Monday, August 26, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 88)

 महाभारत की कथा की 113 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 


 
 

सृष्टि, काल और युग
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महर्षि व्यास अपने पुत्र को समय-समय पर उपदेश देते रहते थे। एक दिन उनके पुत्र शुकदेव ने उनसे पूछा - ‘‘पिताजी, इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्म ही था। यह तेजोमय ब्रह्म ही सबका बीज है। इसी से समस्त जगत् की उत्पत्ति हुई है। उस एक ही भूत से स्थावर एवं जंगम दोनों की उत्पत्ति होती है। ब्रह्मा जी अपने दिन के प्रारंभ में जागकर सृष्टि की रचना करते हैं। सर्वप्रथम माया से महतत्त्व प्रकट होता है, उससे स्थूल सृष्टि का आधारभूत मन उत्पन्न होता है। सृष्टि से प्रेरित होकर मन नाना प्रकार के आकार धारण करता है, उससे शब्द गुण वाले आकाश की उत्पत्ति होती है। जब आकाश में विकार होता है, तो उससे पवित्र वायुतत्त्व का आविर्भाव होता है। वायु के विकृत होने पर ज्योतिमय अग्नितत्त्व प्रकट होता है। इस तेज में विकार होने पर रसमय जलतत्त्व की उत्पत्ति होती है। फिर जल से पृथ्वी का प्रादुर्भाव होता है।


    पंचमहाभूत, दस इन्द्रियाँ एवं मन, इन सोलह तत्त्वों से शरीर का निर्माण हुआ है। इनका आश्रय लेने के कारण ही इसे देह कहते हैं। शरीर के उत्पन्न होने पर उनमें अपने-अपने कर्मों के साथ सूक्ष्म महाभूत प्रवेश करते हैं। समस्त जीव की उत्पत्ति ब्रह्मा ही करते हैं।’’


    शुकदेव ने पूछा - ‘‘यह काल का स्वरूप क्या है पिताजी?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘पंद्रह निमेष की एक काष्ठा, तीस काष्ठा की एक कला, तीस कला तथा तीन काष्ठा का एक मुहूर्त एवं तीस मुहूर्त का एक रात-दिन कहा जाता है। तीस दिन का एक मास एवं बारह मास का एक वर्ष कहा जाता है। एक वर्ष में दो अयन होते हैं - उत्तरायण एवं दक्षिणायन। मनुष्य के एक मास में पितरों का एक दिन-रात होता है। शुक्ल पक्ष उनका दिन और कृष्ण पक्ष उनकी रात्रि होती है। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन-रात होता है अर्थात् उत्तरायण उनका दिन और दक्षिणायन उनकी रात्रि होती है। देवताओं के बारह हजार वर्षों का एक चतुर्युग होता है। एक हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है। साथ ही एक हजार चतुर्युग की उनकी एक रात्रि होती है। ब्रह्मा अपने दिन के प्रारंभ में सृष्टि की रचना करते हैं और जब प्रलय का समय होता है, तो रात्रि में सबको अपने में लीन करके योगनिद्रा में आश्रय लेकर सो जाते हैं।’’


    शुकदेव ने पूछा - ‘‘पिताजी, युगों की महत्ता क्या है? उसमें क्या-क्या विभेद हैं?’’


    व्यास जी ने बताया - ‘‘देवताओं के चार हजार वर्षों का एक सत्ययुग होता है। इसमें चार सौ दिव्य वर्षों की संध्या एवं उतने ही का संध्यांश होता है। इस प्रकार सत्ययुग की आयु अड़तालीस सौ दिव्य वर्षों की होती है। त्रेता युग में यह घटकर छत्तीस सौ वर्षों की, द्वापर में चैबीस सौ वर्षों की तथा कलियुग में बारह सौ वर्षों की रह जाती है। 


    सत्ययुग में धर्म एवं सत्य के चारों चरण उपलब्ध होते हैं एवं इनका पूर्णतः पालन किया जाता है। कोई भी अधर्म में प्रवृत्त नहीं होता। इनमें मनुष्यों की आयु चार सौ वर्षों की होती है। त्रेता में यह आयु घटकर तीन सौ वर्षों की, द्वापर में दो सौ वर्षों की तथा कलियुग में सौ वर्षों की रह जाती है। इसका कारण धीरे-धीरे अधर्म में वृद्धि है। स्वाध्याय एवं वेदाध्ययन कम होता जाता है, कामनाओं की पूर्ति में बाधा आने लगती है। इन युगों में धर्म भी भिन्न-भिन्न होते हैं। सत्ययुग में तप को सबसे बड़ा धर्म माना गया है, त्रेतायुग में ज्ञान को उत्तम बताया गया है, द्वापरयुग में यज्ञ को श्रेष्ठ बताया गया है जबकि कलियुग में एकमात्र दान को ही धर्म बताया गया है।’’


    शुकदेव ने कहा - ‘‘पिताजी, तप का इतना प्रभाव क्यों कहा गया है?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटे, तप का मूल है शम एवं दम। मनुष्य अपनी जिन-जिन कामनाओं की इच्छा करता है, उन्हें वह तप के माध्यम से पूर्ण कर लेता है। परमात्मा की प्राप्ति भी तप से ही होती है। तपशक्ति से सम्पन्न होकर ही ब्रह्मा जी ने वेद-विद्या का ज्ञान प्राप्त किया तथा उन्हें ऋषि-मुनियों तक फैलाया। तप से कुछ भी हासिल किया जा सकता है।’’


    शुकदेव ने पूछा - ‘‘परब्रह्म का साक्षात्कार कैसे होता है? युगों में मनुष्यों की कैसी स्थिति रहती है?’’


    व्यास जी ने कहा - ‘‘पुत्र, ब्रह्म के दो स्वरूप होते हैं - एक शब्दब्रह्म एवं दूसरा परब्रह्म। इन दोनों का ज्ञान आवश्यक है। जिसे शब्दब्रह्म का पूर्ण ज्ञान हो जाता है, वह सरलता से परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है। सत्ययुग में लोग वेदोक्त धर्मों के अनुसार तप, यज्ञादि करते हैं। उसके बाद त्रेतायुग में भी वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान एवं वर्ण-आश्रम परम्परा का पालन हुआ करता है, किन्तु द्वापर युग में आयु की न्यनता के कारण इन बातों की कमी होने लगती है तथा  कलियुग में अधर्म के कारण यज्ञ, वेदादि लुप्त हो जाते हैं। यही सृष्टि का चक्र है।’’


    इस प्रकार महर्षि व्यास ने अपने पुत्र शुकदेव को सृष्टि की उत्पत्ति, काल के स्वरूप के बारे में बताया जो ब्रह्मा के मुख से चलकर ऋषि-मुनियों के पास आया और सम्पूर्ण जगत् में ज्ञान के रूप में व्याप्त हुआ।


विश्वजीत 'सपन'

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