Thursday, January 9, 2020
महाभारत की लोककथा (भाग - 96)
महाभारत की कथा की 121 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
निवृत्ति प्रधान धर्म की श्रेष्ठता
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पूर्व काल की बात है। ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से स्यूमरश्मि ने कपिल मुनि से पूछा - ‘‘गार्हस्थ्य धर्म एवं योग धर्म में कौन श्रेष्ठ है?’’
कपिल मुनि ने कहा - ‘‘ज्ञान मार्ग का आश्रय लेकर परब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। जो इसकी प्राप्ति कर लेता है, तो सम्पूर्ण लोकों में कहीं भी उसकी गति का अवरोध नहीं होता। इस विचार से ज्ञान मार्ग ही श्रेष्ठ धर्म का आश्रय बनता है।’’
स्यूमरश्मि ने कहा - ‘‘किन्तु मुनिवर, यदि पुरुषार्थ की चरमसीमा ज्ञान प्राप्त करके परब्रह्म में स्थित होना है, तो गृहस्थ धर्म का महत्त्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि गृहस्थों का आश्रय लिये बिना किसी भी आश्रम का कार्य संभव नहीं। गृहस्थ ही यज्ञ एवं तप भी करता है। वह अन्य धर्मों के लिये संसाधनों को जुटाता है। संतान सुख इसी धर्म का सबसे बड़ा सुख है। यह तो लोकहित का आश्रम है। वेद भी पुकार-पुकार कर कहते हैं कि मनुष्य पितरों, देवताओं तथा ऋषियों के ऋणी हैं। तब गृहस्थ धर्म में इन ऋणों को चुकाये बिना मोक्ष कैसे संभव है? वास्तव में वेदों के अनुसार कर्म करने से ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है।’’
कपिल मुनि ने कहा - ‘‘सत्य है कि वैदिक कर्मों का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये क्योंकि उनमें सनातन धर्म की स्थिति है, किन्तु जो संन्यास धर्म को स्वीकार कर कर्मानुष्ठान से निवृत्त हो गये हैं तथा धीर, पवित्र एवं ब्रह्मस्वरूप में स्थित हैं, वे ही अपने ब्रह्मज्ञान से देवताओं को तृप्त कर सकते हैं। इसका आश्रय लेकर किया हुआ तप संसार के मूलभूत अज्ञान का नाश कर डालता है। इस तथ्य को समझना आवश्यक है कि अनुष्ठान आदि से नाशवान् फल की ही प्राप्ति होती है।’’
स्यूमरश्मि ने कहा - ‘‘मुनिवर, मैं स्यूमरश्मि ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से ही आपकी शरण में आया हूँ। मैंने जो कहा वह मेरा पक्ष नहीं है, अपितु कल्याण की इच्छा से सरलभाव से निवेदन है। मुझे अपना शिष्य समझकर ही उपदेश दीजिये। चारों वर्णों एवं आश्रमों के लोग एकमात्र सुख के लिये ही अपने-अपने कर्मों में प्रवृत्त हो रहे हैं; अतः बताने की कृपा करें कि अक्षय सुख क्या है? किस आश्रम धर्म से इसकी प्राप्ति संभव है?’’
कपिल मुनि ने कहा - ‘‘स्यूमरश्मे, किसी भी वर्ण अथवा आश्रम में शास्त्र के अनुसार ही कर्म का आचरण किया जाता है। वही पुरुषार्थ का साधक होता है। जो जिस वर्ण या आश्रम के कर्तव्य का पालन करता है, उसको वहीं अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। वास्तव में वेद ही प्रमाण है। यह अकाट्य है। वेदों का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। वेद कहते हैं कि ब्रह्म के दो रूप होते हैं - शब्दब्रह्म एवं परब्रह्म। जो मनुष्य शब्दब्रह्म में पारंगत है, वह परब्रह्म को भी प्राप्त कर लेता है। असल में ब्रह्मनिष्ठ मनुष्य एक ही आश्रम धर्म को चार प्रकार से विभक्त हुआ मानते हैं। कोई संन्यासी होकर, कोई वन में रहते हुए, कोई गृहस्थ बनकर तथा कोई ब्रह्मचर्य का सेवन कर परमपद को प्राप्त करता है। ब्राह्मण है क्या? जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, गुरुसेवा में तत्पर रहता है, दृढ़निश्चयी एवं समाहित चित्त वाला है, वही तो ‘ब्राह्मण’ है। शुद्धचित्त एवं संयतात्मा ब्राह्मण ही उस सनातन परब्रह्म को प्राप्त करते हैं।’’
स्यूमरश्मि ने कहा - ‘‘आप तो ज्ञाननिष्ठ हैं तथा गृहस्थ लोग कर्मनिष्ठ होते हैं। आप इस समय सभी आश्रम धर्मों की एकता का प्रतिपादन कर रहे हैं। इससे कर्म एवं ज्ञान की एकता एवं पृथकता के कारण भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, अतः यथार्थ को समझाने की कृपा करें।’’
कपिल मुनि ने कहा - ‘‘कर्म मन की शुद्धि करते हैं तथा ज्ञान परमगतिरूप है। जब कर्मों के द्वारा चित्त के दोष जल जाते हैं, तब मनुष्य रसस्वरूप ज्ञान में स्थित हो जाता है। सब प्राणियों पर दया, क्षमा, शान्ति, अहिंसा, सत्य, सरलता, अद्रोह, निरभिमानता, लज्जा, तितिक्षा एवं शम ही ब्रह्मप्राप्ति के साधन हैं। इनके द्वारा पुरुष परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। जिस स्थिति को संतुष्ट, शान्त, विशुद्धचित्त और ज्ञाननिष्ठ पुरुष प्राप्त कर लेते हैं, उसी का नाम ‘परमगति’ है।’’
स्यूमरश्मि ने पूछा - ‘‘मुनिवर, यह ब्रह्म क्या है? किस प्रकार इसे जान सकते हैं?’’
कपिल मुनि ने कहा - ‘‘वेदज्ञ पुरुष ही सभी विषयों को जानते हैं। जो मनुष्य सम्पूर्ण वेद एवं उनके प्रतिपाद्य परब्रह्म को ठीक-ठीक जानता है, उसे ही वेदज्ञ कहते हैं। वेद में ही ब्रह्म का ज्ञान समाहित है। जो कुछ भी है तथा जो कुछ नहीं है, उन सभी विषयों की स्थिति वेद में है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि इस जगत् का आदि, अन्त एवं मध्य ब्रह्म ही है। सर्वस्व त्याग कर ही उसकी प्राप्ति होती है। वह आनन्दस्वरूप से सबमें अनुगत एवं अपवर्ग (मोक्ष) में प्रतिष्ठित है। इसी कारण से ब्रह्म ऋत, सत्य, ज्ञात, ज्ञातव्य, सबका आत्मा, चराचरमूर्ति, मंगलमय, विशुद्धसुखस्वरूप, सर्वोत्कृष्ट, अव्यक्त का कारण है तथा अविनाशी है।’’
वेद ज्ञान है और ज्ञान से ही मोक्ष संभव है। आदिकाल से यही परम्परा चली आ रही है। शास्त्रों की निष्ठा यही है कि यह दृश्य जगत् प्रतीतिकाल में तो है, किन्तु उसके बीत जाने पर नहीं। यही परम ज्ञान है।
विश्वजीत 'सपन'
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