अथ षोडशोऽध्यायः
दैवासुसम्पद्विभागयोग
सोलहवें अध्याय में दैव एवं असुर सम्पदाओं का बड़ा ही स्पष्ट और सुन्दर वर्णन है। गीता के तेरहवें से पन्द्रहवें अध्यायों तक जीव-जगत्, प्रकृति, ब्रह्म विषयक दार्शनिक विचारों के चिंतन मिलते हैं, वहीं सोलहवें अध्याय में व्यावहारिक, नैतिक एवं अध्यात्म प्रधान विचारों को दैवी सम्पदा और उनके विपरीत विचारों को आसुरी सम्पदा के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।।गी. 16.6।।
अर्थात् हे अर्जुन! इस लोक में मानव-समुदाय दो वर्गों में विभक्त है। प्रथम दैवी प्रकृति वाला और द्वितीय आसुरी प्रकृति वाला। उन दैवी एवं आसुरी प्रकृति वाले मानव-समुदाय के लक्षण तुम सविस्तार सुनो।
सर्वप्रथम दैवी प्रकृति वाले पुरुष का वर्णन इस अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में किया गया है और बाद में विस्तार से आसुरी सम्पदा का वर्णन विशेष है। दैवी-सम्पदा के लक्षण हैं - भय का सर्वथा अभाव अर्थात् अभय। यह भय दो प्रकार का होता है। बाहर का एवं भीतर का। चोर, डाकू, सर्प आदि का भय बाहरी भय है, जबकि मानव जब पाप, अन्याय अत्याचार करता है, तब उसे भीतर का भय होता है। जब ईश्वर से संबंध जुड़ जाता है तब यह भय समाप्त हो जाता है।
इनमें अन्तःकरण की शुद्धि होती है। तत्त्वज्ञान के लिये ध्यान में दृढ़ स्थिति होती है एवं इनका ज्ञान सात्त्विक होता है। ये इन्द्रियों का दमन करना जानते हैं। ये यज्ञ, स्वाध्याय और तप में लीन रहते हैं। इनमें अन्तःकरण की सरलता होती है। इनमें अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति आदि के गुण होते हैं। ये निन्दा, चुगली आदि नहीं करते। ये प्राणियों पर दया करते हैं। ये अनाशक्त होते हैं। इनका स्वभाव कोमल होता है। ये बुरे कार्यों को करने में लज्जा का अनुभव करते हैं। ये व्यर्थ चेष्टा नहीं करते। इनमें तेज और धैर्य होता है। इनमें शत्रुता का भी अभाव होता है। ये पवित्र होते हैं और स्वयं में पूज्यता के अभिमान का अभाव रखते हैं। ऐसा व्यक्ति दैवी सम्पदा से युक्त होता है।
इसके विपरीत आसुरी प्रकृति वाले मानव प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते। वे नहीं जानते कि क्या करना है और क्या नहीं। अतः उनमें न शुद्धि, न सदाचार और न ही सत्य का सन्निवेश रहता है। ये जगत् को आश्रयरहित, असत्य और निरीश्वर मानते हैं। इनका लक्ष्य केवल काम होता है और इसी से संसार की उत्पत्ति मानते हैं। ये दूसरों का अहित करने वाले, क्रूरकर्मी तथा जगत् की हानि करने के लिये ही जन्म लेते हैं। इनमें दम्भ, मान, मद पूर्णतः होता है। ये अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके, अपवित्र धारणाओं को धारण करके संसार में विचरण करते हैं। ये विषय भोगों को ही सुख मानते हैं। ये धनादि के संग्रह में विश्वास करते हैं। ये धन के पीछे भागते रहते हैं। ये स्वयं को सिद्ध, बलवान् और सुखी मानते हैं। मेरे समान कोई दूसरा नहीं है, ऐसा अभिमान इनका रहता है। शत्रुओं को मारकर ये स्वयं को बड़ा सिद्ध करते हैं। स्वयं श्रेष्ठ मानने वाले ये घमण्डी धन और मान के मद से युक्त केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्र-विधि से रहित यजन करते हैं। ऐसे असुरी प्रकृति वाले पुनः-पुनः संसार के इन्हीं आसुरी योनियों में जन्म लेते हैं। बार-बार आसुरी योनि में गिरकर बाद में और भी अधोगति को प्राप्त होते हैं और घोर नरक में गिरते हैं।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतस्त्रयं त्यजेत।।गी. 16.21।।
अर्थात् काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं। ये आत्मा को अधोगति में डालकर उसके आनन्द तत्त्व को नष्ट कर देने वाले हैं, अस्तु इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
तात्पर्य यह कि इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष स्वयं के कल्याण का कार्य कर लेता है और इस प्रकार वह ईश्वर को प्राप्त कर परमगति को प्राप्त हो जाता है।
भौतिकवादी अहं-प्रेरित महत्त्वाकांक्षा व्यक्ति और समाज के हित में नहीं है। इसके द्वारा व्यक्ति में अशान्ति और तनाव तथा समाज में ध्वंसात्मकता का प्रचार-प्रसार होता है। आसुरी सम्पद् वाले पुरुष रजोगुण प्रधान होने के कारण भौतिक वैभव अर्जन करते हैं। वे दूसरों के दुःख पर अपने सुख का निर्माण करते हैं, अतः नरक में जाते हैं। जबकि दैवी सम्पद् वाले पुरुष दूसरों को सुखी देखना चाहते हैं। कहते हैं कि दूसरों को सुखी देखने की चाह वाला कभी दुःखी नहीं हो सकता। अतः दैवी सम्पद् को अपना कर अपना कार्य सिद्ध करना चाहिए। यही गीता के इस अध्याय का संदेश है।
विश्वजीत ‘सपन’