Saturday, May 4, 2019

महाभारत की लोककथा भाग-78




महाभारत की कथा की 103 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

जीव की नित्यता

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प्राचीन काल की बात है। एक बार भरद्वाज मुनि महर्षि के भृगु के पास गये। वे जीवन के सत्य को जानना चाहते थे। संसार एवं शरीर के मूलतत्त्वों को जानने के बाद उन्होंने महर्षि से इस प्रकार पूछा - ‘‘भगवन्, मृत्यु के समय गो दान किया जाता है, यह सोचकर कि गौ परलोक में उसका कल्याण करेगी। गौ दान करके वह मर जाता है। गौ दान करने वाला, उसे लेने वाला एवं स्वयं गौ भी इसी धरती पर नष्ट हो जाते हैं। परलोक में ये कल्याण का कारण कैसे बनते हैं? जो भी मरता है, वह जलकर भस्म हो जाता है अथवा उसे पक्षी आदि खा जाते हैं। ऐसी अवस्था में उसका पुनः जीवित होना संभव नहीं है, क्योंकि वह सदा के लिये चला जाता है। इसका रहस्य क्या है?’’


भृगु जी ने कहा - ‘‘मुनिवर, यह मात्र आपका प्रश्न नहीं है। इस संसार में मोह में बँधे समस्त प्राणियों का यही सोचना है, किन्तु सत्य यही है कि जीव अथवा उसके किये गये दान या कर्म का कभी नाश नहीं होता है। जीवन की मृत्यु का अर्थ मात्र उसके शरीर का नाश होता है। वह तत्क्षण ही किसी दूसरे शरीर में प्रविष्ट कर जाता है, जिस योनि में उसे जाना होता है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘आपकी बात उचित है मुनिवर, किन्तु यदि देहधारियों के शरीरों में मात्र अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश एवं जल तत्त्व ही विद्यमान है, तो उनमें रहने वाले उस जीव का क्या स्वरूप है?’’


भृगु ने कहा - ‘‘इसे ही अन्तरात्मा कहते हैं। यही देह का संचालन करता है। यह नित्य है, अजर-अमर है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘मुनिवर, शरीर को चीर-फाड़ कर देखने पर जीव दिखाई नहीं देता, किन्तु जीवित होने पर उसे दुःख आदि का अनुभव होता है। यह किस प्रकार संभव है?’’


भृगु ने कहा - ‘‘पंचभूतों के गुणों अर्थात् रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द तथा दूसरे सभी गुणों का अनुभव यही आत्मा करता है। वह पाँचों इन्द्रियों के गुणों को धारण करने वाला मन का द्रष्टा है तथा वही पांचभौतिक देह के प्रत्येक अवयव में व्याप्त होकर सुख-दुःख का अनुभव करता है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘मुनिवर, जीव कभी किसी की बात सुनता है और कभी नहीं। नेत्र से सब-कुछ देखता है, किन्तु व्याकुल होने पर नहीं देखता। इसी कारण मन के अतिरिक्त जीव की सत्ता मानना व्यर्थ है। नींद में पड़ा प्राणी सभी इन्द्रियों के होते हुए भी न देखता है, न सुनता है, न सूँघता है, न ही बोलता है। उसे स्पर्श एवं रस का भी अनुभव नहीं होता। अतः जिज्ञासा होती है कि इस शरीर में कौन हर्ष एवं विषाद करता है? किसे शोक एवं उद्वेग होता है? इच्छा, ध्यान, द्वेष एवं बातचीत करने वाला कौन है? कृपया इन तथ्यों को विस्तार से बतायें, ताकि भ्रम दूर हो।’’


भृगु ने कहा - ‘‘बड़ा उचित प्रश्न है मुनिवर। कभी-कभी ऐसा भी होता है, जब किसी प्राणी को किसी भी इन्द्रिय के विषयों का भान नहीं होता है। जब आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तो इस देह को सुख-दुःख का भान नहीं होता। इसी के कारण मन के अतिरिक्त उसके साक्षी आत्मा की सत्ता स्वतः प्रमाणित हो जाती है। जब शरीर में स्थित अग्निस्वरूप आत्मा इससे पृथक हो जाता है, तो उस समय शरीर को रूप, स्पर्श तथा अग्नि की गर्मी का अनुभव नहीं होता तथा उस शरीर की मृत्यु हो जाती है। इसे इस प्रकार जानिये कि आत्मा जब प्रकृति के गुणों से युक्त होता है, तब वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है तथा जब वह उन्हीं गुणों से मुक्त हो जाता है, तब परमात्मा कहलाता है। यह आत्मा कमल के पत्ते पर पड़े जल-बिन्दु की भाँति शरीर में रहकर भी पृथक रहता है। वही चेष्टा करता है तथा कराता भी है। देह के नष्ट हो जाने पर भी उसका नाश नहीं होता। असल में शरीर का नाश ही मृत्यु है, जीव का नहीं। वह तो तत्काल ही किसी दूसरे शरीर में चला जाता है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘मुनिवर, ये ज्ञान की बातें, जीवन को सुखमय बनाने हेतु ही हैं। इसे कौन अनुभव करता है? इस मोह से किस प्रकार छुटकारा संभव है?’’


भृगु ने कहा - ‘‘मुने, जीवन आनन्द का नाम है। ईश्वर ने इसे आनन्द के लिये ही बनाया है, किन्तु मोह में फँसे लोग इसे जान नहीं पाते हैं, समझ नहीं पाते हैं तथा इसी कारण देह के नष्ट हो जाने पर जीव की मृत्यु बतलाते हैं। यह मिथ्या है, भ्रम है। इसे इस प्रकार जानिये कि यह आत्मा प्राणियों के भीतर छिपा हुआ है। जो कोई भी अविद्या से आच्छादित होते हैं, उनके लिये यह प्रकाश में नहीं आता। मात्र तत्त्वदर्शी महात्मा ही अपनी तीव्र एवं सूक्ष्म बु़िद्ध से उसका साक्षात्कार करते हैं। जो भी विद्वान् परिमित आहार करके, रात के पहले तथा पिछले पहर में सदा ध्यानयोग का अभ्यास करता है, वह चित्त शुद्ध होने पर अपने अन्तःकरण में ही उस आत्मा को देख लेता है तथा उसे पहचान लेता है। अन्तःकरण के शुद्ध हो जाने के कारण वह शुभाशुभ कर्मों के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। ऐसा महात्मा जो प्रसन्नचित्त होता है, अपने आत्म-स्वरूप में स्थित होकर अनन्त आनन्द का अनुभव करता है।’’


इस प्रकार भृगु ऋषि ने जीव की नश्वरता एवं शरीर से उसकी पृथक सत्ता का समुचित वर्णन किया। इनको एक मानना अज्ञानता के कारण होता है। यही जीवन-दर्शन है। यही सत्य है।


विश्वजीत 'सपन'

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