Saturday, January 31, 2015

गीता ज्ञान - अध्याय 12

                                               अथ द्वादशोऽध्यायः
 



गीता के सातवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक भक्त, भक्ति, आराधना, आराधक, उपासना आदि विषयों पर व्यापक विचार हुआ है। बारहवें अध्याय में साकार एवं निराकार उपासना के प्रकार एवं निराकार ब्रह्म के स्वरूप के साथ-साथ ईश्वर प्राप्ति के उपाय और भक्त के लक्षण को महत्ता दी गयी है। इस अध्याय में यह भी बताया गया है कि साकार उपासना किस प्रकार सहज और सुलभ है।

गीताकार ने अर्जुन के प्रश्न द्वारा सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के उपासकों की जिज्ञासा रखी है कि एक ओर कुछ ऐसे लोग हैं, जो ईश्वर के अनन्य प्रेमी हैं। वे निरन्तर ध्यान करके प्रभु के साकार स्वरूप की उपासना करते हैं, जबकि दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं, जो अव्यक्त और निराकार स्वरूप की उपासना करते हैं। ऐसा क्यों है और इनमें श्रेष्ठ कौन हैं?


इस स्वाभाविक प्रश्न का उत्तर भगवान् इस प्रकार देते हैं -
 

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।गी.12.2।।


अर्थात् मुझमें ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करके, परम श्रद्धा से युक्त होकर, मेरे सगुण रूप की जो उपासना करते हैं, मेरे मत से वे ही अधिक उत्तम हैं।


विचारणीय है कि सगुण उपासना सहज एवं सरल है। सकारोपासना की सहजता इस तथ्य पर निर्भर है कि मनुष्य की प्रवृत्ति में आसक्ति का भाव सहज है। जीवन-क्रम में इसी आसक्ति से सांसारिक बंधन में वह बँधा रहता है और यही आसक्ति उसे इष्ट की ओर सहजता से मोड़ देती है, क्योंकि साकार भक्ति में वात्सल्य, सख्य, कान्ता, दास्य आदि भाव हमेशा ही उपस्थित रहते हैं। निराकार उपासना में वैराग्य की परमावश्यकता होती है, जबकि साकार उपासना अपने कर्म के साथ, अपने कर्तव्य के साथ एक आम जीवन में जीकर भी संभव है। ईश्वर निराकार उपासना में भी मिलते हैं, किन्तु कठिन मार्ग का अनुसरण आम व्यक्ति के लिये कठिनाइयों के आमंत्रण ही कहे जायेंगे। निराकारोपासना में चंचल मन को आसक्ति-रहित करना अति आवश्यक हो जाता है, जो एक आसक्ति भरे चित्त वाले व्यक्ति के लिये संभव करना आसान नहीं होता है। अत्यधिक तप आदि से और सांसारिक माया-मोहों के त्याग करना सहज ही दुष्कर कार्य है। इसमें आलम्बन के सूक्ष्म होने से साधक को मन-इन्द्रियों को टिकाने का आधार मिलना कठिन होता है। सगुण उपासक अपनी भावना के अनुसार ईश्वर से जुड़ जाते हैं, अपने अनुसार उनके स्वरूप को अपना लेते हैं, वे चाहे किसी भी देवी-देवता का स्वरूप हो और अपने सभी कर्म उन्हें समर्पित कर देते हैं, तो यह अनन्य भक्ति में साध्य का मिलना तय है। उन्हें आवश्यकता होती है केवल ध्यान लगाने की।


ध्यान किस प्रकार लगाना चाहिये, तो इसके बारे में ईश्वर बताते हुए कहते हैं कि व्यक्ति को ईश्वर में मन और बुद्धि को लगाकर एकाग्रता प्राप्त करनी चाहिये, क्योंकि इसी ध्यानावस्था की प्रगाढ़ता में ध्याता-ध्येय का भेद मिट जाता है और मात्र ध्येय ही शेष रह जाते हैं। यह प्रगाढ़ता सरलता से नहीं आती, किन्तु मनुष्य निरन्तर अभ्यास से इसे प्राप्त कर सकता है। कभी अभ्यास में भी समय लग सकता है, तो इससे निराश न होकर अपने कर्म करते जाना चाहिये, क्योंकि वे कर्म ही उनके कर्तव्य होने से ईश्वर के निकट लाने का साधन बनते हैं। निष्काम कर्मयोग ही मनुष्य-जीवन का आधार होना चाहिये।


श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।गी.12.12।।


अर्थात् तत्त्वज्ञान के अभ्यास से तत्त्वज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त होती है।


इसके बाद गीताकार भक्त के लक्षण आठ श्लोंकों में इस प्रकार बताते हैं -


जो किसी से द्वेष नहीं करता, स्वार्थरहित होकर सबसे प्रेम करता है, बिना किसी हेतु के दयालु है, ममता एवं अहंकाररहित है, सुख-दुःख की प्राप्ति में सम एवं क्षमाशील है, वह योगी जो निरन्तर सन्तुष्ट है, मन, बुद्धि, इन्द्रियों को वश में करने वाला है, ईश्वर में दृढ़-विश्वासी है और उन्हें मन और बुद्धि को समर्पित करने वाला है, जो कभी उद्विग्न, भयभीत या परेशान नहीं होता, जिससे कोई उद्विग्न, भयभीत या परेशान नहीं होता, जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग से रहित है, जो कोई अपेक्षा या आकांक्षा नहीं रखता, बाहर-भीतर पवित्र है, तटस्थ, व्यथारहित तथा सांसारिक प्रपंचों का परित्याग करता है, जो शत्रु और मित्र में मान एवं सम्मान का समभाव रखता है, जो सभी प्रकार के द्वन्द्वों में सम रहता है, निंदा या स्तुति को समान समझता है, मननशील है, जीवन-क्रम में प्राप्य में ही संतुष्ट रहता है, जिसकी बुद्धि स्थिर है अर्थात् स्थितप्रज्ञ है और भक्तियुक्त है, वही सच्चा भक्त है और ईश्वर को प्रिय है।


इस अध्याय का मूलाधार सगुण एवं निराकार उपासना का भेद बतलाना है। लोगों को ईश्वर-प्राप्ति का साधन बतलाना, भक्त के लक्षण बतलाना और भक्तिमार्ग को प्रशस्त करना ही है। यह अध्याय इस आवश्यकता को भी प्रमाणित करता है कि मनुष्य स्वयं को ईश्वर को पूर्ण रूप से समर्पित कर दे। उनमें तल्लीन कर ले। यही भक्ति-मार्ग है और यही जीवन के लिये उपयुक्त एवं सरल मार्ग है।


विश्वजीत ‘सपन’