Monday, December 22, 2014

गीता ज्ञान - 11



विश्वरूपदर्शनयोग
 
गीता का एकादश अध्याय ‘विश्वरूपदर्शनयोग’ के नाम से प्रचलित है। यह अध्याय आध्यात्म को परिपूर्ण ढंग से समझने के लिये अति-महत्त्वपूर्ण है। भगवान् के दो रूप होते हैं - ऐश्वर्य एवं मधुर। ऐश्वर्यमय रूप में ज्ञानशक्ति, बल, वीर्य और तेज समाविष्ट होता है। यही भगवान् का विश्वरूप अथवा विराट् रूप है। यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि प्रारंभ में भागवत धर्म में ऐश्वर्य भाव की ही उपासना होती थी और कालान्तर में मधुर भाव का प्रवेश हुआ, जिसका विकसित प्रारूप श्रीभद्भागवत-महापुराण में भली-भाँति उल्लेख है। वस्तुतः एक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से देखें तो परमसत्ता के ऐश्वर्य को देखना किसी भी भक्त का सपना होता है और इसी दर्शन से भक्ति का संचार होता है। एक बार इस रूप को देखने पर उसकी आत्मा तृप्त हो जाती है और उसे बोध हो जाता है कि वह उस परमसत्ता के हाथों का एक खिलौना मात्र है। उसका रहा-सहा गर्व भी ढह जाता है और परमसत्ता में उसका विश्वास अटल हो जाता है। 

इस अध्याय में इसी ज्ञानतत्त्व का वर्णन है और भगवान् के नारायण स्वरूप का अति-सुन्दर वर्णन है। अर्जुन को इस बात का विश्वास हो गया कि उसके रथ की बागडोर सम्भालने वाले वासुदेव श्रीकृष्ण कोई नर नहीं हैं, बल्कि स्वयं नारायण हैं और उनकी इच्छा हुई कि वे भगवान् के ऐश्वर्यरूप का दर्शन करें ताकि उनका रहा-सहा भ्रम भी पूर्णतः दूर हो जाये। अर्जुन ने भगवान् से प्रार्थना की -


मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मनमव्ययम्।। गी. 11.4।।


अर्थात् हे प्रभो! यदि मेरे द्वारा आपका यह विराट् रूप प्रत्यक्ष देखा जाना संभव है और उसके लिये आप मुझे पात्र मानते हैं, तो हे योगेश्वर! आप मुझे अपने उस अविनाशी विराट् रूप का दर्शन कराइये। 


भगवान् ने अर्जुन की बात मानकर कहा कि हे पार्थ! अब तुम मेरे सैकड़ों, सहस्रों, नाना प्रकार के, नाना वर्ण के और नाना आकृतियों वाले अलौकिक रूप को देखो। मुझमें द्वादश आदित्यों, आठ वसुओं, एकादश रुद्र, दोनों अश्विनी कुमारों, उनचास मरुतों को देखो। मेरे इस शरीर में स्थित चराचर सम्पूर्ण जगत् को देखो और जो कुछ और भी देखना चाहते हो, उसे भी देखो। किन्तु तुम अपने इन नेत्रों से उन्हें नहीं देख सकते, अतः इस हेतु मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ। इस दिव्य दृष्टि के बिना ईश्वर रूप को देखना असंभव है। यही दिव्य दृष्टि संजय के पास भी थी, जो महाराज धृतराष्ट्र को महाभारत के उस युद्ध को पल-पल होते दिखा रहा था। (संजय को यह दिव्य दृष्टि भगवान् वेदव्यास ने प्रदान की थी।) उसने महाराज धृतराष्ट्र को बताया कि ऐसा कहकर महायोगेश्वर ने अपना परम ऐश्वर्यरूप दिखाया।


अनेक मुखों और नेत्रों से युक्त, अनेक अद्भुत दर्शनों वाले, अनेक दिव्याभूषणों से युक्त, अनेक दिव्यायुध धारण किये हुए, दिव्य माला और वस्त्रों से सुशोभित, दिव्य सुगन्धों का अनुलेपन किये हुए, सम्पूर्ण आश्चर्यों से भरे, असीम, सभी दिशाओं में मुख किये हुए विराट् रूप परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। उस समय फैला प्रकाश सहस्रों सूर्यों के एक साथ उदय होने पर जितना प्रकाश हो, उससे भी कहीं तीव्र और अधिक था। अनेक प्रकार से विभक्त सम्पूर्ण जगत् को उस परमसत्ता के शरीर में एक साथ स्थित हुए देखकर अर्जुन ने आश्चर्यचकित, कंपनयुक्त शरीर के साथ परमेश्वर के समक्ष नतमस्तक होकर कहा।


हे देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण वेदों को, अनेक भूतसमुदायों को, कमलासन पर स्थित ब्रह्मा को, महादेव को, सम्पूर्ण ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ। अनेक भुजाओं, उदरों, मुखों और नेत्रों से युक्त, सभी ओर अनेक रूपों वाला देखता हूँ, जिसका न आदि, न मध्य और न ही अंत देख पा रहा हूँ। अनन्त भुजा वाले, चन्द्र, सूर्य रूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्निरूप मुख वाले और इस जगत् को स्वतेज से संतप्त होते देखता हूँ। स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का समग्र आकाश तथा सभी दिशायें आपसे ही परिपूर्ण हैं और आपके इस अलौकिक रूप को देखकर तीनों लोक भय से व्यथित हो रहे हैं। सभी देव-दानव, ऋषि-मुनि, सिद्ध-गंधर्व सभी विस्मित हैं। धृतराष्ट्र के सभी पुत्रादि, उनके सभी योद्धा और वीर आपके विकराल बने मुख में प्रवेश कर रहे हैं। कई तो चूर्णित सिरों समेत आपकी दाँतों के मध्य लटके हुए-से दिख रहे हैं। सभी प्रजातियाँ, वनस्पति आदि अति वेग से उड़कर आपके मुखों द्वारा ग्रास बनाये जा रहे हैं। इस उग्र रूप वाले आप कौन है? आप प्रसन्न हों, हे देवों के देव। 


अर्जुन को पूरी तरह से भयभीत और प्रार्थना करते देखकर श्री भगवान् बोले - मैं लोकों का विनाशक बढ़ा हुआ काल हूँ। इस समय लोकों को नष्ट करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ। ये योद्धागण बिना तुम्हारे भी नष्ट हो जायेंगे। अतः उठो और युद्ध करो। तुम भय मत करो, क्योंकि निश्चित ही तुम उनके विनाश के कारण बनोगे।


असल में यह विराट् रूप भगवान् के ऐश्वर्य का चरम विकास था। ऐसा ऐश्वर्य रूप को देखकर किसी का भी गर्व चकनाचूर हो सकता है और उसे इस बात का अनुभव होता है कि वह कुछ भी नहीं। अर्जुन को भी अनुभव हुआ कि वह बिना बात के ही स्वयं पर सभी योद्धाओं के संहार का आरोप लगा रहा था। उसका अहंकार ही मिथ्या था। यही जगत् सत्य है। ईश्वर ही कर्ता हैं, वही पालनहार एवं संहारक भी हैं। मानव को मात्र उनके उद्देश्यों के अनुसार ही जीवनयापन करना चाहिये।


अर्जुन को इस बात की अनुभूति भी हो रही थी कि उसके सखा कोई आम मनुष्य नहीं थे, बल्कि स्वयं ईश्वर थे, जिनके समक्ष मनुष्य स्वयं को दीन-हीन ही समझ सकता है। अपने कर्मों के लिये क्षमा ही माँग सकता है। अर्जुन बोल उठे - आप इस जगत् के परम आश्रय एवं उसे जानने वाले तथा जानने योग्य परम धाम हैं। आपको मैं बारंबार नमन करता हूँ। आपको जिस भी प्रकार से मैंने संबोधित किया वह मात्र प्रेम के कारण ही हुआ, उसके लिये मुझे क्षमा करें। तात्पर्य यह कि उन्होंने बिना यह जाने कि श्रीकृष्ण स्वयं नारायण हैं, उन्हें, मित्र, सखा, कृष्ण आदि नामों से पुकारा था। अतः जिस प्रकार पिता पुत्र के, सखा अपने सखा के और पति अपनी प्रियतमा के अपराध को सहन कर क्षमा करते हैं, आप भी करें। आपके इस आश्चर्यजनक विराट् रूप को देखकर मन हर्षित है, साथ ही भय से व्याकुल भी है। अतः हे देवेश, आप मुझे मुकुटधारी, गदा और चक्र धारण किये हुए रूप को दिखाइये। आप अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट होइये।


सामान्य मनुष्य में इतनी शक्ति नहीं कि वह ईश्वर के विराट् रूप को निरन्तर देखता रह सके। उस रूप में जो कार्य सम्पादित होते हैं, वे ईश्वर के अतिरिक्त न कोई समझ सकता है और न ही सहन कर सकता है, क्योंकि निर्लिप्तता आवश्यक है। मनुष्य मानसिक रूप से इतना सशक्त नहीं है। अतः अर्जुन का भयभीत होना एक स्वाभाविक आचरण था।


अतः श्री भगवान् बोले कि हे अर्जुन, जिस रूप को तुमने देखा, वह सामान्य रूप से कभी नहीं देखा सकता। यह मैंने ही तुम्हारे लिये संभव किया, किन्तु तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं होना चाहिये। तुम निर्भय हो जाओ औ मेरे चतुर्भुज रूप को फिर से देखो। इसके साथ ही भगवान् श्रीकृष्ण पुनः अपने सामान्य रूप में आ गये।


इस विराट् विश्वरूप को केवल अर्जुन एवं संजय ही देख पाये थे। इसके पूर्व भी भगवान् ने अक्रूर, यशोदा और दुर्योधन आदि को अपना विश्वरूप दिखाया था, किन्तु यह सबसे विलक्षण था। यह ऐश्वर्य प्रधान उग्र रूप था, जिसमें विकराल वीर योद्धाओं के महाविनाश का रोमांचकारी दृश्य भी सम्मिलित था। यह कहना अत्युक्ति नहीं कि आराध्य की महत्ता की गम्भीर आधारशिला पर भक्ति के भव्य प्रसाद का महल खड़ा होता है। इस कारण इस अध्याय की महत्ता स्वयंसिद्ध हो जाती है।


भगवान् के सहज रूप को देखकर अर्जुन पुनः शांत हो गये तब श्री भगवान् ने पुनः कहा - मेरे इन रूपों को कोई भी व्यक्ति आसानी से नहीं देख सकता। सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला, मेरे परायण, मेरा भक्त, जो आसक्ति रहित है और जो सम्पूर्ण प्राणियों से प्रेमभाव रखने में सक्षम है, वही भक्त मुझे प्राप्त कर सकता है।


गीता के सातवें अध्याय से दसवें अध्याय तक भगवान् श्रीकृष्ण ने जिन सर्वेश्वरत्व, अनन्तरूप का वर्णन किया है, उसका प्रायोगिक रूप इस अध्याय में प्रस्तुत किया गया है। अर्जुन की स्वीकृति इस महत्ता को प्रतिपादित करती है कि समस्त वैदिक देवताओं का समाहार श्रीकृष्ण में है। उन्हें पाने का सर्वसुलभ मार्ग भक्ति ही है। साथ ही भक्ति के वात्सल्यभाव, सख्यभाव एवं कान्ताभाव के बीज का अंकुरण भी इस अध्याय में स्पष्ट दिखाई देता है। 


विश्वजीत ‘सपन’

Saturday, November 8, 2014

गीता ज्ञान - 10


विभूतियोग

सातवें से नवें अध्याय में भगवान् के निराकार एवं साकार रूप का निरूपण ज्ञान एवं विज्ञान के रूप में होता आया है। दशवाँ अध्याय भी उसी क्रम में है। इस अध्याय को ‘विभूतियोग’ नाम दिया गया है। ‘विभूति’ का अर्थ है - ऐश्वर्य। विभूतियोग का विस्तार से वर्णन इस अध्याय को भगवान् की अलौकिकता की स्थापना का अध्याय कहा जा सकता है। भगवान् क्या हैं और क्या नहीं, इस ज्ञान को बड़ी सुन्दरता एवं सरलता से प्रतिपादित किया गया है। 

गीता के पिछले अध्यायों में भक्ति की महत्ता को प्रतिष्ठापित किया गया है। भगवान् ही भक्ति के आलम्बन हैं। उनकी भक्ति में मानव का कल्याण छुपा है। इस सम्बन्ध में कोई भ्रान्ति नहीं हो सकती और अर्जुन को भी नहीं हुई, किन्तु वे योगेश्वर श्रीकृष्ण से उनकी दिव्य विभूतियों को सुनने का अनुरोध करते हैं और इस अध्याय की भूमिका बनती है।


    इस अध्याय में भगवत् तत्त्व की व्यापकता का वर्णन देखते ही बनता है। प्रारंभ में भगवान् बताते हैं कि उनकी उत्पत्ति को अर्थात् लीलापूर्वक प्रकट होने के रहस्य को न देवता और न ही महर्षि जानते हैं क्योंकि वे ही देवताओं एवं महर्षियों के भी आदिकारण हैं। बुद्धि, तत्त्वज्ञान, चेतना, क्षमा, इन्द्रियों को वश में रखना, मन का निग्रह, सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय, भय-निर्भयता, अहिंसा, समता, संन्तोष, तप, दान, कीर्ति-अपकीर्ति आदि ऐसे अनेक प्रकार के भाव उन्हीं के कारण होते हैं। उन्हीं की संकल्पशक्ति से चौदह मनु, उसके पश्चात् सनकादि चार ऋषि और पुनः सप्तर्षिगण उत्पन्न हुए हैं और इन्हीं की संतानें इस संसार में चारों ओर फैली हुई हैं। वे वासुदेव श्रीकृष्ण ही समस्त संसार की उत्पत्ति के कारण हैं और संसार में गति एवं चेष्टायें उन्हीं के कारण हैं। और जो इन विभूतियों के योग को जान लेता है, वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है।


    एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
    सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।। गी. 10.7।।


    अर्थात् जो मेरे इस ऐश्वर्य को एवं मेरी विलक्षण शक्ति एवं अनन्त सामर्थ्य को तत्त्व से जान लेता है, वह भक्तियोग में स्थिर हो जाता है और इसमें कोई संदेह नहीं है।


    इस विस्तृत जानकारी को भली-भाँति समझकर अर्जुन कहते हैं कि हे पुरुषोत्तम! आप ही देवों के देव हैं और आप ही स्वयं को जानने एवं समझने में सक्षम हैं। अतः आप ही अपनी योगशक्ति एवं विभूति को विस्तारपूर्वक कहिये। उन विभूतियों के सम्बन्ध में बताइये जिनके द्वारा आप सम्पूर्ण लोकों को आच्छादित करके स्थित हैं। उन भावों एवं रूपों के सम्बन्ध में बताइये जो मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं।


    तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे इन दिव्य विभूतियों को अर्जुन से संक्षेप में बतायेंगे क्योंकि इनके विस्तार का अन्त नहीं है। ये विभूतियाँ दसवें अध्याय के 20 से 40 श्लोकों में वर्णित हैं। 


भगवान् कहते हैं कि वे ही एकादश रुद्रों में शंकर हैं और यक्ष तथा राक्षसों में धन के स्वामी कुबेर हैं। द्वादश आदित्यों में विष्णु, ज्योतियों में रश्मिमाल सूर्य, मरुतों का तेज और नक्षत्रों के अधिपति चन्द्रमा वे ही हैं। वे ही सामवेद हैं, देवों में इन्द्र हैं, इन्द्रियों में मन हैं और प्राणियों में चेतना हैं। 


वे ही आठ वसुओं में अग्नि और शिखरधारी पर्वतों में सुमेरु पर्वत हैं। पुरोहितों के मुख्य पुरोहित बृहस्पति वे ही हैं और सेनापतियों में कार्तिकेय तथा महर्षियों में भृगु और शब्दों में आंेकार वे ही हैं। वे ही सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और पर्वतों में स्थिर हिमालय, जलाशयों में समुद्र और वृक्षों में पीपल वृक्ष हैं। देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिल, अश्वों में अमृत सहित उत्पन्न उच्चैःश्रवा, हाथियों में ऐरावत, मनुष्यों में राजा, आयुधों में वज्र, गायों में कामधेनु, कामदेव और सर्पराज वासुकि वे ही हैं। शेषनाग, वरुणदेव, आर्यमा पितर और यमराज भी वे ही हैं। वे ही दैत्यों में प्रह्लाद, गणना हेतु समय, पशुओं में मृगेन्द्र, पक्षियों मे गरुड़, पवित्र करने वाले पवन, शस्त्रधारियों में राम, जलचरों में मगर, नदियों में गंगा हैं।


वे केशव ही हैं, जो सृष्टियों के आदि, अन्त एवं मध्य में स्थित हैं। ब्रह्मविद्या और वादात्मक स्वरूप भी वे ही हैं। वे ही अक्षरों में आकार, समासों में द्वन्द्व समास, अक्षय काल, विराट् स्वरूप और सर्वधारणकर्त्ता भी हैं। मृत्यु एवं उत्पन्न होने के उद्भव और स्त्री जाति में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा और क्षमा भी वे ही हैं। गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्मास, वैदिक छन्दों में गायत्री, छल करने वालों में जुआ, तेजस्वियों में तेज, निश्चय करने वालों में निश्चय, सात्त्विक मनुष्यों में सात्त्विक भाव, यादवों में श्राीृकष्ण, पाण्डवों में अर्जुन, मुनियों में वेदव्यास, कवियों में उशना कवि (शुक्राचार्य), बाहर महीनों में मार्गशीर्ष, छः ऋतुओं में वसन्त, दमनकर्ताओं में दण्ड शक्ति, विजय की इच्छा रखने वालों में नीति, गोपनीय भावों में मौन, ज्ञनवानों में ज्ञान आदि सभी वे ही हैं।


यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।। गी.10.39।।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तारो मया।।गी.10.40।।


अर्थात् हे अर्जुन! सभी प्राणियों की उत्पत्ति का मूल कारण अथवा बीजरूप मैं ही हूँ। चराचर जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मुझसे रहित है।
हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। अतः मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तुमसे अति संक्षेप में बताया है।


तात्पर्य यह है कि संसार में स्थूल तथा सूक्ष्म वस्तु एवं भाव दोनों का समावेश है। स्थूल एवं सूक्ष्म, वस्तु तथा भाव इन दोनों रूपों में भगवान् विराजमान हैं। भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे ही सभी प्राणियों के हृदय में आत्मा बनकर स्थित हैं और सभी प्राणियों का आदि, मध्य और अंत भी हैं।


‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व एव प्रवर्तते। (गीता, 10.8)


इसके पश्चात् भगवान् कहते हैं कि जो भी विभूतियुक्त, कान्तियुक्त एवं शक्तियुक्त है, उस वस्तु को तुम मेरे तेज के अंश की अभिव्यक्ति जानो। मानव को बहुत अधिक जानने की आवश्यकता भी नहीं है। उन्हें तो मात्र इतना जान लेना चाहिये कि ईश्वर ही सम्पूर्ण जगत् को अपनी योगशक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हैं। 


ऐश्वर्य को देखकर ऐश्वर्यवान् का स्मरण सहज हो जाता है। ऐश्वर्यवान् और कोई नहीं, बल्कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं। इस अध्याय में भगवान् ने विशिष्ट व्यक्तियों एवं वस्तुओं का विवरण प्रस्तुत किया है, जिनके दर्शन एवं स्मरण से ईश्वर की स्मृति सहज-सुलभ हो जाती है। इन विभूतियों का स्मरण भगवान् से योग कराने में सहायक है, अतः यह अति-महत्त्वपूर्ण ‘विभूतियोग’ है।


विश्वजीत ‘सपन’

Tuesday, September 30, 2014

गीता ज्ञान - 9




                                                   राजविद्याराजगुह्ययोग

‘राजविद्याराजगुह्ययोग’ गीता के नवम् अध्याय में वर्णित है। राजविद्या का अर्थ है समस्त विद्याओं का राजा अर्थात् सर्वोपरि विद्या। उसी प्रकार राजगुह्य का अर्थ है - सर्वोत्कृष्ट तथ्य, जो सर्वाधिक गोपनीय है। श्रीकृष्ण ने इसके पूर्व कहा था कि इस सम्पूर्ण जगत् के महाकारण भगवान् ही हैं, ऐसा दृढ़तापूर्वक मानना ही ‘ज्ञान’ है और भगवान् के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं है, ऐसा अनुभव ही ‘विज्ञान’ है। यह ज्ञान-विज्ञान ही राजविद्या और राजगुह्य है। इसी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हुए इस नवम् अध्याय में बताया गया है।


    इस अध्याय में भी भक्तियोग का ही विस्तार देखने को मिलता है, जहाँ न केवल भगवान् के विराट स्वरूप का वर्णन मिलता है, बल्कि भक्तिमार्ग की सुगमता का वर्णन भी बहुत सुन्दरता से मिलता है। भक्तिमार्ग राजयोग की भाँति ही एक सरल मार्ग है, जिस पर गमन सुलभ है। अतः भगवान् कहते हैं कि मानव को इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिये, ताकि वे परमसत्ता का अनुभव सरलता से कर सकें। इसी क्रम में भगवान् अपने विराट स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि क्रतु, यज्ञ, स्वधा, औषध, मन्त्र आदि, सबके जानने योग्य ओंकार एवं वेद और उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान और अविनाशी बीज सब कुछ मैं ही हूँ। मैं ही जीवन और मृत्यु हूँ और सत्-असत् भी। तात्पर्य यह कि इस जगत् में जो कुछ भी विद्यमान है, वह ईश्वर का ही अंश है। उनसे पृथक कुछ भी नहीं, किन्तु वे अंश केवल जगत् सत्य हैं, ईश्वर के समान अविनाशी नहीं। 


    मया ततमिदं सर्वं जगतव्यक्तमूर्तिना।
    मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।गी. 9.4।।
    न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
    भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।। गी. 9.5।।


    अर्थात् सम्पूर्ण जगत् मुझ निराकार रूप परमात्मा से परिपूर्ण है और सारे प्राणी मेरे सहारे सत्तावान् हैं, किन्तु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। मेरी इस योगशक्ति को देखो। सम्पूर्ण प्रणियों को उत्पन्न करने वाला और उनको धारण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। 


    इस वक्तव्य में भगवान् बहुत ही गूढ़ बात बता रहे हैं कि भगवान् वैसे तो संसार के महाकारण हैं, वे अन्तर्यामी रूप में सब में सर्वत्र व्याप्त हैं, किन्तु स्वरूप में भिन्न होने के कारण उनसे पृथक हैं। इसका सरल कारण यही है कि संसार तो परिवर्तनशील एवं नश्वर है, किन्तु भगवान् एकरूप और अनश्वर हैं। संसार के व्यक्तियों एवं वस्तुओं में एकदेशीयता है अर्थात् वे एक स्थान पर हैं और दूसरे स्थान पर नहीं, किन्तु ईश्वर सर्वव्यापक हैं। वे एक ही साथ एवं एक ही समय सर्वत्र व्याप्त हैं। इसके बाद भी अज्ञानी भगवान् को मानव-शरीरधारी समझते हैं। वे इस बात को नहीं जान पाते हैं कि यह मानव-शरीर धारण संसार के उद्धार हेतु उनका लोक-व्यवहार है। ईश्वर तो निराकार ब्रह्म हैं, वे साकार स्वरूप तो केवल किसी उद्देश्यपूर्ति हेतु ही धारण करते हैं।


    मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
    राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।। गी. 9.12।।


    तात्पर्य यह कि जो अज्ञानी ऐसा मानते हैं, वे आसुरी प्रकृति के होते हैं और उनके सारे अनुष्ठान निष्फल होते हैं। उनके सारे ज्ञान और उनकी आशायें निष्फल हैं। वे विक्षिप्तों जैसा अशान्त जीवन जीते हैं और उनकी प्रकृति राक्षसी एवं आसुरी अर्थात् मूढ़ता भरी बन जाती हैं। जबकि मेरा पूजन बहुत ही सुगम है। इसके लिये किसी विशेष उपादान की कोई आवश्यकता नहीं है। 


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तया प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।। गी. 9.26।।


जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि वाले निष्काम प्रेमी भक्त उन सभी अर्पण को मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ। अर्थात् इसके लिये आडम्बरों की कोई आवश्यकता नहीं है, बल्कि सरल एवं सच्चे हृदय से प्रेमपूर्वक पूजन की ही आवश्यकता है। सच तो यह है कि 


    समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
    ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।। गी. 9.29।।


    भगवान् तो सभी प्राणियों में व्याप्त हैं। उनका न कोई अप्रिय है और न ही प्रिय, तथापि जो भक्त उनको अनन्य भाव से प्रेमपूर्वक भजते हैं, उनमें ईश्वर का वास सहज ही होता है। यदि दुराचारी भी समर्पित भाव से मेरा भजन करता है, तो वह भी साधु मानने योग्य है क्योंकि उसे बोध हो जाता है कि प्रभु के भजन के समान और कुछ भी नहीं है। और इसलिये समर्पित भाव से भजन करने वाला पापी भी शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और अखण्ड शान्ति को प्राप्त करता है। यह तथ्य सत्य है कि ईश्वर का भजन करने वाला सच्चा भक्त कभी पतन की ओर नहीं जाता है। 


    मं हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
    स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। गी. 9.32।।


    अर्थात् हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा अन्य अधम योनिवाले चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे सभी यदि शरणागत होकर मेरा आश्रय ग्रहण करते हैं, तो वे परमगति को प्राप्त करते हैं। अतः सभी को भगवान् की शरण में जाना चाहिये और भक्ति-भाव से पूजन करना चाहिये। यही कल्याण-मार्ग कहा गया है। एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्य यहाँ वर्णित है कि भगवान् का पूजन सबके लिये है, किसी के लिये यह कदापि वर्जित नहीं है। गीता ग्रन्थ को यही तथ्य अत्यधिक महान् बना देता है, जो छुआ-छूत एवं भेदभाव को मान्यता नहीं देता है। साथ ही यह पापियों के लिये भी उद्धारक है। ऐसा कहीं नहीं कहा गया कि यदि कोई पापी है तो वह ईश्वर की शरण में नहीं जा सकता। समाज-सुधार को लेकर की गई उक्ति इस ग्रन्थ की एक अन्य विशेषता है, जो सहज ही दर्शनीय है।


    इस प्रकार इस अध्याय में ज्ञान और विज्ञान, राजविद्या, राजगुह्य एवं भगवद्भक्ति की सरलता एवं उसके लाभ को बड़ी सरलता से बताया गया है। तात्पर्य यह कि गीता में वर्णित ज्ञान-विज्ञान की मान्यता है कि समग्र दृष्टि भगवद्रूप है और निर्गुण रूप में अव्यक्त ब्रह्म ही व्यक्तरूप में सगुण वासुदेव श्रीकृष्ण हैं। इनकी उपासना बहुत सरल है एवं राजमार्ग की भाँति सुगम है, अतः राजविद्या है। गीता-ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ और गोपनीय होने के कारण ही इसे राजविद्या एवं राजगुह्य कहा गया है। राजगुह्य कहने का तात्पर्य आगे के अध्यायों में और स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। 

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विश्वजीत ‘सपन’

Wednesday, September 10, 2014

गीता ज्ञान - 8




                                                                   अक्षरब्रह्मयोग

गीता के आठवें अध्याय में ब्रह्म के निराकार स्वरूप की विशेष चर्चा की गई है, जो श्वेताश्वर उपनिषद् के तृतीय अध्याय से विशेष प्रभावित है। ‘बृहं’ धातु से व्युत्पन्न ‘ब्रह्म’ शब्द परमशक्ति के सर्वव्यापकत्व का विशेष द्योतन करता है। उधर ‘अक्षर’ का अर्थ कोष में अच्युत, स्थिर, नित्य, अविनाशी है। यह विष्णु के लिये भी प्रयुक्त है एवं ब्रह्म के विशेषण के रूप में भी।
सातवें अध्याय के अन्त में भगवान् कहते हैं कि ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ - इन छः तत्त्वों को जान लेने एवं स्मरण से भगवत् स्वरूप की प्राप्ति होती है। यही आठवें अध्याय का प्रारंभ बनता है, जो ‘अक्षर’ एवं ‘ब्रह्म’ को विस्तार से समझने में सहायक होता है। भक्ति मार्ग पर चलने के पूर्व मानव को यह ज्ञान होना आवश्यक है कि ‘अक्षर-ब्रह्म’ क्या है? इसकी विस्तृत विवेचना के कारण ही इस अध्याय का नाम ‘अक्षरब्रह्मयोग’ पड़ा है।


इस अध्याय में जाने के पूर्व यह याद करना आवश्यक है कि पिछले अध्याय में भगवान् ने बताया था कि ब्रह्म जीव-जगत्, इन सभी रूपों में ईश्वर का ही विस्तार है। वे ही सृष्टि के महाकारण हैं। अतः जो इन छः तत्त्वों के स्वरूप को समग्रता में समझकर अन्तकाल में भगवत्स्मरण करते हैं, वे ईश्वर को प्राप्त हो जाते हैं। इनके बारे में सुनकर अर्जुन को जिज्ञासा हुई। अर्जुन ने सात प्रश्न किये कि हे पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण! - (1) ब्रह्म क्या है? (2) अध्यात्म क्या है? (3) कर्म क्या है? (4) अधिभूत क्या है? (5) अधिदैव किसे कहते हैं? (6) अधियज्ञ कौन है और वह इस शरीर में कैसे रहता है? (7) तथा नियतात्मा मनुष्य के द्वारा अंतकाल में आप किस प्रकार जाने जाते हैं? उनकी इस जिज्ञासा को भगवान् शांत करते हुए कहते हैं। 


अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावो
वकरो विसर्गः कर्मसञ्चितः।।गी.8.3।।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिवैतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।गी.8.4।।


तात्पर्य यह है कि अविनाशी तत्त्व ही ‘ब्रह्म’ है, जो सर्वोपरि है। ब्रह्म का जीवात्मा रूप में प्राणियों में प्रवेश ही ‘अध्यात्म’ है, अर्थात् शरीरों की स्थिति जिसके कारण है, वह जीवात्मा ही ‘अध्यात्म’ है। एक ही ब्रह्म का अनेक प्राणियों में क्रियाशील होने का संकल्प ही कर्मों का आरंभ है। तात्पर्य यह है कि सृष्टि के आरंभ में प्राणियों की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई। तब मैं एक ही हूँ जबकि लोग नानाविध मानते हैं, इस भाव का त्याग अथवा यज्ञादि में याजकों द्वारा हव्यद्रव्यों का त्याग ही ‘कर्म’ है। उत्पत्ति और विनाशशील समस्त वस्तुयें ‘अधिभूत’ हैं। हिरण्यमय पुरुष ही ‘अधिदैव’ है और परमात्मा का अन्तर्यामी परम चैतन्य मुक्त रूप ही ‘अधियज्ञ’ है। वे यह भी कहते हैं कि इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से अधियज्ञ हूँ।


प्रथम छः प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में बताने के बाद वे सातवें प्रश्न को विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि अन्तकाल में जो-जो मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उस भाव से ही उसका पुनर्जन्म होता है। जबकि वह साधक जो ईश्वर को स्मरण करता हुआ अपने शरीर का त्याग करता है तो वह ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त करता है। इसे ही मोक्ष कहते हैं।


इसकी विधि का वर्णन करते हुए वे कहते हैं।


सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणम्।।गी. 8.12।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।गी.8.13।।


वस्तुतः यहाँ ईश्वर ने योगबल से प्राण-त्याग की बात कही है कि इन्द्रिय द्वारों को संयमित कर, मन को हृदय के स्थान में स्थिर कर, मन द्वारा प्राण को प्राणायाम की क्रियाओं के द्वारा मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थिर होना चाहिए। अर्थ यह कि इन्द्रियों से कोई भी चेष्टा न करना, उसके बाद परमात्मा में ध्यान स्थिर करना ही योगधारणा है। उसके पश्चात् एक अक्षर ‘ॐ’ का जाप करते हुए एवं ईश्वर को स्मरण करते हुए जो शरीर का त्याग करता है, वही परमगति को प्राप्त करता है। किन्तु यह सरल नहीं है। एक सामान्य व्यक्ति योगबल से अपरिचित होता है और उसकी साधना उसके लिये दुष्कर है। अतः वे आगे कहते हैं कि यह नहीं तो जो कोई भी एकनिष्ठ भाव से ईश्वर का निरन्तर स्मरण करता है, उसे भी ईश्वर स्वरूप की प्राप्ति होती है।


अन्यथा पुनर्जन्म अवश्यंभावी है। इस हेतु दो मार्गों के वर्णन किये गये हैं कि ये शुक्ल और कृष्ण मार्ग हैं अर्थात् देवयान एवं पित्रयान। शुक्लमार्ग से गया हुआ निष्काम कर्मयोगी पुनः लौटकर नहीं आता, जबकि कृष्णमार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी पुनर्जन्म हेतु वापस लौटकर आता है। इसका कारण यह है कि ब्रह्मलोक सहित जितने भी लोक हैं, वे सभी पुनरावर्ती हैं। तात्पर्य यह कि उन लोकों की कामना करने पर एवं उन्हें पाकर निश्चित समय के पश्चात् उन सभी को पुनः संसार में आना ही पड़ता है। केवल वही पुनः नहीं आता, जो अविनाशी ब्रह्म को प्राप्त करता है अथवा जो उसमें लीन हो जाता है। इसी क्रम में भगवान् सृष्टि की उत्पत्ति एवं प्रलय के संदर्भ में बताते हैं कि इस संसार में चार युग हैं - सत्ययुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग। इन्हें चतुर्युग कहते हैं। मर्त्यलोग की एक हजार चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन होता है और उतने ही काल की रात्रि भी होती है। ऐसे सौ वर्षों के पश्चात् ब्रह्मा जी परम ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं। तब सृष्टि में महाप्रलय होता है, जो उनके सौ वर्षों की आयु तक रहता है। जब ब्रह्मा जी सूक्ष्म शरीर से पुनः उत्पन्न होते हैं, तब सृष्टि का आरम्भ होता है। यह क्रम चलता रहता है।


परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।गी.8.20।।


यह जान लेना चाहिये कि इस अव्यक्त अथवा ब्रह्मा अथवा मूल प्रकृति से भी परे दूसरा विलक्षण और सनातन अव्यक्त रूप होता है, जो है निराकार ब्रह्म। इस निराकार स्वरूप का कभी नाश नहीं होता है। वही स्वरूप परब्रह्म परमेश्वर है, जिसमें भक्ति रखने वाला परमधाम को प्राप्त करता है।


मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।गी.8.15।।


अर्थात् इस प्रकार परम सिद्धि को प्राप्त महात्मा लोग मुझको प्राप्त होकर दुःखालय एवं क्षणभंगुर जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और परमगति को प्राप्त करते हैं।


इन सभी प्रकार के सत्य को जानने वाले ही काल-तत्त्वविद् कहलाते हैं। अतः हे अर्जुन! तुम भी इन सभी प्रकार के सत्य को जानो और केवल मुझमें अपना ध्यान करो। यही जीवन में वास्तविक मोक्षमार्ग है। ईश्वर भक्ति ही परम है। इस बात को इस अध्याय में बड़ी सुन्दरता से स्थापित किया गया है। साथ ही निराकार ब्रह्म की स्थापना की गई है, तो परम सत्ता है, जिसका कभी भी, किसी भी अवस्था में विनाश संभव नहीं है। और वे परम सत्ता और कोई नहीं बल्कि पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। उनका स्मरण करने वाला जगत् में पुनर्जन्म के बंधन से हमेशा के लिये मुक्त होकर परमतत्त्व में हमेशा के लिये विलीन हो जाता है। यही मोक्ष है।

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विश्वजीत ‘सपन’

Wednesday, August 20, 2014

गीता ज्ञान - 7



                               ज्ञान-विज्ञानयोग


छठे अध्याय में अंतिम श्लोक में भगवान् कहते हैं कि जो श्रद्धावान् भक्त हैं और तल्लीन होकर भगवान् के भजन करते हैं, वे ही ईश्वर के मत में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं। हम इसे सातवें अध्याय की पूर्वपीठिका के रूप में देख सकते हैं कि भगवान् ने भक्तियोग का संकेत दे दिया है। इस सातवें अध्याय का नाम ज्ञान-विज्ञानयोग है, जिसमें ज्ञान एवं विज्ञान की आध्यात्मिक व्याख्या की गयी है। 

    इस अध्याय में प्रवेश से पूर्व इस बात को समझना बहुत आवश्यक है कि एक सांसारिक मनुष्य में अहंता एवं ममता के भाव रहते हैं, जबकि समता का अभाव रहता है। ‘मैं’ अंहता भाव एवं ‘मेरा’ ममता भाव है। यही ‘मैं’ और ‘मेरा’ माया है। जन्म-मरण, दुःख-सुख, हानि-लाभ, राग-द्वेष, मान-अपमान आदि द्वन्द्व मानव के जीवन में स्वाभाविक हैं। उनसे प्रभावित होकर मानव माया के बंधन में पड़ जाता है। इन सभी में समदृष्टि रखना ही ‘समता’ है। अहंता एवं ममता के भावों को मिटाने एवं समता के भाव को लाने के लिये ही गीता में ज्ञान, कर्म एवं भक्ति ये तीन मार्ग प्रतिपादित किये गये हैं। ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के प्रतिपादन के बाद भगवान् भक्तियोग का प्रतिपादन कर रहे हैं, जिसका प्रारंभ इस अध्याय में हुआ है।


    ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
    यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातमव्यमवशिष्यते।।गी.7.2।।


    अर्थात् मैं तुम्हारे निमित्त विज्ञान सहित सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान को बताऊँगा, जिसे जानकर संसार में और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। 


    यह संदर्भ सुन्दर एवं विस्तृत प्रकार से इस अध्याय में वर्णित है। भगवान् कहते हैं कि भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि एवं अहंकार ये आठ प्रकार की जड़ प्रकृति हैं, जिसे ‘अपरा’ प्रकृति कहा गया है। दूसरी प्रकृति चेतन प्रकृति है, जिसे ‘परा’ प्रकृति कहा गया है। इन दोनों ही प्रकृतियों के संयोग से सम्पूर्ण प्राणि जगत् उत्पन्न हुआ है। इनकी उत्पत्ति एवं प्रलय का मूल कारण ईश्वर ही है। पंचमहाभूतों अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथवी की उत्पत्ति पाँच तन्मात्राओं से होती है, जो हैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध। ये पंचमहाभूत उत्पन्न होकर पुनः उन्हीं में विलीन हो जाते हैं और यही सृष्टि एवं प्रलय का रहस्य है।


    भगवान् कहते हैं कि भावनाएँ सत्त्वगुण, राजोगुण एवं तमोगुण से समय-समय पर प्रभावित होती रहती हैं। इन्हीं गुणों से मोहित होकर मनुष्य त्रिगुणातीत परमात्मा को नहीं जान पाता है और जीवन में कष्ट पाता है। अतः भगवान् कहते हैंः


    दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
    मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।गी.7.14।।


    अर्थात् त्रिगुणमयी यह मेरी माया अपार एवं अद्भुत है। जो इस संसार को ही सत्य मानकर चलते हैं, इसका पार नहीं पाते हैं, किन्तु जो त्रिगुणातीत मुझ परमात्मा की उपासना करते हैं, वे इस माया का पार पा जाते हैं और उनका उद्धार होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा में ध्यान करने वाला और उसे ही सत्य मानने वाला मुक्त होता है और माया के बंधन से कष्ट नहीं पाता है। इसी क्रम में भगवान् भक्तों के प्रकार बताते हुए कहते हैं।


    चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जन।
    आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। गी.7.16।।


    अर्थात् भरतवंशियों में हे श्रेष्ठ अर्जुन! मेरे पुण्यात्मा भक्तों के चार प्रकार हैं - (1) अर्थार्थी - जो सांसारिक सुख-साधनों को प्राप्त करने के लिये मेरे भक्त बनते हैं। (2) आर्त्त - जो संकट निवारण के लिये मेरे भक्त बने हैं। (3) जिज्ञासु - जो मेरे रहस्य एवं मेरी रचना सृष्टि के बोध की जिज्ञासा रखते हैं। (4) ज्ञानी - जो ऐसा मानते हैं कि ईश्वर ही मूल कारण हैं, वे ही सत्य हैं, वे ही एकमात्र ध्येय एवं उपास्य हैं और ऐसा मानकर वे निःस्वार्थ भाव से मेरी उपासना करते हैं। ये ज्ञानी भक्त ही मेरे प्रिय हैं और मैं उनका प्रिय हूँ। वस्तुतः ऐसा ज्ञानी भक्त मेरा ही स्वरूप है। 


    यहीं पर एकदेववाद की स्थापना करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं।


    यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
    तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।गी.7.21।।


    अर्थात् जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धापूर्वक पूजना चाहते हैं, उन-उन सकाम भक्तों की श्रद्धा को मैं उस देवता के प्रति स्थिर करता हूँ। कहने का तत्पर्य यह है कि सभी देवता एक समान हैं और किसी भी देवता की उपासना से उसे वही फल प्राप्त होता है, जो सत्य है। यह एक महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन है, जो एकेश्वरवाद को पूर्णतः स्थापित करता है। इसी के क्रम में वे कह उठते हैं।


    स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
    लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्।।गी.7.22।।


    अर्थात् मेरे द्वारा श्रद्धा से युक्त वह पुरुष जिस देवविशेष की पूजा करता है, वह उस देवता से इच्छित फल पाता है, किन्तु फल-विधान करने वाला कोई दूसरा नहीं है, बल्कि वह मैं ही हूँ। देव भी मेरे द्वारा प्रदत्त वस्तु ही भक्त को देते हैं क्योंकि सबका स्रष्टा मैं ही हूँ। कहने का तात्पर्य यही है कि सभी एक ही हैं और ईश्वर एक ही है। उन्हें केवल अनेक रूपों में पूजा जाता है।


    आगे भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जरा और मृत्यु से छुटकारा पाने के लिये जो भक्त मेरा आश्रय लेकर साधना द्वारा संसारचक्र से मोक्ष पाने के लिये प्रयत्नशील होते हैं, वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण आध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जान लेते हैं। तब वे तत्त्ववेत्ता ज्ञानी मुझे जान लेते हैं और मुझे प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार भक्ति को इस अध्याय में सर्वश्रेष्ठ मार्ग के रूप में दर्शाया गया है, जो निश्चित रूप से सर्वकल्याणकारी है।


    इस प्रकार ज्ञान-विज्ञानयोग के इस अध्याय में कहा गया है कि इस सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति के मूल कारण ईश्वर ही हैं और इसका दृढ़ विश्वास ही ‘ज्ञान’ है। ईश्वर सर्वव्यापी हैं, वे कण-कण में विद्यमान हैं, वे ही अपरा एवं परा प्रकृति हैं, इस जगत् की उत्पत्ति के निमित्त एवं उपादान दोनों के ही कारण हैं - इस बात को मान लेना ही ‘विज्ञान’ है। इसे सरलीकरण करके देखें तो हम कह सकते हैं कि अपने शरीर और उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों और वस्तुओं को प्रकृति मान लेना ‘ज्ञानयोग’ है। संसार को मान लेना और उसके अनुसार कर्म करना ही ‘कर्मयोग’ है और ईश्वर की परमसत्ता में दृढ़ विश्वास ही ‘भक्तियोग’ है।

विश्वजीत ‘सपन’

Wednesday, May 21, 2014

गीता ज्ञान - 4


ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

            गीता के चतुर्थ अध्याय में ज्ञानकर्मसंन्यासयोगका वर्णन है। यहाँ ज्ञानशब्द विवेक का बोधक है और कर्म एवं संन्यास के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैए अर्थात् कर्म एवं संन्यासका सम्यक् ज्ञान ही ज्ञानकर्मसंन्यासयोगहै। यहाँ विवेक का अर्थ कर्म के औचित्य एवं अनौचित्य का सूक्ष्म विवेचन और उसका बोध है। यह अध्याय अपने आप में कोई पूर्ण दर्शन न होकर तृतीय अध्याय के परिशिष्ट के रूप में है और पंचम अध्याय की पूर्वपीठिका के रूप में भी। इसे तृतीय अध्याय का ही विस्तार कहें तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी। कारण कि प्रारंभ में कर्म में निष्कर्मता थी और संन्यास के लिए कर्म-त्याग की कोई आवश्यकता नहीं थी, किन्तु समय के साथ जब यज्ञादि कर्मों में सकामता का प्रवेश हुआ तो कर्म को दोषयुक्त माना गया। तब कर्म-त्याग की अवधारणा विकसित हुई और सांख्य अथवा ज्ञान-मार्ग की स्थापना हुई, जिसके परिणामस्वरूप कर्म मार्ग एवं ज्ञान मार्ग दो भिन्न मार्ग स्थापित हो गए। तृतीय अध्याय में जिस कर्मयोग की स्थापना हुई उसी बात को गीताकार ने आगे बढ़ाया और कहा कि कर्म का ज्ञान कैसे हो? वे कौन से कर्म हैं जो उचित हैं? वर्ण क्या हैं, कौन से यज्ञ क्या फल देते हैं, हमें कैसे कर्म करने चाहिए? ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर इस अध्याय के माध्यम से दिए गए हैं। वस्तुतः देखा जाए तो इस अध्याय में कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण बातों पर विमर्श हुए हैं, जो जीवन-क्रम में सफल एवं मंगल हेतु आवश्यक हैं।
            चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। गी.4.13।।
            अर्थात् मैंने ही गुण एवं कर्मों को आधार बनाकर चार वर्णों की रचना की है। इसे कुछ इस प्रकार से समझा जा सकता है कि मनुष्य की चार प्रकृतियाँ होती हैं, जो केवल मानवमात्र में ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों में भी पाई जाती हैं। ये प्रकृतियाँ तीन गुणों पर आधारित हैं - सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण। सत्त्वगुण की प्रधानता से ब्राह्मण की, रजोगुण की प्रधानता एवं सत्त्वगुण की गौणता से से क्षत्रिय की, रजोगुण की प्रधानता एवं तमोगुण की गौणता से वैश्य की तथा तमोगुण की प्रधानता से शूद्र की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार गोवंश ब्राह्मण-प्रकृतिक, शेर, चीता आदि क्षत्रिय-प्रकृतिक, हाथी, ऊँट आदि वैश्य-प्रकृतिक एवं शूकर आदि शूद्र-प्रकृतिक हैं। हंस, कबूतर आदि ब्राह्मण-प्रकृतिक, बाज आदि क्षत्रिय-प्रकृतिक, चील आदि वैश्य-प्रकृतिक तथा कौवा आदि शूद्र-प्रकृतिक हैं। इतना ही नहीं बल्कि शरीर में सिर ब्राह्मण, हाथ क्षत्रिय, उदर वैश्य एवं पैर शूद्र प्रकृतिक हैं। वस्तुतः यह सारी सृष्टि ही त्रिगुण आधारित है और तदनुसार ही व्यवहार भी करती है। यह सार्वभौमिक व्यवस्था कर्म पर आधारित है। इसे आज जाति आधरित मानकर अनुचित कहा जाता है, किन्तु जो सार्वभौम सत्य और तथ्य है कि ये वस्तुतः मानवीय प्रकृतियाँ हैं और कोई भी मानव अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करता है अथवा उसकी रुचि उन्हीं कर्मों में होती है।
            श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म की महत्ता और उसके प्रकार को बहुत विस्तार से समझाते हुए कहा है कि यह ज्ञान नया नहीं है क्योंकि इसे उन्होंने बहुत पहले ही सूर्य को बताया था और सूर्य ने मनु को बताया। उसके बाद मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था। यहीं पर वे कर्म, अकर्म और विकर्म की परिभाषा देते हुए सरलता से अपनी बात को स्पष्ट करते हैं। सभी प्रकार के दैनिक कार्य और कर्तव्य कर्म हैं, इनमें सकाम भावना रहती है, अतः यह कर्म का सामान्य रूप है। जब हम वही कर्म हम कर्तव्य समझ कर निर्लिप्त भाव से लोकहित में करते हैं तो वह कर्म अकर्म बन जाता है, जो आदर्श कर्म माना जाता है। तीसरी स्थिति विकर्म की होती है, जो ईर्ष्या-द्वेष, परपीड़न या संकुचित स्वार्थ के लिए किए जाते हैं। ये वस्तुतः निषिद्ध माने जाते हैं और पाप की श्रेणी में आते हैं। अकर्म करने वाला कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है। अतः मानव को ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वों से दूर और सफलता-असफलता में सम मनःस्थिति वाला होना चाहिए। ऐसे मनुष्य को कर्म-बन्धन कभी प्रताड़ित नहीं करता है।
            इसी अध्याय में ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, ज्ञानयज्ञ, द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याय ज्ञानयज्ञ आदि बारह प्रकार के यज्ञों के वर्णन किए गए हैं। ये सभी यज्ञकर्म ही अपेक्षित हैं। इन्हें करने वाला अकर्म कर्म करता है और पाप-कर्मों से मुक्त हो जाता है। यह तथ्य बहुत सुन्दरता से इस श्लोक में बताया गया है।
            यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
            ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। गी.4.37।।
            अर्थात् हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को पूर्णतः भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि सम्पूर्ण पाप-कर्मों को पूर्णतः भस्म कर देती है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान प्राप्त करने वाला सभी प्रकार के पाप-कर्म से हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है। ज्ञान चाहे जब भी प्राप्त हो, यह स्थिति बनी रहती है। अतः मनुष्य को सम्यक ज्ञान की ओर प्रवृत्त होना चाहिए और अकर्म करना चाहिए।
            इसी क्रम में वे कहते हैं -
            यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
            अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। गी.4.7।।
            परित्ऱाणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
            धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवानि युगे युगे।। गी.4.8।।
         अर्थात् हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब सज्जन पुरुषों के उद्धार के लिए, पापियों के विनाश करने के लिए एवं धर्म की स्थापना के लिए मैं वैसे सभी युगों में प्रकट होता हूँ। ईश्वर इस बात का संकेत देते हैं कि उनका आगमन प्रत्येक उस युग में होता रहेगा, किसी न किसी रूप में, जब-जब मानवता पर संकट आएगा।
            अतः हम सभी को आसक्ति के भाव का त्याग करना चाहिए एवं अपने कर्म इस प्रकार करने चाहिए कि वे अकर्म बन जाएँ। वे स्वयं कहते हैं कि मैंने भी सृष्टि की रचना की किन्तु वह मेरा अकर्म ही है क्योंकि उसके लिए मेरी कोई सकामता नहीं है। और इसलिए हे अर्जुन! तुम हृदय में स्थित इस अज्ञान जनित संशय को तत्त्वज्ञान रूपी तलवार से काट डालो और अपने कर्म करो क्योंकि विवेकहीन एवं संशय रखने व्यक्ति का पतन निश्चित है।

विश्वजीत 'सपन'

Friday, April 18, 2014

गीता ज्ञान - 3




कर्मयोग
            गीता को पढ़ते समय इस बात का अनुभव किया जा सकता है कि गीता के द्वितीय अध्याय का प्रारंभिक भाग वेदान्त दर्शन से प्रभावित है। उस कालखण्ड में सांख्य को ही सर्वोच्च दर्शन माना गया था, जिसमें ज्ञान की महत्ता को उचित और मोक्ष का कारण माना गया था तथा कर्म त्याग को प्रश्रय दिया गया था। हमें इस बात को समझना होगा कि महाभारत काल में सांख्ययोग एवं कर्मयोग की साधनाएँ बहुलता से प्रचलित थीं और वे विपरीत दिशा में गमनशील थीं। स्थितियाँ इतनी विकट थीं कि संन्यासी कर्म नहीं करता था और गृहस्थ संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता था। जबकि यह भी सत्य है कि भारतीय दर्शन में कभी भी कर्म की महत्ता को कम नहीं किया गया था। यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ (यजु. 1.1) अर्थात् प्रत्येक शुभकर्म यज्ञ है, यह वैदिक काल से ही मान्यता रही थी। किन्तु समय के साथ समाज में परिवर्तन नियम है और एक विचार को अधिक प्रश्रय देना भी स्वाभाविक है। ऐसे में जब समाज दो धड़ों में बँट गया तो एक सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक हो गया था और इसी पृष्ठभूमि में कर्म की महत्ता को स्थापित करना गीता का उद्देश्य था। वह कर्म कैसा हो? क्यों हो? यही विस्तार तृतीय अध्याय में मिलता है। अतः अर्जुन की दुविधा मात्र उसकी नहीं है बल्कि समस्त समाज की है और इसलिए जब कर्म-त्याग को प्रश्रय दिया गया और पुनः कर्म करने को कहा गया जो परस्पर विरोधी बातें थीं तो अर्जुन का भ्रमित होना अपेक्षित था।
                    ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
          तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।गी.3.1।।
          अर्थात् हे जनार्दन, यदि कर्म की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है तो हे केशव, मुझे आप युद्ध जैसे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?
          अर्जुन का कहना उचित था और प्रश्न भी उचित था कि जब इस संसार में ज्ञान की ही महत्ता है और उसे श्रेष्ठ माना गया है तो फिर युद्धकर्म को किस प्रकार उचित माना जाए। इसमें तो मानव-हत्या का भी दोष है। ऐसे कर्म करने को कहना क्या उचित है? अर्जुन का कथन इसलिए भी उचित प्रतीत होता है क्योंकि जब केवल ज्ञान से ही भ्रम दूर होगा और किसी का कल्याण संभव होगा तो कर्म करने की क्या आवश्यकता है? जब श्रीकृष्ण ने दूसरे अध्याय में पहले ज्ञानयोग और उसके पश्चात् कर्मयोग की बातें कीं तो अर्जुन का इस तरह भ्रमित होना एक सामान्य स्थिति थी और यह वह स्थिति थी जहाँ से कर्म और ज्ञान के समन्वय की स्थापना का बीज बोना था। अतः श्रीकृष्ण ने अर्जुन की भ्रांति का निवारण करते हुए बताया कि कर्मत्याग के निर्देश नहीं हैं बल्कि दोनों ही योगों में कर्म आवश्यक हैं।
                    न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
          न च संन्सनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।गी.3.4।।
          अर्थात् मनुष्य न तो कर्मों को करना बंद करके निष्कामता को प्राप्त कर सकता है और न ही कर्मों के त्यागमात्र से ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है।
          कर्म तो प्राकृतिक हैं और उन्हें करना ही होता है और साथ ही गीता में स्पष्ट कहा गया है कि कर्म तो स्रष्टा का प्रथम आदेश है। इसलिए गीता में कर्म को यज्ञ कहा गया है और यज्ञकर्म करने के बाद अन्न ग्रहण करने वाले को पुण्यात्मा कहा गया है। वस्तुतः यज्ञकर्म में ही ब्रह्म नित्य स्थित है - "तस्मात् ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्" (गी.3.15)। यह इसलिए भी कि कर्म प्रणिमात्र का धर्म है और उसे चाहिए कि वह अच्छे कर्म करके एक आदर्श प्रस्तुत करे ताकि लोग उनका अनुसरण कर सकें - "यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः" (गी.3.21)। यह भी एक सत्य है कि जैसे कर्म बड़े लोग करते हैं, छोटे भी उसी का अनुसरण करते हैं और इसलिए ईश्वर जो सबसे बड़े हैं, उन्हें सबसे अधिक सावधान होकर कर्म करना पड़ता है। किन्तु वे कर्म कैसे हों? इस पर भी विचार गीता के इस अध्याय में विस्तार से किया गया है।
                    यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
          तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचार।।गी.3.9।।
          अर्थात् यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अलावा यदि कोई अन्य कर्म करता है तो वह कर्म-बंधन में बँधता है, अतः हे कुन्तीनन्दन! तुम यज्ञ में करणीय कर्म को अनासक्त होकर करो।
          कर्तव्य पालन के कर्म का अर्थ है सभी प्रकार के कार्य अर्थात् खेती-बाड़ी, व्यापार, नौकरी आदि मनुष्य के कर्तव्य-पालन रूपी कर्म हैं। गृहस्थ कर्म तो मानवमात्र का सबसे का धर्म है। ऐसे कर्मों से ही जीवन का निर्धारण होता है, जिसका त्याग ईश्वरीय इच्छा का सम्मान नहीं हो सकता है। केवल इस बात का ध्यान रखना होगा कि मनुष्य को अपने मन से इन्द्रियों पर नियंत्रण करके आसक्ति रहित होकर संयमपूर्वक निष्काम भाव से निर्धारित कर्म करना होगा और जो ऐसे कर्म करेगा, वही श्रेष्ठ मनुष्य है। और इसलिए हे अर्जुन, तुम कर्तव्य के निमित्त किए जाने वाले कर्मों को अनासक्त होकर करो। तुम्हारा कर्म क्षत्रिय धर्म है और जब पाप का विनाश करना हो तो पाप के विरुद्ध युद्ध करना तुम्हारा यज्ञकर्म ही है।
          इस प्रकार श्रीकृष्ण कर्म की महत्ता को समझाते हुए यह कहते हैं कि कर्म-विषयक हमारा दृष्टिकोण शुद्ध होना चाहिए। कर्म में स्वधर्म भी आवश्यक है। मानव को कामरूप शत्रु को अपनी बुद्धि मन एवं इन्द्रियों को संयमित करके नष्ट कर देना चाहिए। तभी निष्काम कर्म संभव है। वस्तुतः शरीर, इन्द्रिय आदि सभी प्रकृति के द्वारा निर्मित हैं किन्तु आत्मा उनसे पृथक है और जब इस तथ्य को समझ कर कोई स्वकर्म करते हुए निर्लिप्त रहते हुए अहंता-ममता से मुक्त रहते हैं तो वे ज्ञानी कहलाते हैं।
विश्वजीत सपन