महाभारत की कथा की 128 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
महातपस्वी शुकदेव जी - मोक्ष का विचार (भाग 1)
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एक
बार व्यास जी ने हिमालय पर उग्र तपस्या की। प्रसन्न होकर महादेव जी ने
उन्हें वर दिया कि उनका पुत्र महान् तपस्वी होगा। शुकदेव जी को जन्म से ही
सब वेद आदि उपस्थित हो गये, जिस प्रकार उन्हें व्यास जी जानते थे।
ब्रह्मचर्य में ही मोक्ष का विचार करते हुए उन्होंने अपने पिता से पूछा तो
व्यास जी ने कहा - ‘‘बेटा, तुम मोक्ष एवं अन्यान्य धर्मों का अध्ययन करो।’’
तब शुकदेव जी ने सम्पूर्ण योग एवं सांख्यशास्त्र का अध्ययन किया। जब
व्यास जी को विश्वास हो गया कि उनका पुत्र अब योग्य हो गया है, तब उन्होंने
कहा - ‘‘बेटा, अब तुम मिथिलानगरी राजा जनक के पास जाओ। एक साधारण व्यक्ति
की भाँति जाओ। उनकी आज्ञा का पालन करो तथा उनसे मोक्ष ज्ञान की शिक्षा
लो।’’
आज्ञा पाकर शुकदेव जी मिथिला की ओर चल दिये। पर्वत, नदी, तीर्थ आदि पार
करते हुए चीन तथा हूण आदि देशों को पार करते हुए आर्यावर्त पहुँचे। फिर वे
मिथिलानगरी के राजमहल के पास गये, तो उन्हें द्वारपाल ने रोक दिया। वे वहीं
रुक गये, किन्तु उस स्थान से हटे नहीं। प्रातः से मध्याह्न हो गया। वे डटे
रहे। न शोक किया तथा न ही क्रोध। एक द्वारपाल को प्रतीत हुआ कि शुकदेव जी
अवश्य ही कोई असाधारण मानव हैं। तब उसने उनकी पूजा करके उन्हें महल में
प्रवेश करा दिया। कुछ देर के उपरान्त राजमन्त्री आये तथा उन्हें महल की तीन
ड्योढ़ी तक ले गये। वहाँ अन्तःपुर से सटा हुआ एक अति मनभावन बगीचा था। उसका
नाम प्रमदावन था। वहीं उन्हें एक आसन दिखाकर वे बाहर निकल गये।
मन्त्री के जाते ही पचास वारांगनायें उनकी सेवा में उपस्थित हुई। वे सभी
अति सुन्दर नवयुवतियाँ थीं। उन्होंने विधिवत पूजा कर उन्हें भोजनादि दिया।
फिर उन्होंने उन्हें प्रमदावन की सैर कराई, किन्तु शुकदेव जी को न हर्ष हुआ
न ही विषाद। वे बस चलते रहे। उन्हें सुन्दर बिछौना दिया गया, तो उन्होंने
हाथ-पैर धोकर संध्योपासन किया तदुपरान्त ध्यानमग्न हो गये। रात्रि के प्रथम
पहर तक वे उसी प्रकार ध्यानमग्न रहे। फिर योगशास्त्र के अनुसार रात्रि के
मध्यभाग में सो गये। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौचादि से निवृत्त होकर पुनः
ध्यानमग्न हो गये।
कुछ समय के बाद राजा जनक की अन्तःपुर समस्त स्त्रियाँ तथा पुरोहित एवं
मन्त्रियों के साथ शुकदेव जी के पास आये। उन्हें आसन दिया एवं उनकी विधिवत
पूजा की। राजा जनक ने उनका स्वागत किया और पूछा - ‘‘मुने, किस निमित्त से
आपका शुभागमन हुआ है?’’
व्यासनन्दन ने कहा - ‘‘मैं अपने पिता की आज्ञा से आपसे कुछ पूछने आया हूँ।’’
जनक ने कहा - ‘‘मुने, यदि आपके पिता ने कहा है, तो अवश्य ही कोई बात होगी। बताइये, मैं किस प्रकार आपकी सेवा कर सकता हूँ?’’
शुकदेव जी ने पूछा - ‘‘राजन्, ब्राह्मण का क्या कर्तव्य है? मोक्ष का स्वरूप क्या है? उसकी प्राप्ति तप से होती है या ज्ञान से?’’
जनक ने कहा - ‘‘यज्ञोपवीत के बाद वह वेदाध्ययन करे। गुरु की सेवा, तप का
अनुष्ठान एवं ब्रह्मचर्य का पालन ये तीन परम कर्तव्य हैं। वेदाध्ययन के बाद
गुरु को दक्षिणा देकर समावर्तन संस्कार के पश्चात् घर लौटे। फिर गार्हस्थ
धर्म का पालन करे। पुत्र-पौत्र के बाद वानप्रस्थ का पालन करे। उसके बाद
संन्यास आश्रम में प्रवेश करे। यही नियम बताया गया है।’’
शुकदेव जी ने कहा - ‘‘जी, आपकी बात उचित है। कृपाकर यह भी बताने का कष्ट
करें कि यदि किसी को ब्रह्मचर्य आश्रम में ही सनातन ज्ञान-विज्ञान की
प्राप्ति हो जाये, तो उन्हें तीन आश्रमों में रहना क्या आवश्यक है?’’
जनक ने कहा - ‘‘मुने, आपकी जिज्ञास में कोई त्रुटि नहीं है, किन्तु बिना
सद्गुरु के ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। लोक मर्यादा तथा कर्म परम्परा
की रक्षा करने के लिये चारों आश्रमों के धर्म का पालन करना आवश्यक माना गया
है, किन्तु अनेक जन्मों में कर्म करते-करते जब इन्द्रियाँ पवित्र हो जाती
हैं, तो शुद्ध अन्तःकरण वाला मनुष्य पहले ही आश्रम में मोक्ष धर्म का ज्ञान
प्राप्त कर लेता। ऐसा प्राणी इच्छा एवं द्वेष रहित हो जाता है। वह
ब्रह्मरूप हो जाता है। वह मन, वाणी या क्रिया द्वारा किसी की बुराई नहीं
करता। उस समय समान भाव की क्षमता विकसित हो जाती है। निन्दा-स्तुति आदि का
प्रभाव उस पर नहीं पड़ता।’’
ज्ञान प्राप्ति के बाद शुकदेव जी पुनः अपने पिता के पास आये। उस समय
व्यास जी अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। वह अंतिम उपदेश था कि वे लोग
वेदों का विस्तार करें तथा सभी योग्य मनुष्य को पढ़ायें। विद्यादान हमेशा
सदाचारियों को ही करना चाहिये। जो शिष्य भाव से न पढ़े उसे वेदाध्ययन नहीं
कराना चाहिये। उपदेश के उपरान्त सभी शिष्य चले गये, तो व्यास जी को अच्छा
नहीं लगा। तब नारद जी ने आकर उन्हें शुकदेव जी के साथ वेदाध्ययन करने को
कहा। जब वे वेदाध्ययन कर रहे थे, तो बड़ी तीव्र आँधी आई। व्यास जी ने
अनध्याय काल बताकर अपने पुत्र को वेदाध्ययन से रोक दिया। तब शुकदेव जी ने
कारण पूछा।
व्यास जी ने कहा - ‘‘जब बाहर प्रचण्ड वायु चल रही हो, तब वेद मन्त्रों का
ठीक-ठीक सस्वर उच्चारण नहीं होता, अतः उस समय वेदाध्ययन नहीं करते।’’
वेद हेतु यह ज्ञान अत्यावश्यक माना गया है। किसे वेदाध्ययन कराना चाहिये और कब इसका अध्ययन वर्जित होता है।
विश्वजीत सपन