Tuesday, June 12, 2012

कुरुवंश की स्थापना (कथा 4)


गंधर्वराज चित्ररथ महापराक्रमी अर्जुन से पराजित हो गए। तब उन्होंने अर्जुन को तपतीनंदन कहकर संबोधित किया। अर्जुन ने उनसे पूछा कि वे तो कुन्ती के पुत्र हैं, फिर तपतीनंदन कैसे हुए। इस पर गंधर्वराज ने सूर्यपुत्री तपती की कथा सुनाई।


महाभारत, आदिपर्व

 

महाभारत में कुरुवंश का बहुत नाम है। अर्जुन के पूछने पर गंधर्वराज ने कुरुवंश की उत्पत्ति की कथा कुछ इस प्रकार सुनाई।



सूर्य भगवान् की पुत्री का नाम तपती था। वह सावित्री की छोटी बहन थी। अपने पिता के समान तेज वाली और बहुत ही सुन्दर थी। उसकी इतनी सुन्दर थी कि उसकी सुंदरता से पाताल, पृथ्वी और स्वर्ग तीनों ही लोकों की स्त्रियाँ जलती थीं। वह मात्र सुन्दर ही नहीं थी, बल्कि नित्य-नियम से पूजा-पाठ भी करती थी। वस्तुत: अपनी तपस्या के कारण ही वह तीनों लोकों में ‘तपती’ के नाम से प्रसिद्ध थी। जब वह शादी करने के योग्य हुई तो उसके पिता सूर्य को इसकी चिंता सताने लगी। वे उसके लिए कोई योग्य वर की तलाश में थे। पुत्री के गुण एवं सुन्दरता के अनुकूल योग्य वर ढूँढना ही पिता की सबसे बड़ी चिंता होती है।

दैवयोग से उस समय पूरी धरती पर पुरुवंश का राज्य था और उसी समय इसी वंश के बड़े ही प्रतापी राजा संवरण का नाम समस्त धरा पर जगमगा रहा था। सौभाग्य से वे सूर्य के सच्चे भक्त थे। प्रतिदिन सूर्यदेव की वंदना बड़ी ही भक्ति-भाव से किया करते थे। सूर्यदेव भी उसकी पूजा से प्रसन्न थे। वे संवरण को अपनी बेटी के लिए योग्य वर भी मानते थे।
 
एक दिन की बात है। संवरण शिकार खेलने वन में निकले। उस दिन कोई अच्छा शिकार नहीं मिल पा रहा था। इसलिए वे आगे बढ़ते गए और पहाड़ की तराइयों में जा पहुँचे। उनकी पूरी सेना पीछे छूट गई। फिर भी वे आगे बढ़ते ही रहे। भूख और प्यास से तड़पकर उनका घोड़ा मर गया। तब वे पैदल ही चलने लगे। काफी देर चलते-चलते थक गए। एक पेड़ के नीचे आराम करने लगे। चारों तरफ बड़े-बड़े विशालकाय पेड़ थे। पहाड़ियों से घिरा वह निर्जन प्रदेश भयावह लग रहा था। तभी उनकी दृष्टि अद्वितीय सुन्दरी तपती पर पड़ी। उस सुनसान जंगल में इतनी रूपमती कन्या को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। इस वीराने में यह कौन हो सकती है? उन्होंने जानना चाहा और वे चुपके से उसके पास चले गए तो उसकी सुन्दरता को देखकर हैरान रह गए। अपनी थकान भी भूल गए। कुछ देर निहारने के बाद उन्होंने आवाज़ देकर कहा - ‘हे सुन्दरि ! तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है और तुम इस निर्जन वन में क्या कर रही हो?’

तपती राजा की आवाज़ सुनकर चौंकी। उसे वहाँ किसी के होने का अंदेशा नहीं था। उसने मुड़कर संवरण को देखा। कामदेव की तरह सुन्दर संवरण थके-थके से जान पड़ रहे थे। क्षण भर के लिए वह स्तब्ध रह गई और उन्हें देखती ही रह गई। फिर अचानक ही बिना कुछ बोले उड़कर बादलों में गुम हो गई।

पहली बार देखते ही वह संवरण के मन को भा गई थी। उसके इस तरह अचानक गुम हो जाने से राजा को बहुत दु:ख पहुँचा। वे उसे ढूँढने लगे। इधर-उधर हर तरफ उसे पुकारने लगे। किन्तु वह नहीं मिली। कुछ देर बाद निराशा, थकान और भूख-प्यास के कारण वे बहोश होकर गिर पड़े।

तपती बादलों की ओट से उन्हें ही देख रही थी। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई यहाँ तक कैसे पहुँच सकता था। उसने मन ही मन विचार किया कि अवश्य ही दैवयोग के कारण ऐसा हुआ होगा। वह भी राजा को पसंद करने लगी थी, किन्तु वह नहीं जानती थी कि वे कौन थे, और इसी कारण से छुप गई थी। फिर जब उसने राजा को बेहोश होते देखा तो उसके पास आकर बोली - ‘उठिये राजन् उठिये। जंगल में इस प्रकार अकेले रहना ठीक नहीं।’

उसकी मीठी वाणी ने जैसे औषधि का काम किया और राजा उठ गए। उन्होंने फिर पूछा - ‘हे सुन्दरि ! तुम कौन हो और इस जंगल में क्या कर रही हो?’

तपती ने कहा - ‘मैं तपती हूँ। मेरे पिता सूर्यदेव हैं। मैं यहाँ अक्सर घूमने आती हूँ। लेकिन आप यहाँ कैसे?’

संवरण ने अपने शिकार वाली सारी बातें बता कर कहा - ‘सुन्दरि ! तुम्हें देखने के बाद मेरी थकान दूर हो गई है। अब मैं कोसों चल सकता हूँ। क्या तुम मेरा साथ दोगी?’

‘मैं आपका मतलब नहीं समझी !’ तपती ने पूछा।

‘मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ। तुम इंकार मत करना।’ राजा ने स्पष्ट किया।

तपती बोली - ‘राजन् ! मेरे पिता जीवित हैं। इसलिए यह निर्णय लेने के लिए मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। यदि आप सचमुच ही मुझसे प्रेम करते हैं तो आप मेरे पिता से कहिए। वे ही इस सम्बन्ध में निर्णय लेने के अधिकारी हैं।’
यह कहकर तपती उड़कर आकाशमार्ग से बादलों में जाकर गुम गई।

राजा संवरण बहुत दु:खी हुए। लेकिन वे अपनी कामना पर अटल रहे। इस बीच उन्हें ढूँढते हुए उनकी सेना भी वहीं आ पहुँची। लेकिन राजा संवरण ने जाने से इंकार कर दिया। वे अब किसी भी कीमत पर तपती से विवाह करने को उत्सुक थे। इसलिए उसी स्थान पर खड़े होकर सूर्यदेव की पूजा करने लगे और मन ही मन उन्होंने अपने पुरोहित महर्षि वशिष्ठ का ध्यान किया। इस प्रकार तपस्या करते हुए बारह दिन बीत गए। बारहवें दिन उनकी इस कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर वशिष्ठ उनके पास आए। राजा संवरण को उस अवस्था में देखकर क्षण भर में उनके मन का हाल जान गए। फिर भी राजा ने अपने मन की बात कही तो बोले - ‘चिंता न करो पुत्र। मैं अभी जाकर सूर्यदेव से इस बारे में बात करता हूँ।’

यह कहकर वशिष्ठ सूर्य भगवान् से मिलने गए। सूर्यदेव ने महर्षि का स्वागत किया और आने का कारण पूछा तब उन्होंने सूर्यदेव को अपना परिचय देकर संवरण के मन का हाल और उनकी इच्छा के बारे में बताया। सूर्यदेव को लगा जैसे उन्होंने उनके मुँह की बात छीन ली थी। वे तो पहले से ही संवरण को तपती के लिए योग्य वर मान चुके थे। उन्होंने तुरन्त यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

वशिष्ठ उसी समय तपती को लेकर संवरण के पास आ गए। बड़ी धूमधाम के साथ उनका विवाह हुआ। कुछ वर्षों के बाद उनके एक पुत्र हुआ। उसका नाम था कुरु। इसी राजा कुरु के नाम से ही प्रसिद्ध कुरुवंश की स्थापना हुई।

विश्वजीत 'सपन'