया। अब इन्द्र के लिये उसे मारना असंभव हो गया। तब बड़ा विचारकर इन्द्र ने नमुचि से मित्रता कर ली।


इन्द्र ने कहा - ‘‘अब तो तुम मेरे मित्र हो गये हो। अब बाहर निकल आओ।’’


नमुचि को इन्द्र पर विश्वास न था, उसने कहा - ‘‘नहीं, जब तक आप प्रतिज्ञा नहीं करते कि आप मुझे मारेंगे नहीं, तब तक मैं बाहर नहीं आता।


इन्द्र ने कहा - ‘‘जब मैंने वचन दे दिया, फिर क्या डरना?’’


नमुचि ने कहा - ‘‘तुम्हारी बात सही, किन्तु मुझे तुम्हारी प्रतिज्ञा चाहिये, अन्यथा मैं बाहर नहीं आता।’’


इस प्रकार नाना प्रकार से समझाने के उपरान्त भी नमुचि न माना, तब इन्द्र ने नमुचि से कहा - ‘‘असुरश्रेष्ठ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं तुम्हें न गीले अस्त्र से मारूँगा, न सूखे अस्त्र से, न मैं दिन में मारूँगा और न ही रात में। यह मैं सत्य की सौगंध खाकर कहता हूँ, अतः अब तो बाहर आ जाओ।’’


इस प्रकार अपनी बातों से इन्द्र ने नमुचि को सूर्य की किरणों से बाहर निकलवा लिया। नमुचि प्रसन्न था कि अब उसे इन्द्र का कोई भय न था, किन्तु उसे पता नहीं था कि इन्द्र ने ऐसा जान-बूझकर कहा था। वे समय की प्रतीक्षा में थे। फिर एक दिन अवसर पाकर जब धरती पर कुहासा (न रात न दिन) छाया हुआ था, पानी के फेन (न गीला न सूखा) से उन्होंने नमुचि का सिर काटकर उसका वध कर दिया।


नमुचि के लिये बड़ा कष्टकारक विषय था। मित्र होते हुए भी इन्द्र ने छल से उसका सिर काट दिया था। तब उसका कटा हुआ सिर इन्द्र के पीछे लग गया। वह कहने लगा - ‘‘तुमने मुझसे मित्रता की और उसके उपरान्त छल से मेरा सिर काट लिया। तुम पापी हो। तुमने अपने मित्र के वध करने का अपराध किया है। जब तक मुझे न्याय नहीं मिल जाता मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ूँगा। तुम अपराधी हो।’’


इन्द्र जहाँ-जहाँ जाते, नमुचि का सिर उनके पीछे ही रहता और वही बातें दुहराता रहता था। इस प्रकार अनेक बार नमुचि के सिर के ऐसा कहने से इन्द्र भी घबरा उठे। वे भागे-भागे ब्रह्मा जी के पास गये और बोले - ‘‘भगवन्! यह नमुचि का सिर मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा। प्रतीत होता है कि मित्र का वध करने के कारण ब्रह्महत्या का दोष लग गया है। अब आप ही कुछ उपाय सुझायें। मैं अत्यधिक कष्ट का अनुभव कर रहा हूँ।’’


तब इन्द्र की समस्या पर विचार कर ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘इन्द्र! तुम घबराओ नहीं। अरुणा नदी के तट पर जाओ। पूर्वकाल में सरस्वती नदी ने गुप्त रूप से अरुणा नदी को अपने जल से पूर्ण किया था, अतः वह सरस्वती एवं अरुणा नदी के संगम का स्थल पवित्र बन गया है।’’
‘‘यह कैसे हुआ भगवन्।’’ इन्द्र ने पूछा।


ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘एक बार की बात है। राक्षसों ने अपने उद्धार के लिये महर्षियों से विनती की। महर्षियों ने राक्षसों के कल्याण के संदर्भ में विचार किया और तब उनकी मुक्ति के लिये उन्होंने महानदी सरस्वती का स्तवन किया। इस अनुरोध को स्वीकार कर समस्त सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती अपनी स्वरूपभूता अरुणा को लेकर आई। राक्षसों ने उसमें स्नान कर ब्रह्महत्या के दोषों से मुक्ति पायी थी। तब से यह संगम पवित्र बन गया है और ब्रह्महत्या के दोष का निवारण करने वाला भी है। उस संगम में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। तुम उस स्थल पर जाओ। वहाँ यज्ञ और दान करो। उसके बाद उस पवित्र संगम में स्नान करो। तुम्हारा संकट दूर हो जायेगा।’’


ब्रह्मा जी के ऐसा कहने पर इन्द्र तत्काल ही सरस्वती नदी के उस पवित्र संगम-स्थल पर गये। उन्होंने वहाँ जाकर एक बड़ा-सा यज्ञ किया और अनेक प्रकार की वस्तुओं का दान किया। उसके पश्चात् उन्होंने उस पवित्र संगम में स्नान किया। स्नान करते ही उनका ब्रह्महत्या का पाप धुल गया। वे भयरहित हो गये, किन्तु नमुचि का सिर अभी भी उनके पीछे था। यह कैसे संभव था? इन्द्र विचार करने लगे। तभी उन्हें ध्यान आया कि नमुचि को मुक्ति नहीं मिली है।


ऐसा विचारका इन्द्र ने नमुचि के सिर से कहा - ‘‘मित्र, मैं ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो चुका हूँ। अब तुम भी इस पवित्र संगम में स्नान करके मुक्त हो जाओ।’’


नमुचि ने वैसा ही किया। उसने भी पवित्र संगम में गोता लगाया। तत्क्षण ही उसके सारे पाप धुल गये और वह अक्षय लोक का अधिकारी बना। 


विश्वजीत 'सपन'

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