Friday, September 13, 2019
महाभारत की लोककथा (भाग - 90)
महाभारत की कथा की 115 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
कर्म एवं ज्ञान का अन्तर
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शुकदेव जी अपने पिता व्यास जी से वार्ता कर रहे थे तथा जीवन-दर्शन को भी समझ रहे थे। योग की महत्ता जानने के बाद उन्होंने पूछा - ‘‘पिताजी, वेदों में कर्म करने एवं उन्हें त्यागने का भी विधान मिलता है। मनुष्यों को कर्म करने का क्या फल मिलता है तथा ज्ञान के द्वारा कर्म त्याग देने से उसे किस प्रकार का फल मिलता है?’’
व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटा, बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न किया तुमने। मानव-जीवन के लिये यह बहुत उपयोगी है। ज्ञान अविनाशी है, जबकि कर्म विनाशी है। वेदों में इन्हीं दो मार्गों के वर्णन हैं। एक है प्रवृत्तिधर्म का मार्ग तथा दूसरा निवृत्तिधर्म का मार्ग। इसे इस प्रकार समझो कि कर्म अर्थात् अविद्या से मनुष्य बन्धन में पड़ता है, जबकि ज्ञान से वह मुक्त हो जाता है। कर्म करने से पुनः जन्म प्राप्त होता है तथा सोलह तत्त्वों से बने इस शरीर की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत ज्ञान से मनुष्य नित्य, अव्यक्त परमात्मा को प्राप्त होता है। कर्म का फल है दुःख-सुख तथा जन्म-मृत्यु, किन्तु ज्ञान से उस स्थान की प्राप्ति होती है, जहाँ समस्त प्रकार के शोक से मुक्ति मिल जाती है। ऐसा मनुष्य पुनः संसार में लौटकर नहीं आता।’’
‘‘जी पिताजी,’’ शुकदेव ने कहा - ‘‘ज्ञानी की बड़ी महत्ता है। इसकी क्या गति होती है, उसे भी बतायें।’’
व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटे, कर्म में आसक्त एवं ज्ञानी में बड़ा अन्तर होता है। वेद कहता है कि ज्ञानी का कभी क्षय नहीं होता, जबकि कर्मासक्त चन्द्रमा की कला के समान बढ़ता-घटता रहता है। वह इन्द्रियरूप ग्यारह विकारों से युक्त पुनः जन्म धारण करता है। उधर ज्ञानी उस अवस्था में पहुँच जाता है, जहाँ सुख-दुःख आदि द्वन्द्व कोई बाधा नहीं पहुँचाते। उसका ब्रह्म से साक्षात्कार हो जाता है तथा वह क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) बन जाता है।’’
शुकदेव ने कहा - ‘‘पिताजी मैं धन्य हुआ। आपके उपदेश से मैं पवित्र हो गया। इस संसार में संत लोग कैसा व्यवहार करते हैं? मैं भी वही करना चाहता हूँ। कृपया इसे विस्तार से बतायें।’’
व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटा, ब्रह्माजी ने जो विधान बताया है, उसी का पालन सभी मनुष्य को करना चाहिये। सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य का पालन कर आत्मबल प्राप्त करना चाहिये। उसके बाद गार्हस्थ्य धारण करना चाहिये, जो अपनी आयु का दूसरा भाग होना चाहिये। जब अपने सिर के बाल श्वेत दिखाई दे, शरीर में झुर्रियाँ दिखाई पड़े और पुत्र की प्राप्ति हो जाये तब जीवन का तीसरा भाग वानप्रस्थ आश्रम में बिताना चाहिये। तथा संन्यासी व्रत का पालन करना चाहिये। संन्यासी बनकर भिक्षाटन करते हुए आत्म-चिंतन करना चाहिये, जिससे ब्रह्म-तत्त्व की प्राप्ति होती है।’’
शुकदेव ने कहा - ‘‘जी पिताजी, कर्म करना चाहिये एवं कर्म का त्याग भी करना चाहिये, ये दोनों तो परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं।’’
व्यास जी ने कहा - ‘‘ये विरोधी नहीं हैं। आयु की अवस्था के अनुसार कर्म निर्धारित किये गये हैं और उसी के अनुसार सभी मनुष्य के लिये कर्म हैं। असल में ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य एवं वानप्रस्थ आश्रम में मनुष्य कर्म के अधिकारी होते हैं। मात्र संन्यासी ही कर्मों का त्याग करते हैं। सभी आश्रमों के अनुसार जीवन-यापन करने वाला ही परमगति को प्राप्त होता है। ये चारों आश्रम ही सीढ़ी के समान ब्रह्म प्राप्ति के साधन कहे गये हैं। हमें इन चारों आश्रमों के पालन नियमपूर्वक करने चाहिये, क्योंकि ये चारों आश्रम ब्रह्म में ही प्रतिष्ठित हैं। कर्म से किसी का पीछा नहीं छूटता। वह उसे करना ही होता है। समझने वाली बात यह है कि ज्ञान से मुक्ति मिलती है। यह ज्ञान मात्र संन्यासी के लिये ही कहे गये हैं। उस अवस्था में पहुँचकर हमें राग-द्वेष को भुलाकर ज्ञान-प्राप्ति के लिये उपक्रम करना चाहिये। इस प्रकार कर्म एवं ज्ञान में कोई विरोध नहीं है।’’
शुकदेव ने कहा - ‘‘जी पिताजी, तो यह ज्ञान किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है?’’
व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटा, यह उपदेश नहीं है, बल्कि परमात्मा का ज्ञान कराने वाला शास्त्र है। सम्पूर्ण उपनिषदों का रहस्य है यह। केवल अनुमान से या अगम से इसका ज्ञान कठिन है। इसका उचित ज्ञान अनुभव से ही होता है। इतना समझ लो कि धर्म एवं सत्य के जितने उपाख्यान हैं, उन सबका यह सारभूत है। तुम व्रतधारी स्नातक हो, इसी कारण मैंने तुम्हें यह उपदेश दिया, जो वेदों की दस सहस्र ऋचाओं के मंथन के बाद ही मैंने पाया है। यह ज्ञान उन लोगों के लिये कदापि नहीं है, जो अशान्त मन वाले होते हैं। कर्म आवश्यक है, किन्तु यदि परमतत्त्व को अथवा आत्म-ज्ञान को प्राप्त करना है, तो अंत में ज्ञान-मार्ग का अनुसरण ही करना पड़ता है। यही वेदों का सार है और यही जीवन का रहस्य है, जिसे जानना सभी मनुष्यों के लिये अत्यावश्यक है।’’
विश्वजीत 'सपन'
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