Sunday, May 19, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग- 80)




महाभारत की कथा की 105 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 

आश्रमधर्म क्या है?

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प्राचीन काल की बात है। महर्षि भृगु कैलास शिखर पर बैठे हुए थे एवं भरद्वाज मुनि के प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे। उन्होंने संसार एवं जीव का वर्णन किया, उसके बाद जीव की नित्यता एवं चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन किया। तब भरद्वाज मुनि ने पूछा - ‘‘सत्य क्या है? असत्य का दोष क्या है?’’


भृगु ने कहा - ‘‘मुने, सत्य ही ब्रह्म है, तप है। सत्य पर ही संसार टिका हुआ है। सत्य ज्ञान है, प्रकाश है, जो सुख है। असत्य अधर्म है। दुःख का कारण है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘मुनिवर, दान, धर्म, तप, स्वाध्याय एवं अग्निहोत्र का क्या फल है?’’


मुनि भृगु ने कहा - ‘‘दान से भोगों की प्राप्ति होती है। धर्म से सुख प्राप्त होता है। तप से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। स्वाध्याय से शान्ति मिलती है तथा अग्निहोत्र से पाप का नाश होता है।’’


पूरी तरह से संतुष्ट होकर भरद्वाज ने पूछा - ‘‘मुनिश्रेष्ठ, एक अंतिम प्रश्न। ब्रह्मा जी ने चार आश्रम बनाये हैं उनके धर्म क्या-क्या हैं। इसे सविस्तार बताने की कृपा करें।’’


भृगु ऋषि ने कहा - ‘‘तो सुनिये मुनिवर, प्रथम आश्रम है - ब्रह्मचर्य। बालकपन में शिष्य को गुरु के यहाँ रहकर वेदाध्ययन करना पड़ता है। ब्रह्मचारी बनकर वह बाहर-भीतर की शुद्धि, व्रत तथा नियमों के पालन से मन को वश में करता है। प्रातः एवं संध्या अग्निहोत्र के द्वारा अग्निदेव की उपासना करता है। इस समय प्रातः, मध्याह्न एवं सायं स्नान कर पवित्र रहना होता है। गुरु-आज्ञा से भिक्षा लाकर गुरु को अर्पण करना होता है। इस समय बालक को गुरु की सेवा करनी चाहिये तथा वेदाध्ययन के साथ-साथ स्वाध्याय करना चाहिये।


द्वितीय आश्रम है - गार्हस्थ्य। गुरुकुल की अवधि पूर्ण होने के बाद यदि पुत्रादि की इच्छा हो तो, गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का नियम है, क्योंकि इसमें धर्म, अर्थ एवं काम तीनों की प्राप्ति होती है। यह सभी आश्रमों का मूल कहलाता है। इन्हीं के द्वारा संन्यासी आदि को भिक्षा की प्राप्ति होती है। इस आश्रम में उत्तम कर्म के द्वारा धन-संग्रह करके उसे दान, यज्ञादि में खर्च करना चाहिये। इसमें सदाचारी बनकर रहने वाला ही सुख की प्राप्ति करता है। इस आश्रम में यज्ञ करने से देवता, श्राद्ध करने से पितर, शास्त्रों के श्रवण, अभ्यास एवं धारण करने से ऋषि तथा संतान उत्पन्न करने से प्रजापति प्रसन्न होते हैं। गृहस्थ आश्रम के अनेक कर्तव्य हैं, जैसे अतिथि सेवा, दान, दया, सभी का समान आदर, किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं, सत्य बोलना, निंदा न करना, अहंकार न करना आदि।


तृतीय आश्रम है - वानप्रस्थ। एकान्त वन में विचरण करना ही इसका ध्येय होता है। गृहस्थ धर्म में उपयोग किये गये वस्तुओं, विषयों का परित्याग करके थोड़ी मात्रा में फल-फूल खाकर ही जीवन बिताया जाता है। धर्म का पालन, नित्य नियम से स्नान, पूजा आदि करना ही इस आश्रम के नियम हैं। इस समय शरीर का ध्यान नहीं रखा जाता है। उसे मात्र धारण करने का ध्येय होता है, चाहे वह सूखकर काँटा ही क्यों न हो जाये। इस प्रकार से अपने जीवन को एक स्थल पर रहकर बिना किसी सुख की कामना के साथ बिताना ही इस आश्रम का मूल नियम है। ऐसा करने वाले एवं ब्रह्मर्षियों द्वारा बताये गये मार्ग पर चलने वाले ऐसे आश्रमधर्मी दुर्लभ लोकों को प्राप्त करते हैं।


चतुर्थ आश्रम है - संन्यास का। संन्यासी का जीवन एकान्तमय होता है। वह घर-परिवार को छोड़कर, समस्त नाते-रिश्तेदारों का त्याग कर विषय-भोगों का पूर्णतः परित्याग कर देता है। ये वानप्रस्थ ही भाँति कुटि या आश्रम बनाकर नहीं रहते, बल्कि पर्वत, गुफा, नदी का किनारा, वृक्ष के नीचे आदि स्थलों पर अपना जीवन यापन करते हैं। इस समय नगर में पाँच रात एवं गाँव में एक रात से अधिक नहीं रहना चाहिये। बिना माँगे ही पात्र में जितनी भिक्षा मिल जाये, उसे ही स्वीकार कर संतुष्ट होना चाहिये। इस समय काम, क्रोध, दर्प, लोभ, मोह आदि से सर्वथा दूर रहना चाहिये। इस समय समस्त जीवों को एक समान देखना चाहिये।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘बड़ा आभार आपका मुनिश्रेष्ठ। आज मेरे समस्त प्रकार के संदेहों का परिष्कार हो गया। कृपया यह भी बतायें, इन चार आश्रमों के नियम किसने बनाये एवं क्यों?’’


भृगु ने कहा - ‘‘जगत् का कल्याण करने के लिये ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में चार आश्रमों का उपदेश दिया था। जीवन को अर्थपूर्ण एवं लक्ष्यसहित बिताने के लिये ही इन आश्रमों की व्यवस्था की गयी है। व्यक्ति प्रत्येक आयु में सब-कुछ करने में सक्षम नहीं होता, अतः उसकी आयु के अनुसार ये चार आश्रम बनाये गये हैं। साथ ही जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने में इन चारों आश्रमों की अपनी-अपनी विशेषतायें हैं। किसी भी एक आश्रम की उपेक्षा से यह चराचर जगत् भ्रमित हो सकता है। अतः शास्त्रों में ऐसे नियम बनाये जाते हैं। मनुष्यों के जीवन को एक निश्चित दिशा देने के लिये ही ब्रह्मा जी ने ये चार आश्रम बताये हैं। सत्य तो यही है कि जो मनुष्य लोक के धर्म-अधर्म को जानता है, वही बृद्धिमान् होता है। धर्म का पालन करते हुए, जो जीवन यापन करता है, वह शान्त एवं ज्योतिर्मय ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।’’


इस प्रकार भृगु ऋषि ने भरद्वाज को इस जीवन एवं संसार की समस्त अवधारणाओं एवं उसमें उपस्थित व्यवस्थाओं को बताया, जो जगत् कल्याण के लिये था। एक मनुष्य को बुद्धिमान् बनकर रहना चाहिये एवं ब्रह्मा के बनाये नियमों के पालन करने चाहिये।


विश्वजीत 'सपन'

Sunday, May 12, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 79)


महाभारत की कथा की 104 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।  

चार वर्णों की उत्पत्ति

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प्राचीन काल की बात है। महर्षि भृगु कैलास शिखर पर बैठे हुए थे। भरद्वाज मुनि ने अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिये उनसे पूछा - ‘‘मुनिवर, मुझे यह बताइये कि चारों वर्णों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई? इसकी रचना किसने की?’’


भृगु मुनि ने कहा - ‘‘समस्त सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने की है। उन्होंने सृष्टि के आरंभ में अपने तेज से सूर्य एवं अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले ब्राह्मण आदि प्रजापतियों को उत्पन्न किया। उसके बाद स्वर्ग-प्राप्ति के साधनभूत सत्य, धर्म, तप, सनातन वेद, आचार, शौच आदि के नियम बनाये। तदनन्तर देवता, दानव, गन्धर्व, सर्प, यक्ष, पिशाच आदि सहित मनुष्यों को उत्पन्न किया। उसके बाद उन्होंने मनुष्यों के चार वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का विभाग किया। सभी प्रकार के प्राणियों में जो-जो वर्ण हैं, उनकी भी रचना की। ब्राह्मणों का रंग श्वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला तथा शूद्रों का काला बनाया।’’


भरद्वाज मुनि की उत्सुकता बनी रही। उन्होंने पूछा - ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ, इस चराचर जगत् में सभी मनुष्यों को समान रूप से दुःख-सुख, भूख, थकावट आदि का प्रभाव पड़ता है। सभी के शरीर से मल-मूत्र, स्वेद, रक्त आदि निकलते हैं, तो इन्हें रंगों के आधार पर विभाजित कैसे किया गया?’’


तब भृगु जी ने इस प्रकार कहा - ‘‘मुनिवर, सत्य तो यही है कि ब्रह्मा जी ने वर्णों में कोई अंतर पूर्व में नहीं किया था। तब सभी ब्राह्मण ही थे, क्योंकि वे ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए थे। कालान्तर में विभिन्न कर्मों के कारण उसमें वर्णभेद हो गया। जिन लोगों ने ब्राह्मणोचित धर्म का त्याग कर दिया, विषयभोग के प्रेमी बन गये, क्रोधी एवं तीखे होकर वीरता का कार्य करने लगे, तो उनके रंग लाल हो गये, ऐसे ब्राह्मण क्षत्रिय कहलाये। जिन लोगों ने गोऔ की सेवा ही अपनी वृत्ति बना ली एवं खेती को जीविका बनाकर रहने लगे, तो वे पीले पड़ गये एवं ऐसे द्विजों को वैश्य कहा गया। जो लोग शौच एवं सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा एवं असत्य के प्रेमी बन गये तथा लोभवश सब प्रकार का काम करने लगे, तो ऐसे ब्राह्मण-धर्म से च्युत द्विज शूद्र कहलाये। इस प्रकार अपने-अपने स्वभावों, अपनी वृत्तियों के कारण ब्राह्मण धर्म को त्यागने के कारण ये चार वर्ण बन गये हैं।’’


भरद्वाज मुनि ने पूछा - ‘‘विप्रवर, अब मुझे यह बतलाइये कि कौन-सा काम करने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र होता है?’’


भृगु ऋषि ने कहा - ‘‘जो वेदोक्त संस्कारों से सम्पन्न, स्वाध्याय में संलग्न एवं यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान-प्रतिग्रह इन छः कर्मों में स्थित रहते हैं, सत्य-मार्ग का पालन करते हैं, गुरुओं के प्रति श्रद्धा रखते हैं, सबके प्रति कोमल भाव रखतें हैं, जिनमें दया, तप आदि के सद्गुण मिलते हैं, वे ही ब्राह्मण होते हैं। जो वीरोचित कार्य करता है, वेदाध्ययन करता है, युद्ध करता है, ब्राह्मणों को दान करता है, प्रजा की रक्षा करता है, वह क्षत्रिय होता है। जो वेदाध्ययन करते हुए, व्यापार, पशु-पालन तथा खेती आदि का कार्य करता हुआ दान आदि करता है, वह वैश्य होता है। जो वेद एवं सदाचार का त्याग कर सब कुछ खाता है, सब तरह के काम करता हुआ अपवित्र रहता है, वह शूद्र होता है।’’


भरद्वाज ने पूछा - ‘‘मुने, तो क्या वर्णों का आधार उनके कर्म हैं, जन्म नहीं।’’


भृगु मुनि ने कहा - ‘‘आपने उचित कहा विप्रवर। यदि किसी शूद्र में ब्राह्मणोचित सद्गुण दिखाई दें, तो वह शूद्र नहीं रहता। ठीक उसी प्रकार यदि किसी ब्राह्मण में ब्राह्मण गुण न हो, तो वह ब्राह्मण नहीं होता। सर्वदा शौच एवं सदाचार का पालन करना तथा सम्पूर्ण प्राणियों पर दया रखना ब्राह्मण का लक्षण होता है। जो जिस गुण को धारण करता है, वह उसी वर्ण का बन जाता है।’’


भरद्वाज मुनि ने कहा - ‘‘उचित है मुनिवर, इसका अर्थ हुआ कि ब्राह्मण श्रेष्ठ है और उसके गुणों की ओर सभी को तत्पर होना चाहिये।’’


भृगु ने कहा - ‘‘सत्य-वचन मुने। जो सृष्टि को ब्रह्मस्वरूप नहीं जानते, वे द्विज कहलाने के अधिकारी नहीं होते। ऐसे लोगों को नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेना पड़ता है। अतः ब्राह्मण अग्रज होने से सर्वश्रेष्ठ हैं। ये आदिदेव ब्रह्मा से उत्पन्न हुए हैं एवं इनके मूल में ब्रह्मा जी ही हैं। इसके बाद भी ये अपने सद्गुणों के कारण ही ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी होते हैं। ब्राह्मण संसार से परवैराग्य होने के कारण परब्रह्म परमात्मा को अनायास ही प्राप्त कर लेता है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘अन्य लोगों को परब्रह्म-प्राप्ति हेतु क्या करना चाहिये। मुझे सविस्तार बतायें मुनिवर।’’


भृगु ने कहा - ‘‘लोभ एवं क्रोध को दबाना ही पवित्र ज्ञान एवं आत्म-संयम है। किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये, सबके साथ मैत्री का व्यवहार करना चाहिये, स्त्री-पुत्र आदि की ममता का त्याग कर बुद्धि द्वारा इन्द्रियों को वश में करना चाहिये, इस प्रकार वह उस स्थिति को प्राप्त करे, जिससे इहलोक एवं परलोक में निर्भय तथा शोकरहित हो। नित्य तप करने, अनासक्त रहने तथा मन को प्राण में तथा प्राण को ब्रह्म में स्थापित करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है तथा परब्रह्म से साक्षात्कार होता है।’’


इस प्रकार भृगु मुनि ने भरद्वाज की जिज्ञासाओं को शान्त किया एवं जगत् के चार वर्णों के विभेद की विवेचना की। सभी मनुष्य ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण एक समान ही हैं, किन्तु उनके कर्म उन्हें पृथक वर्ण का बना देते हैं।


विश्वजीत 'सपन'

Saturday, May 4, 2019

महाभारत की लोककथा भाग-78




महाभारत की कथा की 103 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

जीव की नित्यता

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प्राचीन काल की बात है। एक बार भरद्वाज मुनि महर्षि के भृगु के पास गये। वे जीवन के सत्य को जानना चाहते थे। संसार एवं शरीर के मूलतत्त्वों को जानने के बाद उन्होंने महर्षि से इस प्रकार पूछा - ‘‘भगवन्, मृत्यु के समय गो दान किया जाता है, यह सोचकर कि गौ परलोक में उसका कल्याण करेगी। गौ दान करके वह मर जाता है। गौ दान करने वाला, उसे लेने वाला एवं स्वयं गौ भी इसी धरती पर नष्ट हो जाते हैं। परलोक में ये कल्याण का कारण कैसे बनते हैं? जो भी मरता है, वह जलकर भस्म हो जाता है अथवा उसे पक्षी आदि खा जाते हैं। ऐसी अवस्था में उसका पुनः जीवित होना संभव नहीं है, क्योंकि वह सदा के लिये चला जाता है। इसका रहस्य क्या है?’’


भृगु जी ने कहा - ‘‘मुनिवर, यह मात्र आपका प्रश्न नहीं है। इस संसार में मोह में बँधे समस्त प्राणियों का यही सोचना है, किन्तु सत्य यही है कि जीव अथवा उसके किये गये दान या कर्म का कभी नाश नहीं होता है। जीवन की मृत्यु का अर्थ मात्र उसके शरीर का नाश होता है। वह तत्क्षण ही किसी दूसरे शरीर में प्रविष्ट कर जाता है, जिस योनि में उसे जाना होता है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘आपकी बात उचित है मुनिवर, किन्तु यदि देहधारियों के शरीरों में मात्र अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश एवं जल तत्त्व ही विद्यमान है, तो उनमें रहने वाले उस जीव का क्या स्वरूप है?’’


भृगु ने कहा - ‘‘इसे ही अन्तरात्मा कहते हैं। यही देह का संचालन करता है। यह नित्य है, अजर-अमर है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘मुनिवर, शरीर को चीर-फाड़ कर देखने पर जीव दिखाई नहीं देता, किन्तु जीवित होने पर उसे दुःख आदि का अनुभव होता है। यह किस प्रकार संभव है?’’


भृगु ने कहा - ‘‘पंचभूतों के गुणों अर्थात् रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द तथा दूसरे सभी गुणों का अनुभव यही आत्मा करता है। वह पाँचों इन्द्रियों के गुणों को धारण करने वाला मन का द्रष्टा है तथा वही पांचभौतिक देह के प्रत्येक अवयव में व्याप्त होकर सुख-दुःख का अनुभव करता है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘मुनिवर, जीव कभी किसी की बात सुनता है और कभी नहीं। नेत्र से सब-कुछ देखता है, किन्तु व्याकुल होने पर नहीं देखता। इसी कारण मन के अतिरिक्त जीव की सत्ता मानना व्यर्थ है। नींद में पड़ा प्राणी सभी इन्द्रियों के होते हुए भी न देखता है, न सुनता है, न सूँघता है, न ही बोलता है। उसे स्पर्श एवं रस का भी अनुभव नहीं होता। अतः जिज्ञासा होती है कि इस शरीर में कौन हर्ष एवं विषाद करता है? किसे शोक एवं उद्वेग होता है? इच्छा, ध्यान, द्वेष एवं बातचीत करने वाला कौन है? कृपया इन तथ्यों को विस्तार से बतायें, ताकि भ्रम दूर हो।’’


भृगु ने कहा - ‘‘बड़ा उचित प्रश्न है मुनिवर। कभी-कभी ऐसा भी होता है, जब किसी प्राणी को किसी भी इन्द्रिय के विषयों का भान नहीं होता है। जब आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तो इस देह को सुख-दुःख का भान नहीं होता। इसी के कारण मन के अतिरिक्त उसके साक्षी आत्मा की सत्ता स्वतः प्रमाणित हो जाती है। जब शरीर में स्थित अग्निस्वरूप आत्मा इससे पृथक हो जाता है, तो उस समय शरीर को रूप, स्पर्श तथा अग्नि की गर्मी का अनुभव नहीं होता तथा उस शरीर की मृत्यु हो जाती है। इसे इस प्रकार जानिये कि आत्मा जब प्रकृति के गुणों से युक्त होता है, तब वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है तथा जब वह उन्हीं गुणों से मुक्त हो जाता है, तब परमात्मा कहलाता है। यह आत्मा कमल के पत्ते पर पड़े जल-बिन्दु की भाँति शरीर में रहकर भी पृथक रहता है। वही चेष्टा करता है तथा कराता भी है। देह के नष्ट हो जाने पर भी उसका नाश नहीं होता। असल में शरीर का नाश ही मृत्यु है, जीव का नहीं। वह तो तत्काल ही किसी दूसरे शरीर में चला जाता है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘मुनिवर, ये ज्ञान की बातें, जीवन को सुखमय बनाने हेतु ही हैं। इसे कौन अनुभव करता है? इस मोह से किस प्रकार छुटकारा संभव है?’’


भृगु ने कहा - ‘‘मुने, जीवन आनन्द का नाम है। ईश्वर ने इसे आनन्द के लिये ही बनाया है, किन्तु मोह में फँसे लोग इसे जान नहीं पाते हैं, समझ नहीं पाते हैं तथा इसी कारण देह के नष्ट हो जाने पर जीव की मृत्यु बतलाते हैं। यह मिथ्या है, भ्रम है। इसे इस प्रकार जानिये कि यह आत्मा प्राणियों के भीतर छिपा हुआ है। जो कोई भी अविद्या से आच्छादित होते हैं, उनके लिये यह प्रकाश में नहीं आता। मात्र तत्त्वदर्शी महात्मा ही अपनी तीव्र एवं सूक्ष्म बु़िद्ध से उसका साक्षात्कार करते हैं। जो भी विद्वान् परिमित आहार करके, रात के पहले तथा पिछले पहर में सदा ध्यानयोग का अभ्यास करता है, वह चित्त शुद्ध होने पर अपने अन्तःकरण में ही उस आत्मा को देख लेता है तथा उसे पहचान लेता है। अन्तःकरण के शुद्ध हो जाने के कारण वह शुभाशुभ कर्मों के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। ऐसा महात्मा जो प्रसन्नचित्त होता है, अपने आत्म-स्वरूप में स्थित होकर अनन्त आनन्द का अनुभव करता है।’’


इस प्रकार भृगु ऋषि ने जीव की नश्वरता एवं शरीर से उसकी पृथक सत्ता का समुचित वर्णन किया। इनको एक मानना अज्ञानता के कारण होता है। यही जीवन-दर्शन है। यही सत्य है।


विश्वजीत 'सपन'