Saturday, January 16, 2016

गीता ज्ञान - 18 (भाग-2)


अथाष्टादशोऽध्यायः

(मोक्षसंन्यास योग)
(भाग-2)


प्रथम श्लोक में अर्जुन ने ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के तत्त्वों को जानने की इच्छा प्रकट की थी। अतः भगवान् ने बारहवें श्लोक तक कर्मयोग तथा उसके बाद ज्ञानयोग की बातें बताई हैं।
   
गीताकार भगवान् के श्रीमुख से सांख्यशास्त्र (ज्ञानयोग) सिद्धान्त का प्रतिपादन करवाते हैं, ये वे पाँच कारण हैं जो सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये कारक हैं।


    अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथिग्विम्।
    विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।। गी.18.14।।


    इस श्लोक में कर्मों की सिद्धि में पाँच कारण बताये गये हैं - अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव। अधिष्ठान का अर्थ है आश्रयस्थल। समस्त क्रियायें प्रकृति एवं प्रकृति के कार्यों द्वारा ही होती हैं। अविवेकी पुरुष जब इन क्रियाओं को अपना मान लेता है, तो वह ‘कर्ता’ बन जाता है। ‘करण’ कुल तेरह हैं और इनकी चेष्टायें इस प्रकार हैं - पाणि (हाथ अर्थात् आदान-प्रदान करना), पाद (पैर अर्थात् चलना-फिरना), वाक् (बोलना), उपस्थ (मूत्र-त्याग करना) एवं पायु (गुदा अर्थात् मल का त्याग करना) ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। श्रोस्त्र (सुनना), चक्षु (देखना), त्वक् (स्पर्श करना), रसना (चखना) एवं घ्राण (सूँघना) - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। और ये दस बहिःकरण हैं। इनके साथ तीन अन्तःकरण हैं - मन (मनन करना), बुद्धि (निश्चय करना) एवं अहंकार (मैं ऐसा हूँ अथवा वैसा हूँ का अभिमान करना)। इन सभी की अपनी-अपनी चेष्टायें हैं। पाँचवाँ कारण ‘दैव’ है अर्थात् संस्कार। मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसके अन्तःकरण पर वैसा ही संस्कार पड़ता है। पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का नाम ही दैव अथवा भाग्य है। 


तात्पर्य यह है कि मनुष्य मन, शरीर, वाणी से शास्त्र के अनुरूप अथवा उसके विरुद्ध जो भी कर्म करता है उसके ये ही पूर्वोक्त कारण होते हैं। किन्तु जो मनुष्य इस वास्तविकता को नहीं देखता और शुद्ध-स्वरूप आत्मा को ही कर्ता मान लेता है वह अज्ञानी है। उसे यथार्थ का पता नहीं है। इसके विपरीत जिसमें अहं भाव नहीं है और जिस पुरुष के अन्तःकरण में ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ ऐसा भाव दृढ़ हो गया है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों और कर्मों में लिप्त नहीं है, वह पाप-दोष से निर्मुक्त रहता है। अर्जुन ये समझते हैं कि आततायियों को एवं गुरुओं को मारने से वध का पाप लगेगा, तो भगवान् कहते हैं कि इनको मारने से पाप नहीं लगेगा, क्योंकि पाप लगने में कारण अहंता और बुद्धि की लिप्तता है। वर्षा से कई जीव-जन्तुओं के प्राण चले जाते हैं और कई की प्राण-रक्षा होती है तब वर्षा को पाप नहीं लगता। ठीक उसी प्रकार युद्ध में मार डाले गये शत्रुओं से पाप नहीं लगता। पाप तब लगता है, जब हम स्वयं को कर्ता मान लेते हैं।


इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता ये तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा है। ज्ञान का अर्थ इस प्रकार समझा जा सकता है कि पुरुष की कोई प्रवृत्ति जब होती है, तो उससे पूर्व ज्ञान होता है, जैसे जल पीने के पहले प्यास का ज्ञान होता है। जल यहाँ ज्ञेय है और जिसको इसका ज्ञान होता है वह परिज्ञाता है। तो इन तीनों से ही कर्म करने की प्रेरणा होती है, अन्यथा नहीं। यदि इनमें से कोई एक भी न रहे, तो कर्म की प्रेरणा नहीं होती है। वे पुनः कहते हैं कि कर्म-संग्रह के तीन कारण होते हैं - कर्ता, कर्म और करण। जिन साधनों से कर्ता कर्म करता है, वे करण हैं और इन करण से जो चेष्टायें होती हैं, वे कर्म हैं। इनको करने वाला कर्ता होता है। इन तीनों के सहयोग से ही कर्म पूरा होता है। 


वे आगे कहते हैं कि सांख्यशास्त्र में ज्ञान, कर्म और कर्ता के गुणों के भेद से तीन प्रकार बताये गये हैं - ये सत्त्वगुण प्रेरित, रजोगुण प्रेरित और तमोगुण प्रेरित कहे गये हैं। इनका वर्णन आगे विस्तार से बताया गया है।


जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य पृथक्-पृथक् समस्त प्राणियों में एक विभागरहित परमात्मा भाव को समभाव से स्थित देखता है, उसे सात्त्विक ज्ञान कहते हैं। इस सात्त्विक ज्ञान को इस प्रकार समझा जा सकता है कि मैं, तू, यह और वह सभी किसी प्रकाश में कार्य करते हैं। इन चारों के अन्तर्गत सभी प्राणी आ जाते हैं, जो विभक्त हैं, किन्तु इनका भी प्रकाशक है, जो अविभक्त है। यही ज्ञान सात्त्विक कहलाता है। किन्तु राजस ज्ञान के द्वारा सभी प्राणियों में भेद-भाव से भरा अलग-अलग देखने की भेद-दृष्टि आती है। राजस ज्ञान में राग की मुख्यता होती है। यह राग आसक्ति उत्पन्न करता है और प्राणियों में रहने वाली अविनाशी आत्मा को तत्त्व से अलग समझता है। राजस ज्ञान में जड़-चेतन का विभेद नहीं रहता है। जिस ज्ञान द्वारा प्रकृति के कार्यरूप शरीर को ही मनुष्य अपना सर्वस्व मानता है, उसी में आसक्त रहता है और शास्त्रसम्मत ज्ञान की वास्तविकता को नहीं मानता है, वह तुच्छ ज्ञान तामस कहलाता है। इसे भगवान् ज्ञान नहीं कहते हैं, क्योंकि यह असल में अज्ञान ही है।


सात्त्विक कर्म वह है, जो शास्त्रसम्मत है, कर्ता के अभिमान से और फलासक्ति से रहित है और बिना किसी राग-द्वेष से किया गया है। परन्तु जो कर्म भोगों की इच्छा से अथवा अहंकार से ग्रस्त परिश्रमपूर्वक किया जाता है, वह राजस कर्म कहलाता है। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य का बिना विचार किये अज्ञानपूर्वक किया जाता है, वह तामस कर्म कहलाता है। 


जो कर्ता अनासक्त है, अहंकारयुक्त वचनों को नहीं बोलता है, धैर्य एवं उत्साहयुक्त है, कार्य सिद्ध होने अथवा न होने पर भी हर्ष-शोकादि विचारों से रहित है, वह सात्त्विक कर्ता है। जो कर्ता आसक्ति से युक्त है, कर्मफल की इच्छा वाला लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने वाला, अपवित्र आचरण करने वाला और हर्ष-शोकादि में लिप्त है, वह राजस कर्ता है। जो कर्ता असावधान, अशिक्षित, गर्वीला, हठी, अपकारी का उपकार करने वाला, आलसी, विषादी और किसी भी कार्य को बहुत देर से करने वाला, तामस कर्ता कहलाता है। कहने का तात्पर्य यह कि जैसा कर्ता होगा, उसका कर्म भी वैसा ही होगा। सात्त्विक कर्ता अपने विवेक से सात्त्विक कर्म करके परमात्मा से अभिन्न हो जाता है, जबकि राजस और तामस कर्ता का ध्येय परमात्मा नहीं होता है, बल्कि स्वयं का सुख-दुःख आदि होता है, अतः वह परमात्मा से अभिन्न नहीं हो सकता है।


सभी कर्म विचारपूर्वक किये जाते हैं। उन कर्मों के विचार में बुद्धि एवं धृति नामक करणों की प्रधानता होती है, अतः आगे इनके प्रकारों पर विचार किया गया है। बुद्धि एवं धृति के भी तीन प्रकार के भेद होते हैं।


सात्त्विकी बुद्धि वह है जो प्रवृत्ति एवं निवृत्ति को, कर्तव्य एवं अकर्तव्य को, भय एवं अभय को, बन्धन तथा मोक्ष को यथार्थ रूप से जानती है, वह सात्त्विक बृद्धि होती है। प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दो अवस्थायें साधक की होती हैं। जब कोई संसार का काम-धंधा करता है, तो यह प्रवृत्ति है, जब सांसारिक कार्यों को छोड़कर भजन आदि में लिप्त होता है, तो यह निवृत्ति है। यहाँ इस बात को समझना होगा कि सांसारिक कामना सहित निवृत्ति भी प्रवृत्ति होती है। जैसे कोई निवृत्ति इस कारण से करता है कि उसका मान-सम्मान होगा, आदर-सत्कार होगा तो यह निवृत्ति नहीं होगी, बल्कि प्रवृत्ति होगी। अतः साधक को कामना-वासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति को ही ग्रहण करना चाहिए।


जो मनुष्य अपनी जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को, कर्तव्य एवं अकर्तव्य को ठीक-ठाक नहीं जानता, उसे राजस बुद्धि कहते हैं। शास्त्रों में जो भी विधान हैं, वे सभी धर्म हैं और उसके विपरीत सभी अधर्म। अपना कथित कर्तव्य करना ही उचित है, किन्तु लोग सच्चाई से ये कर्तव्य कर्म नहीं करते। ऐसे व्यक्ति राजस बुद्धि वाले कहे गये हैं। तमोगुण से घिरी हुई जो बुद्धि अधर्म को भी धर्म मान ले और इसी प्रकार की विपरीत धारणा करने वाली होती है, वह तामसी बुद्धि कहलाती है। 


अब भगवान् धृति के संबंध में कहते हैं। यह धृति क्या है? इसे जान लेना आवश्यक है। साधारण रूप से देखने पर धृति भी बुद्धि एक गुण प्रतीत होती है, किन्तु इनमें अंतर होता है। धृति बुद्धि से अलग और विलक्षण है, क्योंकि यह कर्ता में ही रहती है और इसी कारण से कर्ता बुद्धि का उचित उपयोग कर सकता है। असल में बुद्धि में जो धारणात्मक स्थिरता रहती है, वही धृति है। इसके भी तीन प्रकार होते हैं।


समता से युक्त अर्थात् सांसारिक लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख-दुःख आदि में सम रहने वाला, अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा अर्थात् इस लोक एवं परलोक सुख, भोग आदि किंचित मात्र भी इच्छा न रखते हुए परमात्मा को चाहने वाला, मन, प्राण एवं इन्द्रियों को संयमित करने वाली धृति ही सात्त्विकी धृति कहलाती है। किन्तु फल की कामना से अत्यन्त आसक्तिपूर्वक धर्म, अर्थ एवं काम को जो धारण करता है, वह धृति राजसी होती है। तथा दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धृति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड को नहीं छोड़ता है, वह धृति तामसी कहलाती है। 


इस प्रकरण के अंत में वे सुख के प्रकार बताते हैं, क्योंकि मनुष्यों में सुख के लोभ से कर्मों में प्रवृत्ति होती है। तात्पर्य यह कि सुख कर्म-संग्रह का कारण है।


जिस सुख से साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवा आदि के अभ्यास के परिणामस्वरूप आनन्दित होता है और जिसके कारण दुःखों का अन्त हो जाता है। साथ ही जो आरम्भ में भले ही विष के समान प्रतीत हो, किन्तु परिणाम में अमृत के समान हो जाये, वह परमात्मा-विषयक बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक सुख कहलाता है। किन्तु जो सुख विषय एवं इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होने वाला है और भोगकाल में अमृत के समान तथा परिणामकाल में विष के समान है, वह राजस सुख कहलाता है। इसके साथ ही जो सुख भोगकाल के साथ-साथ परिणाम में भी अज्ञान में भटकाता है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहलाता है।
इस प्रकरण में भगवान् के कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अनादि हैं और दो हैं। यह विवेक पुरुष के अन्दर होता है। जब कोई पुरुष इस विवेक का अनादर करते हुए प्रकृति से संबंध जोड़ लेता है, तो पुरुष में राग उत्पन्न हो जाता है। इसी राग के कारण उसमें प्रकृतिजन्य आसक्ति पैदा हो जाती है। इसी आसक्ति के कारण जब वह सात्त्विक सुख प्राप्त करना चाहता है, तो राजस और तामस सुख का त्याग करना कठिन हो जाता है। जब यह राग मिट जाता है, तो अमृत के समान आनंद की अनुभूति होती है। 


इस प्रकरण का उपसंहार वे इस श्लोक में करते हैं।


न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः।।गी.18.40।।


पृथ्वी में, स्वर्ग में या देवताओं में तथा इनके अतिरिक्त और कहीं भी ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो इन तीनों गुणों की परिधि से बाहर हो। सभी के प्रकार बताने के बाद भगवान् ने उस सुख की बात की जो सर्वोत्तम है, जिसे सात्त्विक सुख कहा गया। किन्तु इसे भी ‘आत्मबुद्धिप्रसादजम्’ कहा, इसे जन्य माना तो यह भी नित्य नहीं हो सकता। तात्पर्य यह कि इस जन्य सुख से भी ऊपर उठने की बात है। प्रकृति एवं प्रकृति के तीनों गुणों से रहित होकर उस परमतत्त्व को प्राप्त करना है। यह सबका अपना स्वाभाविक स्वरूप है। यह गुणातीत है, विलक्षण है, अलौकिक है। ‘संसार की कोई भी वस्तु इन तीनों गुणों से रहित नहीं है’ - तत्त्वज्ञानी ऐसा नहीं मानते, बल्कि अज्ञानी मानते हैं। तत्त्वज्ञानी स्वाभाविक स्वरूप को मानते हैं जो ‘निर्गुण’, निराकार ब्रह्म हैं।

विश्वजीत ‘सपन’
क्रमशः