Wednesday, April 3, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 74)


महाभारत की कथा की 99 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

गुरुओं से सीख

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पूर्वकाल की बात है। बोध्य नामक एक ऋषि हुआ करते थे। वे परम तपस्वी एवं पूर्णतः विरक्त थे। उनकी ख्याति धरती पर दूर-दूर तक फैली हुई थी। राजा-महाराजा सहित सभी उनके दर्शन करने आते थे एवं उनसे शिक्षा तथा उपदेश ग्रहण करते थे। 


    उसी समय धरती पर राजा नहुष के पुत्र ययाति का राज्य था। राजा ययाति उनसे उपदेश ग्रहण करने की इच्छा से उनके आश्रम गये। बोध्य ने उनका अतिथि के समान स्वागत किया और फल आदि देने के उपरान्त उनसे पूछा - ‘‘राजन्! आपका मेरे आश्रम में स्वागत है। आप किस प्रयोजन से यहाँ पधारे हैं, कृपया मुझे बतायें।’’


    राजा ययाति ने मुनि को प्रणाम करके कहा - ‘‘मुनिवर, आप ज्ञानी हैं एवं संसार के मोहों से मुक्त हैं। आप मुझे उपदेश दें, ताकि मैं भी अपने कर्तव्य का पालन कर सकूँ।’’


    बोध्य मुनि स्पष्टवक्ता एवं अभिमान रहित थे। उन्होंने कहा - ‘‘राजन्! मैं किसी को उपदेश नहीं देता, अपितु मैं स्वयं ही दूसरों के उपदेश के अनुसार आचरण करता हूँ।’’


    राजा ययाति ने कहा - ‘‘मुनिश्रेष्ठ! आप जैसे गुरु की बातें सुनकर ही मनुष्य धन्य हो जाता है। आप मुझ पर कृपा करें एवं बतायें कि ऐसी कौन-सी बुद्धि है जिसका आश्रय लेकर आप शान्त एवं सानन्द रहते हैं।’’


    बोध्य ऋषि ने कहा - ‘‘राजन्! मनुष्य में सीखने की प्रवृत्ति होनी चाहिये। वह कभी भी तथा किसी से भी सीख सकता है। आपकी सीखने की प्रवृत्ति को देखते हुए मैं अपने गुरुओं की बातें आपसे साझा करना चाहता हूँ।’’


    राजा ययाति ने कहा - ‘‘आपके समस्त गुरुओं को मेरा सादर प्रणाम है गुरुवर। आपकी कही एक-एक बात मेरे लिये जीवन-यापन का साधन बनेगा।’’


    बोध्य ने कहा - ‘‘तो सुनिये महाराज! आप किसी को भी अपना गुरु बना सकते हैं, क्योंकि सबसे बड़ी वस्तु सीख होती है। यही जीवन को दिशा प्रदान करती है। मेरे छः गुरु हैं - पिंगला, कुरुरपक्षी, सर्प, सारंग, बाण बनाने वाला एवं कुमारी। आपको पिंगला के जीवन का पता ही होगा।’’


    राजा ने कहा - ‘‘जी गुरुदेव, आपके श्रीमुख से सुनने से अवश्य मेरा कल्याण होगा।’’


    बोध्य ऋषि ने कहा - ‘‘पिंगला निराशा में जीती थी। आशा प्रबल होती है, किन्तु सुख निराशा में होता है। पिंगला एक वेश्या थी, जिसे किसी से प्रेम हो गया था। एक दिन उसकी बाट जोह रही थी, किन्तु वह न आया। उस समय उसने सोचा कि आशा करना व्यर्थ है और वह सुख से रहने लगी। आशा को निराशा में बदलकर जीवन को सुखमय किया जा सकता है।’’


    राजा ने कहा - ‘‘उचित है मुनिवर, यह करुरपक्षी का क्या दृष्टान्त है?’’


    बोध्य ने कहा - ‘‘एक दिन की बात है। एक करुरपक्षी को मांस का एक टुकड़ा मिला। यह अन्य पक्षियों ने देख लिया। उस एक मांस के टुकड़े को पाने के लिये सभी पक्षी उस करुरपक्षी पर झपट पड़े, उसे मारने लगे। तब विचारकर उस करुरपक्षी ने उस मांस के टुकड़े को फेंक दिया। उसे बड़ा चैन मिला। जीवन में यह सीख बड़ी महत्त्वपूर्ण होती है। वस्तु को छोड़ देने से सुख की प्राप्ति होती है, जबकि उसे पकड़े रहने से दुःख होता है।’’


    राजा ययाति ध्यानपूर्वक ऋषि बोध्य की बातें सुन रहे थे। ऋषि ने कहना जारी रखा - ‘‘राजन्! एक सर्प को देखिये, वह अपना बिल कभी नहीं बनाता। वह दूसरे के बिल में जाकर चैन से रहता है। उसे अपना घर बनाने का झंझट ही नहीं है। अपना-अपना से ही दुःख मिलता है। सुख तो तब मिलता है, जब हमें जो है, वही उचित है की संतुष्टि मिलती है, तब सुख प्राप्त होता है। सारंग पक्षी को देखिये। वे अहिंसावृत्ति से कंद, बीज, अनाज आदि ग्रहण करके अपना जीवन यापन करते हैं। वे कभी भी किसी को कोई कष्ट नहीं पहुँचाते। इसी प्रकार का जीवन एक मनुष्य को जीना चाहिये।’’


    राजा ययाति की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी कि जीवन को देखने का दृष्टिकोण मुनिवर का कितना निराला था। वे विचार भी कर रहे थे तथा ध्यान से सुन भी रहे थे।


    बोध्य ने कहा - ‘‘एक दिन की बात है। मैंने एक बाण बनाने वाले को देखा। वह अपने कार्य में पूर्णतः निमग्न था। उसी समय उसके पास से राजा की सवारी निकली। उस बाण बनाने वाले को पता भी न चला कि कुछ हो भी रहा था। वह अपने कार्य में दत्तचित्त था। इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को अपना कार्य करना चाहिये। निमग्नता से कार्यसिद्धि होती है।’’


    राजा ययाति जीवन के रहस्य को समझते जा रहे थे। छोटे-छोटे उदाहरण से ऋषि बोध्य उनको जीवन का ज्ञान प्रदान कर रहे थे।


    बोध्य ने आगे कहा - ‘‘राजन्! मेरे छठे गुरु हैं एक कुमारी कन्या। यह कन्या धान कूट रही थी। उसके हाथ में चूड़ियाँ थीं। जब वह धान कूटती, तो उन चूड़ियों से ध्वनि निकलती थी। इससे उसे बाधा आ रही थी। उसने चूड़ियाँ तोड़ दीं और दोनों हाथों में एक-एक रहने दिया। अब ध्वनि आनी बंद हो गयी। इससे सीख मिलती है कि अधिक लोग एक साथ रहते हैं, तो कलह होती ही है। दो-दो भी रहें, तो भी बातचीत होती ही है, अतः मैं भी जीवन में अकेला रहूँगा एवं विचरण करूँगा, यह निर्णय मैंने लिया। इन छः गुरुओं के अनुसार ही मैं आचरण करता हूँ।’’


    राजा ययाति को अब कुछ पूछने की आवश्यकता न थी। वे सीख चुके थे कि छोटी-छोटी वस्तुयें भी जीवन में सीख प्रदान करती हैं। उचित दृष्टिकोण हो, तो जीवन को सदा के लिये सुखमय बनाया जा सकता है। गुरु मात्र मानव-शरीरधारी नहीं होते, वे कुछ भी तथा कोई भी हो सकते हैं।   


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