Thursday, November 14, 2019

महाभारत की लोक कथा (भाग - 93)


महाभारत की कथा की 118 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

पुरोहित की शक्ति 

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प्राचीन काल में मरुत्त नाम के एक राजा हुए। वे बड़े ही यशस्वी और धर्म के ज्ञाता थे। उनका पराक्रम इन्द्र के समान था। इन्द्र इस बात से जलते थे और राजा मरुत्त को नीचा दिखाने का प्रयत्न करते रहते थे। एक बार मरुत्त ने हिमालय के उत्तरी भाग में मेरु पर्वत के पास एक यज्ञशाला बनवाई और यज्ञ का कार्य प्रारम्भ किया। उस यज्ञ के लिये उन्हें पुरोहित की आवश्यकता हुई। बहुत सोच-विचारकर उन्होंने महर्षि अंगिरा के पुत्र बृहस्पति को पुरोहित बनाने का मन बनाया, किन्तु इन्द्र के बहकावे में आकर बृहस्पति ने उनका पुरोहित होना स्वीकार न किया। 


राजा मरुत्त को यह बात अच्छी न लगी और वे अपने प्राण का त्याग करने चल दिये। मार्ग में उन्हें नारद जी मिले और उन्होंने सलाह दी कि महर्षि अंगिरा के दूसरे पुत्र संवर्त उनके पुरोहित बनने के योग्य हैं। अतः वे निराशा को छोड़कर उनके पास जाकर यज्ञ करवाने का आग्रह करें।


बृहस्पति संवर्त के बड़े भाई थे और उन्हें अकारण ही तंग किया करते थे। अपने बड़े भाई के इस व्यवहार से दुखी होकर संवर्त मोह का त्याग कर दिगम्बर बनकर वन में रहने लगे थे। उन्हें ढूँढना सहज ही कठिन कार्य था। अतः राजा ने नारद जी से उनसे मिलने का उपाय पूछा तो नारद जी ने कहा - ‘‘वे इस समय काशी नगरी में भगवान् विश्वनाथ जी के दर्शन की इच्छा से पागल बनकर गये हुए हैं। आप मंदिर के प्रवेश-द्वार पर कहीं से एक मुर्दे का प्रबंध करें। जो व्यक्ति उस मुर्दे को देखकर पीछे लौट जाये, उन्हें ही संवर्त समझिये।’’


यह कहकर नारद जी चले गये। राजा मरुत्त काशी नगरी गये और उन्होंने ठीक वैसा ही किया, जैसा नारद जी ने करने को कहा था। संवर्त मुर्दे को देखकर पीछे मुड़कर जाने लगे तब राजा ने प्रणाम किया तो उन्होंने पूछा - ‘‘मुझे यहाँ कोई नहीं जानता। तुमने मुझे कैसे पहचान लिया?’’


राजा ने नारद जी की बात बताई और अपने आने का प्रयोजन बताया तो वे बोले - ‘‘तुम्हें पता है कि मैं अपनी तरह से काम करता हूँ। तुम्हारे यज्ञ करवाने से बृहस्पति और इन्द्र दोनों ही मुझसे कुपित हो जायेंगे। यदि उस समय तुम मेरे पक्ष का समर्थन लेने की शपथ लेते हो तो मुझे स्वीकार है।’’


मरुत्त ने शपथ ले ली, तो संवर्त ने अलौकिक रूप से यज्ञ करवाना प्रारम्भ कर दिया। इससे मरुत्त को असीमित धन-सम्पदाओं की प्राप्ति होने लगी। एक के बाद एक यज्ञों से सारा संसार विस्मित रह गया। इन्द्र का सिंहासन भी डोलने लगा। बृहस्पति को यह बात पता चली तो उन्होंने इन्द्र से यह बात बताई और उनसे कहा कि वे किसी प्रकार संवर्त को राजा मरुत्त का यज्ञ करवाने से रोकने का प्रबन्ध करें। 


इन्द्र ने अग्निदेव को अपना दूत बनाकर राजा मरुत्त के पास भेजा। दूत ने संदेश दिया - ‘‘राजन्, देवराज इन्द्र ने कहलवा भेजा है कि बृहस्पति आपके गुरु हैं और आपको उन्हीं से यज्ञ करवाना चाहिये।’’


मरुत्त ने कहा - ‘‘प्रणाम अग्निदेव, पहले मैं उनके ही पास गया था, किन्तु उन्होंने यह कहकर यज्ञ करवाने से मना कर दिया था कि वे देवताओं के पुरोहित हैं और मरणधर्मा मनुष्य के यज्ञ नहीं करवा सकते।’’


तब अग्निदेव ने कहा - ‘‘यदि आप यज्ञ रोक दें, तो बृहस्पति ने आपको अमर बना देने का वचन दिया है। इतना बड़ा कल्याण आप कैसे छोड़ सकते हैं?’’ 


मरुत्त समझ गये कि उन्हें प्रलोभन दिया जा रहा है। उन्होंने कहा - ‘‘क्षमा करें। वे देवराज इन्द्र के पुरोहित हैं। अतः मुझ मनुष्य के यज्ञ कराना उन्हें शोभा नहीं देता।’’


अग्निदेव ने कहा - ‘‘आप समझने का प्रयत्न करें। यदि बृहस्पति आपका यज्ञ कराते हैं तो इन्द्र आपसे प्रसन्न होंगे और इन्द्र प्रसन्न हुए तो तीनों लोक आपके लिये सुलभ हो जायेंगे।’’


किन्तु मरुत्त फिर भी तैयार न हुए, तब संवर्त ने कहा - ‘‘सावधान! तुमने जितना प्रयास करना था कर लिया। अब जाओ अन्यथा मुझे क्रोध आ गया तो जलाकर भस्म कर दूँगा।’’


अग्निदेव डरकर सीधे इन्द्र के पास गये और उन्हें बताया कि मरुत्त किसी भी प्रकार उनकी बात सुनने को तैयार नहीं हुए और उन्होंने यह भी कहा है कि संवर्त जी ही उनका यज्ञ करायेंगे। संवर्त जी ने भी मुझे भस्म करने की चेतावनी दी है।


तब इन्द्र ने गंधर्वराज को राजा मरुत्त को डराने के उद्देश्य से उनके पास भेजा। गंधर्वराज ने भी पहले मरुत्त को मनाने का प्रयत्न किया। जब वे न माने तो उन्होंने कहा - ‘‘महाराज! मैंने आपसे विनती की, किन्तु आप न माने। अब आप इन्द्र के कोप का भाजन बनें। देखिये आकाश में यह भयंकर सिंहनाद सुनिये।’’


तभी आकाश में भयंकर सिंहनाद सुनाई दिया। ऐसा लग रहा था कि इन्द्र किसी भी क्षण अपने वज्र का प्रहार करने ही वाले थे। राजा मरुत्त डर गये और संवर्त जी की शरण में जाकर बोले - ‘‘हे ब्राह्मण देवता! अब मैं आपकी शरण में हूँ। आप मुझे अभयदान दें।’’


संवर्त ने कहा - ‘‘तुम अकारण ही चिंतित हो रहे हो। मैं अभी स्तम्भिनी विद्या का प्रयोग कर तुम्हारे ऊपर आने वाले सभी संकटों को दूर कर देता हूँ। उसके बाद कोई वज्र भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’’


संवर्त ने वैसा ही किया और यज्ञ में लग गये। मरुत्त भी निडर होकर यज्ञशाला में हवन करने लगे। तब संवर्त ने अपने मन्त्र-बल से देवताओं का आवाहन किया। कुछ ही देर में स्वयं इन्द्र सुन्दर जुते हुए घोड़ों वाले रथ में सवार होकर यज्ञशाला में पहुँच गये। संवर्त ने एक-एककर सभी देवताओं का आवाहन किया और वे सभी यज्ञशाला में आये और उन्होंने सोमपान किया। इन्द्र ने प्रसन्न होकर मरुत्त को अत्यधिक धन-सम्पदा प्रदान दी। देवताओं के जाने के बाद राजा मरुत्त ने ब्राह्मणों आदि को धन-धान्य देकर संतुष्ट किया और संवर्त जी से आज्ञा लेकर राजधानी वापस आ गये। 


विश्वजीत ‘सपन’