Wednesday, November 16, 2011

दुर्घटना (लघु कथा)


भीड़ भरे बाज़ार में जाना बहुधा परेशानी का कारण बन जाता है। उस दिन सरकारी वाहन लेकर बाज़ार गया। आवश्यक काम था। काम निपटा कर वापस चला ही था कि मेरा वाहन एक दोपहिये से टकराते-टकराते बचा। वह दोपहिया वाहन वाला सहम कर वहीं का वहीं जड़ हो गया। मैं भी अवाक्-सा देखता रह गया। कुछ क्षणों तक समझ में नहीं आया कि क्या हुआ और कैसे? क्षण भर में ही मेरे वाहन के पीछे अनेक वाहनों की कतारें लग गईं। तरह-तरह के वाहनों के हार्न की आवाज़ें कान के परदे फाड़े जा रही थी। सभी झुंझलाए हुए थे। मेरा वाहन चालक तब तक बाहर निकल चुका था। उसने उस दोपहिये वाले से कहा कि वह अपना दोपहिया बगल में कर ले। लेकिन उसने मेरे वाहन चालक की बात पर गौर नहीं किया और अपने दोपहिया को वहीं खड़ा कर मुझे घूरता हुआ मेरे पास आया। मैं अभी तक सकते में था कि अगर मेरी गाड़ी उस दोपहिये पर चढ़ जाती तो क्या होता? वह दोपहिया वाला मेरे पास आया और बोला - "भाई साहब, कम से कम गाड़ी से उतर कर देख तो लो कि मुझे कुछ हुआ भी है या नहीं। बड़े लोग हो, फिर भी सान्त्वना के दो बोल तो बोल ही सकते हो।"
    मैं शर्म के मारे धरती में गड़ गया।