Friday, April 19, 2019
महाभारत की लोककथा (भाग- 76)
महाभारत की कथा की 101 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
मनुष्य जाति की महत्ता
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प्राचीन काल की बात है। काश्यप नामक एक ब्राह्मण था। वह संयमी एवं तपस्वी था, किन्तु उसके पास धन की कमी थी। इस कारण से उसका अधिक सम्मान न हो पाता था। एक दिन की बात है। वह किसी व्यापारी के साथ उसके रथ में जा रहा था। दोनों के मध्य विवाद हो गया। विवाद बड़ा हो गया और क्रोध में आकर उस धनिक ने काश्यप को रथ से धक्का दे दिया। काश्यप नीचे गिर गया और उसके पैर में चोट लगी। वह विचार करने लगा कि उसका जीवन कितना अधम है। एक धनिक भी उससे अधिक सुखी है। उसे लगा कि उसका जीवन व्यर्थ है, अतः उसने आत्मघात करने की सोची। उसकी ऐसी सोच को जानकर इन्द्र एक सियार का रूप धर कर उसके पास आये और बोले - ‘‘हे ब्राह्मण देवता, आपको क्या कष्ट है?’’
काश्यप ने अपने मन की बात बता दी और कहा कि उसका जीवन व्यर्थ है। तब उस सियार ने कहा - ‘‘ये आप क्या कह रहे हैं? मनुष्य योनि पाने के लिये तो सभी प्राणी उत्सुक रहते हैं। ऐसा दुर्लभ शरीर पाकर आप उसे ही नष्ट करना चाहते हैं? यह कदापि उचित नहीं है।’’
काश्यप ने कहा - ‘‘किन्तु जब जीवन व्यर्थ लगे, तो क्या करना चाहिये। ऐसे जीवन से जीवन का न होना ही श्रेयस्कर होता है।’’
सियार ने कहा - ‘‘हे द्विववर, सबके पास किसी न किसी वस्तु की कमी होती ही है। अब देखिये मेरे हाथ नहीं हैं। मेरे शरीर में काँटे चुभे हुए हैं, किन्तु हाथ न होने के कारण मैं उन्हें निकाल नहीं सकता। मुझे कीड़े काट रहे हैं, किन्तु हाथ न होने के कारण उनसे छुटकारा पाना मेरे लिये संभव नहीं है। जिनके हाथ होते हैं, वे वर्षा, घाम या शीत से स्वयं की रक्षा कर सकते हैं। आपके भी हैं, किन्तु आप इस पर दुःखी हैं?’’
ब्राह्मण ने कहा - ‘‘तुम नहीं समझोगे। मुझसे अच्छा जीवन तो तुम्हारा है, एक कीड़ा-मकौड़ा भी मुझसे अच्छा जीवन बिताता है।’’
सियार ने कहा - ‘‘ये आप क्या कह रहे हैं, ब्राह्मण देवता। सभी प्राणी मनुष्य योनि में उत्पन्न होना चाहते हैं। आप न केवल मनुष्य है, बल्कि आप ब्राह्मण भी हैं। ब्राह्मण तो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ होते हैं। आप वेदवेत्ता भी हैं। इस कारण आप पर ईश्वर की कृपा भी हमेशा ही बनी रहती है। इससे अधिक किसी की क्या कामना हो सकती है? आत्महत्या करना पाप है। मुझे देखिये मैं शृगाल योनि में हूँ। यह नीच है, किन्तु कितने इससे भी नीच हैं। भंगी और चाण्डाल भी अपनी योनियों में प्रसन्न रहते हैं तथा अपना शरीर नहीं छोड़ना चाहते।’’
काश्यप ने कहा - ‘‘यह सब तो ठीक है, किन्तु धन भी तो होना चाहिये?’’
सियार ने कहा - ‘‘बिल्कुल, किन्तु उतना ही जितना कि आवश्यक हो, अन्यथा धनी हो जाने पर व्यक्ति राज्य चाहने लगता है। एक बार उसे राज्य प्राप्त हो जाये, तो वह देवत्व प्राप्त करने की कामना करने लगता है। यह एक ऐसी तृष्णा है, जो निरन्तर बढ़ती ही जाती है। इस तृष्णा की अग्नि जल से नहीं बुझती, बल्कि ईंधन से अग्नि के समान वह और भी प्रज्वलित हो जाती है। बुद्धि एवं इन्द्रियाँ ही समस्त कामनाओं एवं कर्मों के मूल में होती हैं। उन्हें ही नियंत्रित करने की आवश्यकता होती है।’’
काश्यप ने सियार की बात मान ली और पूछा - ‘‘तो फिर आप ही बताइये कि मुझे क्या करना चाहिये?’’
सियार ने कहा - ‘‘आपका शरीर नीरोग है एवं आप पूर्णांग हैं। यदि जातिच्युत करने वाला कोई सच्चा कलंक भी लगा हो, तो भी आपको प्राणत्याग का विचार नहीं करना चाहिये, अपितु आपको धर्म पालन करना चाहिये। आप सावधानी से स्वाध्याय एवं अग्निहोत्र कीजिये, सत्य बोलिये, इन्द्रियों को वश में रखिये, दान दीजिये तथा किसी से भी स्पर्धा मत कीजिये। मैं पूर्वजन्म में एक पण्डित था। मैं कुतर्क करके वेद की निंदा किया करता था। वेदों में मेरी आस्था न थी। मैं बातें बनाया करता था तथा अनावश्यक कुतर्क किया करता था। यह शृगाल योनि मेरे उन्हीं कुकर्मों का फल है। अब मैं दिन-रात विचार करता रहता हूँ कि मुझे किस प्रकार मनुष्य योनि की प्राप्ति हो तथा जानने योग्य वस्तुओं को जान सकूँ एवं त्याज्य को त्याग सकूँ। आप एक श्रेष्ठ प्राणी हैं। आप स्वयं विचार कीजिये कि जो बात मैंने कही वह उचित है अथवा नहीं?’’
काश्यप एक अनुभवी तपस्वी था। उसे प्रतीत हुआ कि वह सियार कोई साधारण प्राणी नहीं था। उसने प्रणाम किया तो इन्द्र अपने स्वरूप में आ गये। काश्यप ने उनको पुनः प्रणाम कर पूजा की तथा उपदेश ग्रहण कर घर आ गया। उसके मन से सभी विकार मिट गये थे। आत्महत्या का विचार भी अब उसे स्पर्श नहीं कर पा रहा था। उस दिन के बाद से उसने धर्म में अपना मन लगा लिया एवं सुख से रहने लगा।
कहा गया है कि मनुष्य जाति बड़ी कठिनाई से मिलती है। इसे प्राप्त करने के बाद सद्कर्मों से इसका लालन-पालन करना चाहिये, ताकि भविष्य में इससे इतर योनि में जन्म न हो, बल्कि मोक्ष की प्राप्ति हो।
विश्वजीत 'सपन'
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