Tuesday, September 3, 2019
महाभारत की लोककथा (भाग - 89)
महाभारत की कथा की 114 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
योग की महत्ता
===========
प्राचीन इतिहास है। शुकदेव अपने पिता व्यास जी से ज्ञानार्जन कर रहे थे। उसी क्रम में उन्होंने अपने पिता से पूछा - ‘‘पिताजी, योग के बारे में बड़ा सुना है। इसकी महत्ता क्या है? इसके संदर्भ में थोड़ा विस्तार से बताइये।’’
व्यास जी ने कहा - ‘‘पुत्र, इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि की वृत्तियों को रोक कर व्यापक आत्मा के साथ उनकी एकता स्थापित करना ही योग का ज्ञान है। एक योगी को शम, दम आदि से सम्पन्न होना चाहिये। उसे अध्यात्म का चिंतन करना चाहिये तथा शास्त्रविहित कर्मों का निष्काम भाव से अनुष्ठान करना चाहिये। काम, क्रोध, लोभ, भय एवं स्वप्न - ये पाँच योग के दोष कहे गये हैं। इनका निवारण करके उसे योग्य अधिकारी बनना चाहिये। उसके बाद गुरु से ज्ञान का उपदेश ग्रहण करना चाहिये। यही एक योगी के कर्तव्य होते हैं।’’
शुकदेव जी ने कहा - ‘‘इन पाँचों दोषों से बचने के क्या उपाय हैं, पिताजी? ये कार्य कठिन प्रतीत होते हैं।’’
व्यास जी ने कहा - ‘‘कार्य कठिन या सरल नहीं होते। निश्चित मन से करने से सभी कार्य सरल हो जाया करते हैं। मन को वश में करने से क्रोध को तथा संकल्प का त्याग करने से काम को जीता जा सकता है। सत्त्वगुण का आश्रय लेने से निद्रा पर विजय निश्चित है। धैर्य का आश्रय लेने से विषयभोग एवं भोजन की चिंता मिटती है। नेत्र के द्वारा हाथ एवं पैरों की, मन के द्वारा नेत्र की तथा कानों एवं कर्म के द्वारा मन और वाणी की रक्षा होती है। सावधानी के द्वारा भय एवं विद्वानों की सेवा से दम्भ का त्याग करना चाहिये। इस प्रकार एक योग साधक को आलस्य का त्याग कर योग सम्बन्धी दोषों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये।’’
शुकदेव जी ने कहा - ‘‘किन्तु पिताजी, यह सुनने में जितना सरल लगता है, उतना है नहीं। इन समस्त प्रकारों की विजय कैसे सरल की जा सकती है?’’
व्यास जी ने कहा - ‘‘उचित कहा तुमने पुत्र। इसके लिये साधक को इस प्रकार के उपाय करने चाहिये। इन्हें विस्तार से सुनो। योगी को सर्वप्रथम अग्नि, ब्राह्मण एवं देवताओं की पूजा करनी चाहिये। उसके उपरान्त उसे अहिंसा वाणी का व्रत लेना चाहिये। ध्यान, वेदाध्ययन, क्षमा, शौच, आचारशुद्धि एवं इन्द्रिय निग्रह से तेज की वृद्धि करनी चाहिये। उसे सम्पूर्ण प्राणियों में समान भाव रखना चाहिये।
रात्रि के पूर्व एवं पिछले प्रहर में ध्यानस्थ होकर मन को आत्मा में लगाना चाहिये। इस बात का ध्यान रखना अति आवश्यक है कि जिस प्रकार घड़े में एक छोटा छेद होने पर जल बह जाता है, ठीक उसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों में से एक भी यदि विषय की ओर प्रवृत्त हुई, तो साधक का तप भंग हो जाता है। सर्वप्रथम उसे मन को वश में करना चाहिये। उसके उपरान्त कान, आँख, जिह्वा तथा नासिका को वश में करना चाहिये। फिर पाँचों इन्द्रियों को मन में स्थापित कर इन्द्रिय सहित मन को बुद्धि में लीन करना चाहिये। इससे इन्द्रियों की मलिनता दूर होती है और वे निर्मल हो जाती हैं। उसी समय ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। जो योगी इस प्रकार एकान्त में बैठकर योगाभ्यास करता है, समस्त नियमों का पालन करता है, तो उसे थोड़े ही समय में अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है।
योग साधना में अग्रसर होने पर मोह, भ्रम एवं आवर्त आदि विघ्न प्राप्त होते हैं। दिव्य सुगन्ध आती है। दिव्य रूपों के दर्शन होते हैं। नाना प्रकार के अद्भुत रस एवं स्पर्श के अनुभव होते हैं। इच्छानुकूल सर्दी एवं गर्मी के अनुभव होते हैं। हवा की भाँति आकाश-गमन की शक्ति आ जाती है। अनेक दिव्य पदार्थ स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं, जिनका त्याग कर योगी को आत्मा में लीन होने का प्रयत्न करना चाहिये। उसे हमेशा प्रयास करना चाहिये कि चंचल मन उसके वश में हो। उसे कभी भी मन को उद्विग्न नहीं होने देना चाहिये।
उसे प्रशंसा एवं निन्दा को समान देखना चाहिये। वायु के समान सर्वत्र विचरण करता हुआ भी असंग रहना चाहिये। इस प्रकार यदि कोई साधक स्वस्थचित्त एवं समदर्शी रहकर छः महीने तक योगाभ्यास करता है, तो उसे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।
इसकी महत्ता इस बात से प्रमाणित होती है कि कोई भी व्यक्ति हो, चाहे वह नीच वर्ण का ही क्यों न हो, यदि उसे धर्म सम्पादन करने की इच्छा हो, तो योग मार्ग का सेवन करना चाहिये। इसके सेवन से उसे परमगति की प्राप्ति होती है। इस बात का ज्ञान होना आवश्यक है कि जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वह उस अजन्मा, नित्यमुक्त, अणु से भी अणु और महान् से भी महान् आत्मा का दर्शन कर सकता है।’’
इस प्रकार व्यास जी ने अपने पुत्र शुकदेव जी को योगाभ्यास की महत्ता एवं उसके करने के उपायों को विस्तार से बताया, जो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये हैं। इसी कारण कहा गया है कि योग किसी धर्म अथवा जाति हेतु प्रमाणित नहीं है, अपितु यह समस्त प्राणियों के कल्याण का मार्ग है। इसे धर्म अथवा जाति से जोड़कर देखना बुद्धिहीन वर्ग की कपोल कल्पना मात्र है।
विश्वजीत ‘सपन’
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment