Thursday, March 5, 2015

गीता ज्ञान - अध्याय 13


                                                                     


  
                                     अथ त्रयोदशोऽध्यायः

                                                                     
                                                                   क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग
   

गीता की अध्याय योजना अनुपम है। जीवन-दर्शन को इतनी सरलता, सहजता एवं तारतम्य से समझाया गया है कि देखते ही बनता है। इस तेरहवें अध्याय को क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग कहा गया है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण अध्याय है, जहाँ भगवान् आत्मतत्त्व-ज्ञान की ओर पुनः उन्मुख होते हैं। हमने पूर्व में जाना कि ज्ञान, कर्म एवं भक्ति क्या है? उनका महत्त्व क्या है? इस अध्याय में उस ज्ञान को संक्षेप में बताया गया है, जिसका भ्रम ही मानव को परमात्मा के मिलन से दूर रखता है। अध्याय के प्रथम श्लोक में ही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के इस संदर्भ में बताया गया है।
 

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।गी.13.1।।

 

अर्थात् हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’ नाम वाला कहा गया है और जो इसको जानता है, ज्ञानीजन उसे ही ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं। तो यह शरीर ही ‘क्षेत्र’ है और शरीरी आत्मा ही ‘क्षेत्रज्ञ’ है।
 

इसके बाद भगवान् क्षेत्र का स्वरूप, क्षेत्रज्ञ की स्थिति, प्रकृति-पुरुष आदि का वर्णन करते हुए सगुण-निर्गुण बह्म आदि के सम्यक् ज्ञान द्वारा प्ररब्रह्म की प्राप्ति को बताते हैं। यह अध्याय सूक्ष्म रूप से तत्त्वज्ञान को प्रतिपादित करता है।
 

क्षेत्र का स्वरूप बताते हुए भगवान कहते हैं कि संक्षेप में पंच महाभूत - आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी, दस इन्द्रियाँ, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति, एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहपिण्ड, चेतनाशक्ति और धृति इनका समूह ही क्षेत्र कहा जाता है। इन सभी को ही सत्य मान लेना मानव-भ्रम है। इनसे छुटकारा पाकर ही मनुष्य ज्ञान का अधिकारी होता है। इस विषय पर वे कहते हैंः-
 

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।। गी.13.20।।

 

क्षेत्र के स्वरूप को जान लेने के बाद यह समझना आसान होगा कि जो भी होता है, वह ‘कार्य’ है, जिसके माध्यम से कार्य होता है, वह ‘करण’ अथवा साधन है। ये पंच महाभूत और उसके पाँच गुण - दस ‘कार्य’ हैं और पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन-बुद्धि-अहंकार - ये तेरह ‘करण’ हैं। ये तेईस तत्त्व प्रकृति से सम्बन्धित हैं। इनसे भिन्न पुरुष होता है, जो अजर-अमर है। जो भी मानवीय विकार आदि होते हैं, वे इसी प्रकृति में होते हैं और पुरुष जब इसे अपना लेता है, तो वह कष्ट पाता है। जो प्रकृतिस्थ (प्रकृति द्वारा प्रदत्त शरीर को अपना मान लेना) होता है अर्थात् प्रकृतिजन्य त्रिगुणात्मक का भोक्ता बनता है तथा सत्त्व, रजस् एवं तमस् गुणों से प्रभावित होता है, वही विभिन्न योनियों में जन्म लेता रहता है और अनेक योनियों में फँसकर कष्ट पाता रहता है।
 

वास्तव में इस शरीर में यह पुरुष (आत्मा) ही परमात्मा है। अतः जो मनुष्य प्रकृति को गुणों सहित और पुरुष को जान जाता है, वह कर्म-बन्धन से मुक्त होकर जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिये छूट जाता है।
 

यहीं पर ईश्वर पुनः कहते हैं कि ईश्वर प्राप्ति के अनेक साधन हैं। कोई ध्यान से उनमें मन लगता है (ध्यानयोग), तो कई अन्य ज्ञानयोग द्वारा उन्हें प्राप्त करते हैं और भी कई अन्य कर्मयोग द्वारा उन्हें प्राप्त करते हैं। कितने तो ऐसे भी हैं, जो इनसे भी मंदबुद्धि वाले होते हैं और तत्त्वज्ञ (ज्ञानीजन) की बातें सुनकर तदनुसार उपासना करके इस संसार-सागर को पार कर जाते हैं। लक्ष्य एक ही है - ईश्वर-प्राप्ति। साधन अनेक हो सकते हैं, किन्तु यह ज्ञान होना भी आवश्यक हैं कि जितने भी जड़-चेतन जीव उत्पन्न होते हैं, वे क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही होते हैं। यथार्थ द्रष्टा वही है, जो विनाशशील चराचर भूतों में उस एक परमेश्वर को समभाव से देखता है, जो समस्त क्रियाओं को प्रकृति द्वारा किया हुआ देखता है अर्थात् अपनी आत्मा को अकर्ता देखता है, जो समस्त प्राणियों के पृथक् भावों को एक परमात्मा में स्थित और परमात्मा से ही समस्त प्राणियों का विस्तार देखता है।
 

क्योंकि परमब्रह्म अनादि है, अनंत है और सत्-असत् से परे अत्यन्त सूक्ष्म है। उसके ही आकार-प्रकार सर्वत्र विद्यमान हैं, वह इस संसार में सबमें व्याप्त होकर स्थित है। वह समस्त इन्द्रियों से रहित भी इन इन्द्रिय-विषयों का ज्ञाता है। वह अनासक्त होने पर भी सबका भरण-पोषण करता है। वह निर्गुण है, किन्तु गुणों का भोक्ता है। वह वैसे तो समस्त चराचर के भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर समस्त रूप में स्थित भी है, किन्तु अति-सूक्ष्म होने से मानव-मन और बुद्धि की पकड़ से बाहर रह जाता है। यही परमात्मा जानने के योग्य है और यही तत्त्वज्ञान के द्वारा प्राप्त है।
 

इस प्रकार यदि हम इस अध्याय के सार-तत्त्व को संक्षेप में कहें, तो आध्यात्म ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है।
 

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। गी.13.11।।

 

अर्थात् अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के प्रयोजन के रूप में परमात्मा को सर्वत्र देखने की प्रवृत्ति ही ‘ज्ञान’ है और इसके विपरीत सभी अज्ञान है। यही ज्ञान क्षेत्र (शरीर), क्षेत्रज्ञ (आत्मा) और उसकी भ्रान्ति के कारण उत्पन्न विकारों से मुक्ति का उपादान है। इस ज्ञान का ज्ञेय और कोई नहीं, श्रेष्ठ, अजर-अमर, अनासक्त परमात्मा ही है। वह परम-सत्ता अविभक्त होते हुए भी विभक्त दिखाई देती है, क्योंकि विकार मन उस सूक्ष्म को नहीं जान पाता है। यही मानव के जानने योग्य ज्ञान है और यही ईश्वर प्राप्ति का साधन है।
 

विश्वजीत ‘सपन’