Monday, August 24, 2015

गीता ज्ञान - 16



 
 अथ षोडशोऽध्यायः

दैवासुसम्पद्विभागयोग



सोलहवें अध्याय में दैव एवं असुर सम्पदाओं का बड़ा ही स्पष्ट और सुन्दर वर्णन है। गीता के तेरहवें से पन्द्रहवें अध्यायों तक जीव-जगत्, प्रकृति, ब्रह्म विषयक दार्शनिक विचारों के चिंतन मिलते हैं, वहीं सोलहवें अध्याय में व्यावहारिक, नैतिक एवं अध्यात्म प्रधान विचारों को दैवी सम्पदा और उनके विपरीत विचारों को आसुरी सम्पदा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।।गी. 16.6।।


अर्थात् हे अर्जुन! इस लोक में मानव-समुदाय दो वर्गों में विभक्त है। प्रथम दैवी प्रकृति वाला और द्वितीय आसुरी प्रकृति वाला। उन दैवी एवं आसुरी प्रकृति वाले मानव-समुदाय के लक्षण तुम सविस्तार सुनो।


सर्वप्रथम दैवी प्रकृति वाले पुरुष का वर्णन इस अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में किया गया है और बाद में विस्तार से आसुरी सम्पदा का वर्णन विशेष है। दैवी-सम्पदा के लक्षण हैं - भय का सर्वथा अभाव अर्थात् अभय। यह भय दो प्रकार का होता है। बाहर का एवं भीतर का। चोर, डाकू, सर्प आदि का भय बाहरी भय है, जबकि मानव जब पाप, अन्याय अत्याचार करता है, तब उसे भीतर का भय होता है। जब ईश्वर से संबंध जुड़ जाता है तब यह भय समाप्त हो जाता है। 


इनमें अन्तःकरण की शुद्धि होती है। तत्त्वज्ञान के लिये ध्यान में दृढ़ स्थिति होती है एवं इनका ज्ञान सात्त्विक होता है। ये इन्द्रियों का दमन करना जानते हैं। ये यज्ञ, स्वाध्याय और तप में लीन रहते हैं। इनमें अन्तःकरण की सरलता होती है। इनमें अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति आदि के गुण होते हैं। ये निन्दा, चुगली आदि नहीं करते। ये प्राणियों पर दया करते हैं। ये अनाशक्त होते हैं। इनका स्वभाव कोमल होता है। ये बुरे कार्यों को करने में लज्जा का अनुभव करते हैं। ये व्यर्थ चेष्टा नहीं करते। इनमें तेज और धैर्य होता है। इनमें शत्रुता का भी अभाव होता है। ये पवित्र होते हैं और स्वयं में पूज्यता के अभिमान का अभाव रखते हैं। ऐसा व्यक्ति दैवी सम्पदा से युक्त होता है। 


इसके विपरीत आसुरी प्रकृति वाले मानव प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते। वे नहीं जानते कि क्या करना है और क्या नहीं। अतः उनमें न शुद्धि, न सदाचार और न ही सत्य का सन्निवेश रहता है। ये जगत् को आश्रयरहित, असत्य और निरीश्वर मानते हैं। इनका लक्ष्य केवल काम होता है और इसी से संसार की उत्पत्ति मानते हैं। ये दूसरों का अहित करने वाले, क्रूरकर्मी तथा जगत् की हानि करने के लिये ही जन्म लेते हैं। इनमें दम्भ, मान, मद पूर्णतः होता है। ये अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके, अपवित्र धारणाओं को धारण करके संसार में विचरण करते हैं। ये विषय भोगों को ही सुख मानते हैं। ये धनादि के संग्रह में विश्वास करते हैं। ये धन के पीछे भागते रहते हैं। ये स्वयं को सिद्ध, बलवान् और सुखी मानते हैं। मेरे समान कोई दूसरा नहीं है, ऐसा अभिमान इनका रहता है। शत्रुओं को मारकर ये स्वयं को बड़ा सिद्ध करते हैं। स्वयं श्रेष्ठ मानने वाले ये घमण्डी धन और मान के मद से युक्त केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्र-विधि से रहित यजन करते हैं। ऐसे असुरी प्रकृति वाले पुनः-पुनः संसार के इन्हीं आसुरी योनियों में जन्म लेते हैं। बार-बार आसुरी योनि में गिरकर बाद में और भी अधोगति को प्राप्त होते हैं और घोर नरक में गिरते हैं।


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतस्त्रयं त्यजेत।।गी. 16.21।।


अर्थात् काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं। ये आत्मा को अधोगति में डालकर उसके आनन्द तत्त्व को नष्ट कर देने वाले हैं, अस्तु इन तीनों को त्याग देना चाहिए।


तात्पर्य यह कि इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष स्वयं के कल्याण का कार्य कर लेता है और इस प्रकार वह ईश्वर को प्राप्त कर परमगति को प्राप्त हो जाता है। 


भौतिकवादी अहं-प्रेरित महत्त्वाकांक्षा व्यक्ति और समाज के हित में नहीं है। इसके द्वारा व्यक्ति में अशान्ति और तनाव तथा समाज में ध्वंसात्मकता का प्रचार-प्रसार होता है। आसुरी सम्पद् वाले पुरुष रजोगुण प्रधान होने के कारण भौतिक वैभव अर्जन करते हैं। वे दूसरों के दुःख पर अपने सुख का निर्माण करते हैं, अतः नरक में जाते हैं। जबकि दैवी सम्पद् वाले पुरुष दूसरों को सुखी देखना चाहते हैं। कहते हैं कि दूसरों को सुखी देखने की चाह वाला कभी दुःखी नहीं हो सकता। अतः दैवी सम्पद् को अपना कर अपना कार्य सिद्ध करना चाहिए। यही गीता के इस अध्याय का संदेश है।


विश्वजीत ‘सपन’

Tuesday, August 4, 2015

गीता ज्ञान - 15


अथ पञ्चदशोऽध्यायः

पुरुषोत्तमयोग

पन्द्रहवें अध्याय को पुरुषोत्तम योग कहा गया है। इस अध्याय में जगत्, जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है। संसार के स्वरूप को पीपल के वृक्ष के प्रतीक के रूप में समझाने की चेष्टा की गयी है, जो अति-विलक्षण वृक्ष है।


ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।। गी. 15.1।।


सामान्य वृक्ष की जड़ें नीचे होती हैं और शाखायें ऊपर, किन्तु इस संसार वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर और शाखायें नीचे की ओर हैं। इसके मूल में परमात्मा का वास है तथा इसकी उत्पत्ति का कारण परमात्मा ही हैं। इसके पत्ते वेद हैं। वेद का अर्थ ज्ञान होता है। ज्ञान के कारण प्राणी जीवित है और वेद वर्णित ज्ञान ही संसार के विकास का प्रमुख साधन है। इस वृक्ष को जिसने जान लिया, उसने समस्त वेदों को जान लिया। इसकी शाखायें सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से सिंचित होकर बढ़ती आयी हैं। इनमें जो कोंपलें हैं, वे ही विषय हैं। इसमें कर्मबंधन वाली अहंता (मैं-पन), ममता (मेरा-पन) और वासनारूपी जड़ें और ऊपर सभी लोकों में फैली हुई हैं।


इस संसार रूपी वृक्ष की गति भी विलक्षण है। इसका स्वरूप असल में भिन्न है, जैसा इसे देखा अथवा बताया गया है। तत्त्वज्ञान होने पर इसका स्वरूप भिन्न दिखायी देता है। यह संसार प्रतिपल परिवर्तनशील है। इस संसार में व्यक्ति, वस्तु अथवा प्राणियों का विकास-क्रम समाप्त नहीं होता है। वह अनादि काल से चलता आ रहा है और अनन्त काल तक चलता ही रहेगा। इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं, क्षर (नाशवान्) तथा अक्षर (अनश्वर), इनमें प्राणियों का शरीर क्षर है और जीवात्मा का अक्षर। यही अपरा और परा प्रकृति है। यही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भी कहा गया है।


ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थनि कर्षति।। गी.15.7।।


अर्थात् इस देह में स्थित जीवात्मा जो सनातन है, वह मेरा ही अंश है, परन्तु प्रकृति में स्थित होने पर वही मन एवं इन्द्रियों को आकर्षित करता है तथा उन्हें सजातीय मान लेता है। तात्पर्य यह कि जीवात्मा तो परमात्मा का ही अंश है, किन्तु वह मन एवं इन्द्रियों से अपनत्व जोड़ लेता है, जबकि यह वास्तविकता नहीं है। वास्तव में मात्र एक ही सत्य है, परमात्मा। इसी कारण मनुष्य नव शरीर धारण करता है, क्योंकि वह जिस शरीर का त्याग करता है, उसके समस्त संस्कारों को समेट लेता है। साथ ही इन्द्रियों द्वारा विषयों का सेवन करता है। शरीर को त्याग कर तीनों गुणों से युक्त आत्मा को अज्ञानीजन नहीं जान पाते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया होता है। मोहवश वे इन्द्रियों के बंधन में बंध जाते हैं और नवीन शरीर धारण करते हैं, किन्तु विवेकशील ज्ञानी इस आत्मा को तत्त्वपूर्वक जान लेते हैं। 


इसके पश्चात् भगवान् परमात्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन! जो तेज सम्पूर्ण जगत् का प्रकाशक है तथा जो तेज सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा में व्याप्त है, वह परमात्मा का ही हैं। वे ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को धारण करते हैं और वे ही रसरूप चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को पुष्ट करते हैं। वे समस्त प्राणियों के हृदय में सूक्ष्म रूप से स्थित होते हैं और उनसे ही स्मृति, ज्ञान और बुद्धि में रहने वाले संशय दूर होते हैं। वे ही परब्रह्म और वेदज्ञ हैं। 


उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृत।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।। गी.15.17।।


श्री भगवान् कहते हैं कि इस संसार में नाशवान् और अनश्वर दो प्रकार के पुरुष हैं और इन दोनों से उत्तम परमपुरुष वह है, जो इनसे पृथक् तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका पोषण करता है, जो अविनाशी, परमेश्वर, परमात्मा नामों से पुकारा जाता है। वह नश्वर जड़वर्ग ‘क्षेत्र’ से सर्वथा अतीत हैं और जीवात्मा से भी उत्तम हैं। अस्तु वे लोक और वेद में ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हैं। जो भी ज्ञानी उन्हें इस प्रकार तत्त्वपूर्वक से पुरुषोत्तम रूप में जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है। पुरुषोत्तम में भक्ति जीव की मुक्ति का कारण है। यही परमात्मा अथवा ईश्वर है और यही सत्य है।

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विश्वजीत ‘सपन’