Thursday, February 28, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 71)



महाभारत की कथा की 96 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

शोकाकुल चित्त की शान्ति

==================

   
    प्राचीन काल की बात है। सेनजित् नामक एक राजा था। उसका जीवन बड़ा सुखमय था। दैवयोग से एक दिन उसे पुत्र वियोग हो गया। उसका पुत्र कहीं चला गया। प्रयास करने पर भी न मिला। तब वह शोकातुर हो गया। इस प्रकार उसे देखकर एक ब्राह्मण ने उससे कहा - ‘‘राजन्! आप एक मूढ़ मनुष्य की भाँति मोहित हो रहे हैं। यह किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति के लक्षण नहीं हैं। आपको शोक नहीं करना चाहिये।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘आपकी बात उचित जान पड़ी है ब्राह्मण देवता, किन्तु मनुष्य इस शोक से कैसे छुटकारा पा सकता है? आप ही कुछ उपाय बतायें।’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘सुनिये राजन्, मैं इस शरीर अथवा पृथ्वी को अपनी नहीं मानता। यह जैसी दूसरों की है, वैसे ही मेरी भी है। इस प्रकार सोचने से मुझे व्यथा नहीं होती।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘किन्तु, मेरा पुत्र मुझसे बिछड़ गया है। वह मेरा अपना है। इस दुःख से कैसे छुटकारा मिल सकता है?’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘जिस प्रकार समुद्र में दो लकड़ियाँ मिलती हैं और पुनः अलग-अलग हो जाती हैं, ठीक उसी प्रकार मानव के जीवन में अनेक लोग आते हैं और अलग हो जाते हैं। यह क्रम चलता रहता है। आपका पुत्र किसी अज्ञात स्थान से आया था और किसी अज्ञात स्थान को चला गया। यही नियम है। संसार में विषयतृष्णा से जो व्याकुलता होती है, उसी का नाम दुःख है। इस दुःख का नाश ही सुख है।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘ऐसी स्थिति क्यों होती है देव? क्या यह सभी के साथ होती है अथवा किसी विशेष कारण से होती है?’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘मनुष्य अनेक प्रकार के बंधनों में फँसे होते हैं। जल में बालू का पुल बनाने वालों की भाँति अपने कार्यों में असफल होने दुःख पाते हैं। जिस प्रकार एक बूढ़ा हाथी दलदल में फँसकर अपने प्राण खो बैठता है, ठीक उसी प्रकार मानव पुत्र, स्त्री, कुटुम्ब आदि की आसक्ति में फँसकर शोक के समुद्र में डूबे रहते हैं। जब पुत्र, धन अथवा बन्धु-बान्धवों का नाश होता है, तो वे दुःख के सागर में गोते लगाने लगते हैं। उसे जान लेना चाहिये कि सुख-दुःख एवं जीवन-मृत्यु सब दैव के अधीन होता है।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘इसे कैसे समझें और इसे समझने वाली आप जैसी बुद्धि हमें किस प्रकार आ सकती है? कृपया विस्तार से बतायें।’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘राजन्! आपने उचित कहा। संसार की गति को कोई बुद्धिमान ही समझ सकता है। बुद्धियोग का सुख जिन्हें प्राप्त है, उन्हें हर्ष अथवा शोक छू भी नहीं सकता। शोक के सहस्रों स्थल हैं, भय के सैंकड़ों अवसर हैं, किन्तु बुद्धिमानों पर इनका प्रभाव नहीं पड़ता। जो बुद्धिमान, विचारशील, शास्त्राभ्यासी, ईर्ष्याहीन, संयमी एवं जितेन्द्रिय होता है, उसे शोक स्पर्श भी नहीं कर सकता।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘इस प्रकार शोकहीन बनने के लिये हमें क्या करना चाहिये ब्राह्मण देवता?’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘राजन्! एक बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह सुख या दुःख, प्रिय अथवा अप्रिय जो-जो भी प्राप्त हो उनका सामना उत्साह से करे, कभी भी हिम्मत न हारे। उसे अपने निश्चय पर डटा रहना चाहिये एवं संयत चित्त से व्यवहार करना चाहिये। जब सत्य एवं असत्य, शोक एवं आनन्द, भय एवं अभय तथा प्रिय एवं अप्रिय इन सभी का कोई त्याग कर देता है, तब वह परम शान्तचित्त हो जाता है।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘आपने उचित कहा ब्राह्मण देवता, किन्तु ऐसा दुःख हमें होता ही क्यों है? इसका अंत कब होता है?’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘सुनिये राजन्, मनुष्य बु़िद्धमान हो अथवा मूर्ख, शूरवीर हो अथवा कायर, उसे अपने पूर्वजन्म के कर्मों के कारण शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के फल भोगने ही होते हैं। इस प्रकार जीवों को प्रिय एवं अप्रिय तथा सुख एवं दुःख बारी-बारी से प्राप्त होते ही रहते हैं। जब दुःख का नाश होता है, तब सुख का उदय होता है। इस सुख-दुःख का चक्र हमेशा ही घूमता रहता है। आज आपको दुःख है, तो कल आपको सुख मिलेगा। यह निश्चित है। सबसे बड़ी बात है कि जो प्राणों के साथ जाने वाला रोग है, उस तृष्णा का जो त्याग देता है, वह सुखी हो जाता है। इस सम्बन्ध में पिंगला की गाथा प्रसिद्ध है। उसे सुनिये आपका दुःख दूर हो जायेगा।


पिंगला नाम की एक वेश्या थी। वह एक बार अपने प्रेमी की प्रतीक्षा में बड़ी देर तक बैठी रही। उसका प्रेमी नहीं आया। तब उसने विचार किया कि इतने दिनों तक मैं अपने प्रेम को पहचान न सकी। मेरा प्रेमी मेरे पास था, किन्तु मुझे ज्ञात न हो सका। तो यह कामना ही व्यर्थ है। आज से मैं समस्त कामनाओं को तिलांजलि देती हूँ। भोगों का रूप धारण करके ये नरकरूपी धूर्त मनुष्य अब मुझे धोखा नहीं दे सकते। मुझे अब कोई आशा नहीं रह गयी। अब मैं सुख की नींद सो सकती हूँ। इस प्रकार विचारकर पिंगला ने अपना जीवन सुखमय कर लिया था। ठीक उसी प्रकार आपको भी समस्त आशाओं का त्याग कर अपने जीवन को सुखमय बनाना होगा।’’


ब्राह्मण की बातें सुनकर सेनजित् का दुःख सदा के लिये चला गया। कहते हैं कि मानव-जीवन में शोक होना अवश्यम्भावी होता है, किन्तु उससे संतप्त होने वाला कभी सुखी नहीं रहता। अतः दुःख का त्याग करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये।


विश्वजीत 'सपन'

No comments:

Post a Comment