Saturday, April 13, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 75)





महाभारत की कथा की 100 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 

अजगर व्रत का आचरण

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प्राचीन काल की बात है। समस्त प्रकार के राग, भय, लोभ, मोह एवं क्रोध को त्याग करने वाले एक मुनि हुए। उनका नाम अजगर था। वे अत्यन्त ही शुद्धचित्त एवं निर्विकार थे। उनकी इस वृत्ति को अजगर-वृत्ति के नाम से भी जाना जाता था। एक दिन की बात है। असुरराज प्रह्लाद ने उन्हें देखा और वे उनके बारे में जानने को उत्सुक हो गये। उन्होंने उनके आश्रम में जाकर उन्हें प्रणाम किया, तो अजगर मुनि ने उनसे कहा - ‘‘दैत्यराज, आपका मेरे आश्रम में आने का प्रयोजन क्या है? बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’’


    असुरराज प्रह्लाद ने कहा - ‘‘मुनिवर, हम सभी इतना कुछ प्राप्त करने के बाद भी आनन्द का अनुभव नहीं करते, किन्तु आपके पास कुछ भी नहीं है, फिर भी आप आनन्दित रहते हैं। यह कैसे संभव है?’’


    मुनि ने अपनी मधुर वाणी में कहा - ‘‘इस जगत् के उत्पत्ति, ह्रास, वृद्धि और नाश का कारण प्रकृति ही है। यह जानकर न मैं हर्षित होता हूँ और न ही व्यथित। जितने भी संयोग हैं, उन्हें आप वियोग में समाप्त होने वाले ही समझिये। साथ ही जितने भी संचय हैं, उनका अंत भी विनाश में समझिये। आप देखिये और अनुभव कीजिये कि पृथ्वी पर जितने भी स्थावर एवं जंगम प्राणी हैं, उनकी मृत्यु मुझे स्पष्ट दिखती है। गगन में जो समस्त तारे हैं, वे भी एक न एक दिन गिरते ही प्रतीत होते हैं। इस प्रकार समस्त प्रणियों को मृत्यु के अधीन देखकर सबमें समान भाव रखते हुए मैं आनन्द से सोता हूँ। जीवन आनन्द का नाम ही है।’’


    प्रह्लाद की जिज्ञासा बढ़ गयी। उन्होंने पूछा - ‘‘मुनिवर, आपकी वृत्ति क्या है? मुझे थोड़ा विस्तार से बतायें।’’


    मुनि अजगर ने कहा - ‘‘असुरराज, यह जीवन जीने का एक उपाय भर है। अनेक लोग इसे अनेक प्रकार से जीते हैं, किन्तु मेरा अपना मानना है कि यदि अनायास कुछ मिल जाये, तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिये, तब अधिक भोजन भी हो जाये, तो कोई हानि नहीं और यदि कभी न भी मिले तो कई दिनों तक भूखा रह जाना भी कोई अनुचित नहीं। जब जैसा जो होता है, उसे उसी प्रकार स्वीकार करना चाहिये। 


मुझे कभी मूल्यवान वस्त्र मिल जाये, तो उसे स्वीकार कर लेता हूँ तथा नहीं मिले तो सन या चर्म के वस्त्र ही धारण कर लेता हूँ। इससे मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता। दैववश कुछ भी पदार्थ प्राप्त होता है, तो उसका कभी त्याग नहीं करता, किन्तु कभी किसी दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं रखता। मेरे सोने-बैठने का कोई स्थान नियत नहीं है। मैं स्वभाग से ही यम, नियम, व्रत, सत्य एवं शौच का पालन करता हूँ। यही अजगर वृत्ति है। यह अत्यन्त सुदृढ़, कल्याणमय, शोकहीन, पवित्र एवं अतुलनीय है। मैं सर्वथा अन्तःकरण से इस अजगर-वृत्ति का पालन करता हूँ।’’


    प्रह्लाद ने पूछा - ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ, सच में आपने दुर्लभ गति पायी है। आपको किसी लाभ की इच्छा नहीं है और हानि होने पर भी आपको कोई चिन्ता नहीं होती। आप सदा ही तृप्त जान पड़ते हैं। आपके पास ऐसी क्या बुद्धि है अथवा शास्त्रज्ञान है, जिससे आप ऐसा कर पाते हैं? कृपा कर मुझे बताने का कष्ट करें।’’


जन्म-मरण और सुख-दुःख आदि तो विधाता के हाथ में है, ऐसा जानकर ही मैंने भय, राग, मोह एवं अभिमान का त्याग कर दिया है। साथ ही धैर्य एवं बुद्धि को अपनाया है। मन एवं वाणी की उपेक्षा करके इन्द्रियों को वश में कर लिया है। मैं अपने धर्म से कभी च्युत नहीं होता। मुझे किसी फल की इच्छा भी नहीं है। मूढ़मति लोगों को ऐसी बुद्धि दुष्कर प्रतीत होती है, किन्तु इसे सर्वथा निर्दोष तथा अविनाशी मानता हूँ। सबसे बड़ी बात है कि मैं सब प्रकार के दोषों एवं तृष्णाओं को नष्ट कर देता हूँ। इसी कारण मेरी गति परिमित है, मति अविचल है एवं मैं पूर्णतया शान्त हूँ। इस प्रकार मैं बड़े आनन्द से अजगर व्रत का आचरण करता हूँ। यही रहस्य है।’’


कहा जाता है कि जो कोई मनुष्य राग-द्वेष आदि का त्याग कर अजगर वृत्ति का पालन करता है, वह इस लोक में आनन्द से विचरण करता है। उसे शोक एवं दुःख स्पर्श भी नहीं कर पाता है। 


विश्वजीत 'सपन'

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