Sunday, March 15, 2020

महाभारत की लोककथा (भाग - 98)




महाभारत की कथा की 123 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 


भगवान् शंकर का क्रोध

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    प्राचीन काल की बात है। हिमालय के निकट गंगा के द्वार पर प्रजापति दक्ष ने यज्ञ प्रारम्भ किया। सभी देवता, ऋषि-मुनि आदि वहाँ पधारे। महामुनि दधीचि ने देखा कि सभी वहाँ आये, किन्तु भगवान् शिव कहीं दिखाई नहीं दिये। उन्होंने इसका विरोध किया और कहा कि यदि भगवान् शिव की पूजा नहीं होती, तो कोई भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता। 


    दक्ष ने कहा - ‘‘महर्षे, देखिये विधिपूर्वक मन्त्र से पवित्र की हुई हवि इस सुवर्ण पात्र में रखी है। इसे मैं भगवान् विष्णु को अर्पित करूँगा। वे ही समर्थ, व्यापक एवं यज्ञ भाग के समर्पण के योग्य हैं।’’


    मुनि दधीचि ने कहा - ‘‘उचित है, किन्तु भगवान् शिव तो यज्ञ के अग्रभोक्ता हैं। उनके बिना यज्ञ अधूरा है। वे अवश्य ही इसका संज्ञान लेंगे। यदि आपने उन्हें आमंत्रित नहीं किया, तो वे अवश्य ही इस यज्ञ का विध्वंस कर डालेंगे।’’


    उधर कैलास पर माता पर्वती उदास होकर भगवान् शंकर से कह रही थीं कि वे कौन-सा व्रत या तप करें कि उनके पति को यज्ञ का एक तिहाई भाग अवश्य प्राप्त हो। यह सुनकर भगवान् शंकर ने कहा - ‘‘देवि, मैं सम्पूर्ण यज्ञों का ईश्वर हूँ। जिस यज्ञ के कारण तुम्हें दुःख हुआ है, उसे नष्ट करने के लिये मैं एक वीर पुरुष को उत्पन्न कर रहा हूँ।’’


    इस प्रकार कहकर भगवान् शंकर ने अपने मुख से एक अत्यन्त ही बलशाली पुरुष को उत्पन्न किया और माता पर्वती के मुख से एक बलशाली स्त्री की उत्पत्ति हुई। वह पुरुष वीरभद्र था, जो शौर्य, बल आदि में भगवान् शंकर के समान ही था। शंकर ने उससे कहा - ‘‘दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दो।’’


    भगवान् शंकर के ऐसा कहते ही वीरभद्र के रोम-रोम से ‘‘रौम्य’’ नामक गण प्रकट हो गये। वे हजारों की संख्या में यज्ञ को नष्ट करने चल दिये। कुछ समय में उन लोगों ने शोर मचाते हुए दक्ष की सम्पूर्ण यज्ञशाला को नष्ट कर दिया। देवता, ऋषि एवं मनुष्य सभी छुप गये। तब ब्रह्मा आदि देवता तथा प्रजापति दक्ष ने हाथ जोड़कर पूछा - ‘‘आप कौन हैं? आपने ऐसा क्यों किया?’’


    वीरभद्र बोला - ‘‘मैं वीरभद्र हूँ। मैं भगवान् रुद्र के कोप से प्रकट हुआ हूँ। ये भद्रकाली हैं तथा भगवती उमा के क्रोध से इनका प्रादुर्भाव हुआ है। आपने भगवान् शंकर का अपमान किया, इस कारण उनकी आज्ञा से आपके यज्ञ को हमने नष्ट कर दिया। आप लोग उनकी शरण में जायें, तभी कल्याण होगा।’’


    यह सुनकर दक्ष को अनुभव हो गया कि उनसे अनुचित कार्य हो गया है। उन्होंने तत्क्षण ही प्रार्थना प्रारम्भ कर दी। वे बोलने लगे - ‘‘हे सम्पूर्ण जगत् के पालनहार, नित्य, अविकारी एवं सनातन प्रभु महादेव मैं आपकी शरण में हूँ। मेरी विनती स्वीकार करें, प्रभु।’’


     इस प्रकार प्रजापति दक्ष के विनती करने पर हजारों सूर्य के समान भासित होते भगवान् शिव सहसा अग्निकुण्ड से प्रकट हुए और बोले - ‘‘ब्रह्मन्, बताओ, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’’


    देवगुरु बृहस्पति ने वेदपाठ करते हुए भगवान् शिव की स्तुति की। तत्पश्चात् अश्रुपूरित नेत्रों से हाथ जोड़कर प्रजापति दक्ष ने कहा - ‘‘भगवन्, क्षमा करें। मुझसे अनुचित हो गया। यदि आप प्रसन्न हैं, तो यह जो यज्ञ हमने रखा था, वह व्यर्थ न जाये। इसकी पूर्ति हो जाये।’’


    भगवान् शंकर ने ‘‘तथाऽस्तु’’ कहकर दक्ष की प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसके उपरान्त दक्ष ने भगवान् शिव के सैकड़ों नामों का उच्चारण कर उनकी स्तुति करनी प्रारम्भ की तथा कहा - ‘‘हे भगवन्, आपके माहात्म्य को ठीक-ठीक जानने में ब्रह्मा, विष्णु तथा ऋषि भी समर्थ नहीं हैं। आप ही सम्पूर्ण भूतों के जन्मदाता, पालक एवं संहारक हैं तथा आप ही समस्त प्रणियों के अन्तरात्मा हैं। नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा आपका ही यजन किया जाता है। आप ही सबके कर्ता हैं, इसी कारण मैंने अलग से आपको आमंत्रण नहीं दिया था। अथवा यों कहें कि आपकी सूक्ष्म माया से मैं मोह में पड़ गया था। इस कारण आपको निमंत्रण देने में भूल हुई। मैं भक्तिभाव से आपकी शरण में आया हूँ। आप प्रसन्न होइये। मेरा हृदय, मेरी बुद्धि तथा मेरा मन सब आप में समर्पित है।’’


    इस प्रकार स्तुति करके जब दक्ष चुप हो गये, तो भगवान् शिव ने कहा - ‘‘मै तुम्हारी इस स्तुति से संतुष्ट हूँ। तुम्हें एक सहस्र अश्वमेध तथा वाजपेय यज्ञ का फल मिलेगा। इस यज्ञ में जो विघ्न डाला गया है, इसके लिये तुम खेद न करना। मैंने पहले कल्प में भी तुम्हारे यज्ञ का विध्वंस किया था। यह घटना भी पूर्वकल्प के अनुसार ही हुई है। जिस पाशुपत यज्ञ का मैंने देवताओं एवं दानवों के लिये अनुष्ठान किया था, उस यज्ञ का फल भी तुम्हें प्राप्त होगा।’’


    इतना कहकर भगवान् शिव, माता पर्वती समेत सभी गणों के साथ दक्ष एवं समस्त लोगों की दृष्टि से ओझल हो गये। कहते हैं कि जो भी मनुष्य दक्ष द्वारा स्तवन का कीर्तन अथवा श्रवण करेगा, उसका कभी अमंगल नहीं होगा तथा वह दीर्घायु बनेगा। सम्पूर्ण स्तोत्रों में यह स्तवन ही श्रेष्ठ माना गया है।

विश्वजीत ‘सपन’

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