Sunday, August 18, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग-87)




महाभारत की कथा की 112 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

ध्यान एवं धारणा तथा मोक्ष
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    शुकदेव अपने पिता से जीवन के रहस्यों को समझ रहे थे। उनके सभी प्रश्नों के उत्तर व्यास जी सुन्दरता से बताते जा रहे थे। शुकदेव ने पूछा - ‘‘पिताजी, मोक्ष प्राप्ति के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘इस भवसागर को पार करने के लिये हमें ज्ञानरूपी नौका का आश्रय लेना चाहिये। हमें ध्यानयोग की साधना करनी चाहिये और उनके बारह उपायों के आश्रय लेने चाहिये।’’


    शुकदेव ने पूछा - ‘‘ध्यानयोग के ये बारह उपाय क्या हैं पिताजी? मुझे थोड़ा विस्तार में बतायें।’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘ध्यानयोग की साधना किसी एकान्त, पवित्र एवं समतल स्थान पर करनी चाहिये। इस प्रकार के उपयोगी स्थल को देशयोग कहा जाता है। आहार, विहार, चेष्टा, सोना तथा जागना नियमानुकूल होना चाहिये। इसे कर्मयोग कहा गया है। सदाचारी शिष्य को अपनी सेवा एवं सहायता के लिये रखना अनुरागयोग कहा गया है। आवश्यक सामग्री का संग्रह अर्थयोग कहलाता है। ध्यानोपयोगी आसन में बैठना उपाययोग है। इस संसार के विषयों एवं सगे-सम्बन्धियों से आसक्ति एवं ममता से मुक्त होना अपाययोग कहलाता है। गुरु एवं वेदों के वचनों पर विश्वास रखना निश्चययोग है। इन्द्रियों को वश में रखना चक्षुर्योग है। शुद्ध एवं सात्विक भोजन आहारयोग है। विषयों की ओर स्वाभाविक प्रवृत्तियों को रोकना संहारयोग है। मन के संकल्प, विकल्प को शान्त करने का प्रयास मनोयोग है तथा संसार के दुःखों पर विचार न कर उससे विरक्त होना दर्शनयोग है। इन समस्त उपायों को करते हुए ही ध्यानयोग की साधना करनी चाहिये।’’


    शुकदेव ने कहा - ‘‘जी पिताजी। इनके आश्रय लेकर किस प्रकार मोक्ष की साधना करनी चाहिये?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘जिसे भी मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा हो, उसे बुद्धि के द्वारा मन एवं वाणी को जीतना चाहिये। इससे मृत्युरूपी सागर को पार किया जा सकता है। उसे तभी शीघ्र सफलता मिल सकती है, यदि वह किसी एक विषय अर्थात् ब्रह्म में अपने चित्त को स्थापित कर लेता है। इस स्थापना को धारणा कहा जाता है तथा यह सात प्रकार का होता है।’’


    शुकदेव ने कहा - ‘‘जी पिताजी। इस धारणा के प्रकारों को भी थोड़ा विस्तार से बताने की कृपा करें।’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘पुत्र, शरीर में पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अव्यक्त एवं अहंकार - इन सातों तत्त्वों का चिन्तन किया जाता है। यही सात प्रकार की धारणायें हैं। शरीर में पैर से लेकर घुटने तक का स्थान पृथ्वी का है, घुटने से गुदा तक का स्थान जल का है, गुदा से हृदय तक का स्थान तेज का है, हृदय से दोनों भौहों तक का स्थल वायु का तथा भ्रूमध्य से मूर्धा तक का स्थल आकाश का कहलाता है। इनकी धारणा के बाद नाद का चिन्तन अव्यक्त धारणा है और स्थूल देह की आसक्ति का त्याग अहंकार की धारणा है।


    इसकी अनुभूति को जान लेना भी आवश्यक है। जब पृथ्वी की धारणा का प्रारंभ होता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि कुहरे के समान कोई सूक्ष्म वस्तु आकाश को आच्छादित कर रही है। यह प्रथम स्वरूप है। इसके उपरान्त जब वह कुहरा निवृत्त हो जाता है, तब दूसरे रूप का दर्शन होता है। इसमें देह के भीतर एवं सम्पूर्ण आकाश में जल ही जल दिखाई देता है। तीसरी स्थिति में सर्वत्र आग की ज्वालायें दिखाई देती हैं। इसके विलीन हो जाने पर आकाश में सर्वत्र वायु का अनुभव होता है। इस समय साधक को शरीर का मात्र ऊपरी भाग ही दिखाई देता है। जब वह तेज का संहार कर वायु पर विजय पाता है, तो वायु का सूक्ष्म रूप आकाश में लीन हो जाता है। इस समय एक छिद्ररूपी नीला आकाश ही विद्यमान रहता है। योगी का शरीर सूक्ष्मता को प्राप्त करता है और उसे स्थूल शरीर का कोई भान नहीं रहता।’’


    शुकदेव ने कहा - ‘‘जी पिताजी। इसकी प्रक्रिया क्या है?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘पृथ्वी भाग में भावना द्वारा प्रणवसहित लं बीज एवं वायु देवता की स्थापना करके चतुर्मुख ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिये। पाँच घड़ी तब इस धारणा से पृथ्वी तत्त्व पर विजय मिलती है। इससे साधक में सृष्टि की शक्ति आ जाती है। जल की धारणा में प्रणवसहित वं बीज एवं वायु देवता की स्थापना करके चतुर्भुज विष्णु का ध्यान करना चाहिये। पाँच घड़ी की साधना से सभी प्रकार के रोगों से मुक्ति मिलती है तथा साधक समस्त पृथ्वी को कम्पित करने की क्षमता वाला हो जाता है। अग्नि के स्थान में प्रणवसहित रं बीज एवं वायु देवता की स्थापना से त्रिनेत्रधारी शिव का ध्यान करने से अग्नि से जलने का भय नष्ट हो जाता है। वायु के स्थान में प्रणवसहित वं बीज एवं वायु देवता की स्थापना कर शंकर का ध्यान करने से आकाश में विचरने की शक्ति आ जाती है। तब आकाश तत्त्व के स्थान में प्रणवसहित हं बीज एवं वायु देवता की स्थापना कर शंकर का ध्यान करने से शरीर को अदृश्य करने की क्षमता आ जाती है। इसके बाद अव्यक्त की धारणा में नाद का चिंतन किया जाता है। फिर जब वह अहंकार पर विजय प्राप्त कर लेता है, तो समस्त भूत उसके वश में आ जाते हैं। पंचभूत एवं अहंकार इन छः तत्त्वों का आत्मा है बुद्धि। जब वह साधाक इस बुद्धि को जीत लेता है, तो उसे समस्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति हो जाती है। तब उसे विशुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है। इसी समय योगी को तत्त्व का अथवा यों कहें कि ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है।’’


विश्वजीत 'सपन'

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