Saturday, April 27, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 77)


महाभारत की कथा की 102 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

जीव एवं जगत् के मूलतत्त्व

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प्राचीन काल की बात है। परम तेजस्वी महर्षि भृगु कैलाश शिखर पर बैठा करते थे। भरद्वाज मुनि को जीव एवं जगत् के बारे में जानने की इच्छा हुई। एक बार वे महर्षि भृगु के पास गये तथा उनसे पूछा - ‘‘मुनिवर, इस स्थावर-जंगम जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई है और प्रलय आने पर यह कहाँ चला जाता है?’’


भृगु मुनि ने कहा - ‘‘मुने, सुनने में आता है कि प्रारम्भ में एक मानस देव था। वह आदि-अन्त से रहित, अभेद्य एवं अजर-अमर था। वह ‘अव्यक्त’ नाम से प्रसिद्ध था। सब जीवों की उत्पत्ति उसी से होती है तथा मरने के बाद वे उसी में लीन हो जाते हैं।’’


भरद्वाज ने जिज्ञासा की - ‘‘पर्वत, पृथ्वी, समुद्र, आकाश, वायु, अग्नि मेघ सहित इस लोक की किसने रचना की?’’


भृगु ने समझाते हुए कहा - ‘‘यह भी सुना जाता है कि उस स्वयम्भू मानस देव ने सर्वप्रथम एक तेजोमय दिव्य कमल की रचना की। उसी से वेदस्वरूप ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। वह समस्त भूतों का आत्मा तथा उनकी रचना करने वाला है। पंच महाभूत भी उस ब्रह्मा की ही सृष्टि है। पर्वत उसकी अस्थियाँ हैं, पृथ्वी उसका मेद एवं मांस है, समुद्र रुधिर है, आकाश उदर है, वायु श्वास है, अग्नि तेज है, नदियाँ नाड़ियाँ हैं, चन्द्रमा तथा सूर्य उसके नेत्र हैं। इस अचिन्त्य पुरुष को जानना सिद्ध पुरुषों के लिये भी कठिन है। यही भगवान् विष्णु है एवं अनन्त नाम से प्रसिद्ध है। यह समस्त भूतों का आत्मा तथा अन्तर्यामी है। इसे मात्र शुद्ध चित्त वाले ही जान सकते हैं।’’


भरद्वाज ने पूछा - ‘‘भगवन्, इस आकाश, दिशा, पृथ्वी एवं वायु का परिमाण कितना है? मेरा संदेह दूर कीजिये।’’


भृगु ने कहा - ‘‘यह आकाश तो अनन्त है। यह आकाश ही नहीं वरन् अग्नि, वायु, जल आदि का भी परिमाण जानना कठिन है। ऋषियों ने विविध शास्त्रों में त्रिलोकी एवं समुद्र आदि के बारे में कुछ कहा है, किन्तु जो दृष्टि से परे है तथा जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं है, उस परमात्मा का परिमाण कोई कैसे बता सकता है? अतः इन्हें अपरिमित ही जानना चाहिये।’’


भरद्वाज ने जिज्ञासा की - ‘‘मुनिश्रेष्ठ, लोक में पाँच धातु ही महाभूत कहलाये, जिन्हें ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में रचा था। इन्हें ही भूत कहना कहाँ तक उचित है, जबकि ब्रह्मा जी ने इसके साथ ही सहस्रों भूतों की सृष्टि की थी?’’


भृगु ने कहा - ‘‘ये पाँचों असीम हैं, अतः इन्हें महाभूत की संज्ञा दी जाती है। मानव शरीर भी इन पाँचों का ही संघात है। जो गति है, वह पवन का अंश है, जो खोखलापन है वह आकाश का अंश है, ऊष्मा अग्नि का अंश है, रक्तादि तरल जल के अंश हैं तथा हड्डी, मांस आदि पृथ्वी के अंश हैं। इस प्रकार समस्त स्थावर-जंगम संसार इन पाँचों महाभूतों से ही बना है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘किन्तु मुनिवर, स्थावर शरीरों में ये पाँचों तत्त्व दृष्टिगत नहीं होते। वृक्ष न सुनते हैं न देखते हैं, न उन्हें रस का आनन्द आता है तथा न ही वे गन्ध ले सकते हैं। फिर इन्हें पंचभौतिक कैसे कहा जा सकता है?’’


भृगु ने कहा - ‘‘ऐसा नहीं है मुने, वृक्ष ठोस अवश्य जान पड़ते हैं, किन्तु उनमें भी ये पंचतत्त्व होते हैं। इसी कारण वे नित्यप्रति बढ़ते हैं, फल-फूल आदि की उत्पत्ति करते हैं। उनके अंदर जो ऊष्मा होती है, उसी के कारण पत्ते, छाल, फल आदि मुरझा जाते हैं। बिजली कड़कने पर वृक्ष में कम्पन होता है। वृक्ष को स्पर्श होना, सुनना आदि सभी गुणों से सम्पन्न पाया जाता है। वे अपनी जड़ों से जल पीते हैं तथा इसी कारण ‘पादप’ कहलाते हैं। उनमें दुःख-सुख का ज्ञान भी देखा गया है एवं इसी कारण वे अचेतन नहीं, बल्कि जीवयुक्त हैं।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘इन पंचभूतों के बारे में थोड़ा विस्तार से बतायें मुनिवर। इनका हमारे शरीरादि से क्या सम्बन्ध हैं? ये देहधारियों में किस प्रकार समाहित होते हैं?’’


भृगु ने कहा - ‘‘हमारे शरीर में पाँच भूत पूर्णतः समाये रहते हैं। शरीर में अस्थि, त्वचा, मांस, मज्जा एवं स्नायु, ये पाँच पृथ्वीमय हैं। तेज, क्रोध, चक्षु, ऊष्मा एवं जठरानल, ये पाँच अग्निमय हैं। श्रोत्र, घ्राण, मुख, हृदय एवं उदर, ये पाँच आकाशीय अंश हैं। कफ, पित्त, स्वेद, चरबी एवं रुधिर, ये पाँच जलीय अंश हैं। प्राण, अपान, उदान, समान एवं व्यान, ये पाँच वायवीय अंश हैं। जीव भूमि के कारण गन्ध का अनुभव करता है, जल के कारण रस का अनुभव करता है, तेजोमय चक्षु के द्वारा रूप को देखता है तथा वायुमय त्वक् के द्वारा स्पर्श का अनुभव करता है। गन्ध नौ प्रकार के हैं तथा रस मुख्यतः छह प्रकार के हैं। वैसे इसके अनेक प्रकार बताये गये हैं। रूप सोलह प्रकार के हैं तथा स्पर्श बारह प्रकार के होते हैं। शब्द के सात प्रकार बताये गये हैं। जल, अग्नि एवं वायु ये तीन देहधारियों में सर्वदा जाग्रत रहते हैं। ये ही प्राणों के मूल हैं तथा प्राणों में ओत-प्रोत होकर शरीर में स्थित होते हैं।’’


इस प्रकार महर्षि भृगु ने भरद्वाज को इस संसार एवं शरीरों के मूलतत्त्व का वर्णन किया। यही जीव है और यही शरीरधारी है। साथ ही यह भी बताया कि प्रलय के समय वे स्वयम्भू मानस में विलीन हो जाते हैं। 


विश्वजीत 'सपन'

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