Friday, December 28, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 64)



महाभारत की कथा की 89वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 
राजधर्म का महत्त्व
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    पूर्व काल की बात है। मन्धाता नामक एक राजा था। वह बड़ा गुणवान् और तपस्वी था। श्री नारायण के दर्शन की उसे अभिलाषा थी। वह संन्यास ग्रहण करना चाहता था। इसी उद्देश्य को लेकर उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ समाप्त कर उसने भगवान् विष्णु के दर्शन की इच्छा से अपना ध्यान उनमें लगा दिया। तब भगवान् प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्द्र का रूप धारण कर उसे दर्शन दिये। मन्धाता ने इन्द्ररूपी विष्णु का विधिवत पूजन किया तब इन्द्र बोले - ‘‘राजन्! तुमने बड़ी श्रद्धा एवं निष्ठा से यज्ञ किया और हमारा पूजन भी। तुम मानव-जाति के राजा हो। अवश्य तुम्हारी मनोकामनायें होंगी। मैं तुम पर बड़ा प्रसन्न हूँ। माँगो, जो भी वर माँगना चाहते हो, मैं उसे अवश्य पूरा करूँगा।’’


    मन्धाता की जैसे सभी इच्छायें पूर्ण हो गयीं। उसे तो भगवान् विष्णु का दर्शन करना था तथा संन्यास ग्रहण करना था। उसने कहा - ‘‘भगवन्! अब आपसे क्या छुपाना। मैं सिर झुकाकर आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि मुझे भगवान् विष्णु के दर्शन करा दें। मुझे अब भोगों से कुछ भी लगाव न रहा। मैं अब वन गमन करता चाहता हूँ। मेरी प्रवृत्ति आदिदेव श्रीविष्णु में हो गयी है। अब उनके अनुसार ही चलना चाहता हूँ। बस इतनी कृपा कर दीजिये।’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘राजन्! तुम तो राजधर्म त्यागने की बात कर रहे हो, जबकि राजधर्म तो स्वयं श्रीविष्णु से ही प्रवृत्त हुआ है। दूसरे सभी धर्म तो उसी के अंग हैं। असल में सभी धर्मों का अन्तर्भाव क्षात्रधर्म में ही हो जाता है। श्रीविष्णु ने क्षात्रधर्म के द्वारा ही शत्रुओं का दमन करके देवताओं एवं ऋषियों की रक्षा की थी। यदि वे ऐसा न करते तो ब्राह्मणों का नाश होने से पृथ्वी पर चारों वर्णों का लोप हो जाता। संसार में इन धर्मों का अनेक बार लोप हुआ है तथा इसी क्षात्रधर्म के द्वारा इनका उत्थान होता आया है। 


    राजन्! तुम जैसे लोक-हितैषी पुरुषों को सर्वथा क्षात्रधर्म का पालन करना चाहिये, अन्यथा प्रजा नष्ट हो जायेगी, कर्तव्य-विहीन हो जायेगी। राजा अपनी प्रजा का पुत्रों के समान देखभाल करता है, अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि इसी कारण समस्त प्राणी निर्भय होकर रहते हैं। इस संसार में क्षात्रधर्म ही श्रेष्ठ है, यह सब जीवों का उपकार करने वाला तथा मोक्ष का साधन है। एक राजा का कर्तव्य अपने राजधर्म का पालन करना ही होता है।’’


    मन्धाता को बात में समझ आ गयी। उसने निर्णय लिया कि वह अपने कर्तव्यों से विमुख न होगा। अब उसे अपने कर्तव्य को करने में जो शंकायें थीं, उनका निदान जानना चाहता था। उसने अपनी शंका का समाधान करने के लिये पूछा - ‘‘देवराज! मेरे राज्य में अनेक जातियों के लोग हैं। उन्हें अपने धर्मों का पालन करने के लिये क्या-क्या करना चाहिये?’’ 


इन्द्र ने कहा - ‘‘प्रजापति ने सब प्रकार के मनुष्यों के लिये, सभी जातियों एवं वर्णों के लिये कर्तव्य पूर्व से ही निश्चित कर दिये हैं, उन सभी को उसी प्रकार आचरण करना चाहिये। उन्हें कभी भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिये।’’


मन्धाता ने पूछा - ‘‘देवराज! अनेक लोग हैं जो लूट-पाट करते हैं, उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये?’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘जो लोग लूट-पाट करके जीविका चलाते हैं, उनसे माता-पिता, गुरुओं, आश्रमवासियों आदि की सेवा करवानी चाहिये। उनसे धर्म-कर्म एवं पितृश्राद्ध कराने चाहिये, आश्रम आदि बनवाने चाहिये। उन्हें उचित मार्ग पर लाने के प्रयास करने चाहिये।’’


    मन्धाता ने कहा - ‘‘देवेश! मानव-समाज में दस्यु सभी वर्णों एवं आश्रमों में पाये जाते हैं। वे छुपे रहते हैं। उनके लिये क्या उपाय हैं?’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘राजन्! जब दण्डनीति नष्ट हो जाती है, तब सभी प्राणी कर्तव्य-विमूढ़ हो जाते हैं। राजा लोगों का कर्तव्य है कि वे दण्डनीति द्वारा पापियों को रोकें तथा उन्हें उचित मार्ग पर लायें। इसी कारण राजा का दायित्व सबसे महान् होता है। इसी कारण वे लोक में सम्मान पाते हैं। इस प्रकार तुम वन जाने का विचार त्याग दो तथा क्षात्रधर्म में अपना मन लगाओ। यही तुम्हारे लिये सबसे बड़ा कल्याणकारी मार्ग है।’’


    इस इन्द्ररूपी भगवान् विष्णु ने मन्धाता को क्षात्रधर्म पालन करने का उपदेश दिया तथा वे अपने धाम चले गये। राजा मन्धाता पर इस उपदेश का बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने पूरी निष्ठा से क्षात्रधर्म का पालन किया तथा वह एक प्रजापालक राजा के रूप में विख्यात हुआ।


    शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास, इन तीनों आश्रमों के धर्मों का गृहस्थ धर्म में अन्तर्भाव हो जाता है तथा क्षत्रिय के धर्म तीनों वर्णों के आश्रय हैं, क्योंकि समस्त लोक तथा पुण्यकर्मों का आधार राजधर्म ही है।


विश्वजीत 'सपन'

Thursday, December 20, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 63)




महाभारत की कथा की 88वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
(शान्तिपर्व)


दण्डनीति का उद्भव एवं विकास

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    प्राचीन काल की बात है। वह सत्ययुग था। सत्ययुग के प्रारंभ में राज्य अथवा राजा नहीं होते थे, क्योंकि तब कोई अपराध ही नहीं होते थे। एक समय आया जब प्रजा मोह में पड़ गयी। तब उनका विवेक भी भ्रष्ट हो गया। वे कर्तव्य एवं अकर्तव्य का विभेद करने में अक्षम हो गये। धर्म का पतन हो जाने से वेद भी लुप्त होने लगे। समस्त संसार में भय का वातावरण उत्पन्न हो गया। ऐसी स्थिति को देखकर देवतागण को बड़ा कष्ट हुआ। वे ब्रह्मा के पास गये और उनसे कहा - ‘‘भगवन्! मनुष्य लोक में पतन का द्वार खुल गया है। वेद आदि नष्ट होते जा रहे हैं। अधर्म का बोलबाला होता जा रहा है। धर्म संकट में है। ऐसी स्थिति में धर्म की रक्षा कैसे हो? आप ही कुछ उपाय कीजिये, अन्यथा सब-कुछ नष्ट हो जायेगा।’’


    ब्रह्मा ने कहा - ‘‘देवगण! आप भयभीत न हों। यह समय का चक्र है। यह घूमता ही रहता है। आप लोग थोड़ी देर रुकें, मैं कुछ न कुछ उपाय करता हूँ।’’


    उसके उपरान्त ब्रह्मा ने अपनी बुद्धि से एक लाख अध्यायों का एक नीतिशास्त्र रचा। उसमें धर्म, अर्थ एवं काम का वर्णन था, अतः उसका नाम ‘‘त्रिवर्ग’’ रखा गया। इस शास्त्र में साम, दाम, दण्ड, भेद एवं उपेक्षा का वर्णन सविस्तार किया गया। इस नीतिशास्त्र में वह सब-कुछ था, जो एक प्रजापालन में सम्मिलित होना चाहिये। 


    नीतिशास्त्र की रचना करने के उपरान्त ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘देवगण, यह दण्डनीति तीनों लोकों में व्याप्त है। इसी से राज्यव्यवस्था चलती है। इसी से पृथ्वी की कल्याण संभव है। आपलोग इसको ग्रहण करें।’’


    किन्तु वह शास्त्र बड़ा विशाल था। उसका अध्ययन भी कठिन था। देवगण पुनः कठिनाई में थे। उनकी चिंता देखकर भगवान् शंकर ने सर्वप्रथम उस शास्त्र को ग्रहण किया तथा जीवों की घटती आयु को देखते हुए उसे संक्षिप्त किया। तब वह ग्रन्थ ‘वैशालाक्ष’ कहलाया। इसमें दस हज़ार अध्याय थे। पुनः इसे इन्द्र ने ग्रहण किया एवं संक्षिप्त किया। तब इसमें पाँच हज़ार अध्याय रहे गये तथा यह ‘बाहुदन्तक’ कहलाया। तब बृहस्पति जी ने तीन हज़ार अध्यायों तक इसे संक्षिप्त किया तथा वह ‘बार्हस्पत्य’ कहलाया। इसके बाद योगाचार्य गुरु शुक्राचार्य ने इसे संक्षिप्त कर मात्र एक हज़ार अध्यायों का कर दिया। पुनः मनुष्यों की आयु को ध्यान में रखते हुए महर्षियों ने एक छोटा-सा ग्रन्थ बना दिया, जो मनुष्य हेतु प्राप्य एवं प्रजापलन में सहायक हो। यही शास्त्र दण्डनीति कहलाया।


    इसके पश्चात् मृत्यु की मानसी पुत्री सुनीथा से राजा अंग के द्वारा वेन का जन्म हुआ। वह दुराचारी ही रहा। वह राग-द्वेष के अधीन अधर्म करने लगा। तब वेदवादी मुनियों ने उसे अभिमन्त्रित कुशाओं से मार डाला। उसके मरते ही कोई प्रजापालक न रहा। इससे और भी अधिक समस्या उपस्थित हो गयी। इस स्थिति को देखते हुए मुनियों ने वेन के दाहिने हाथ का मंथन किया। उससे इन्द्र के समान तेज वाला वेनपुत्र उत्पन्न हुआ। वह वेद-वेदांगों का ज्ञाता था तथा सभी विद्याओं में पारंगत था। उसका नाम पृथु रखा गया।


    पृथु ने मुनियों से कहा - ‘‘मुनिगण, मुझे धर्म एवं अर्थ के निर्णय की सूक्ष्म बुद्धि है। आपने मुझे जन्म दिया, तो अवश्य ही कोई विशेष कार्य होगा। मुझे बताइये कि मुझे अब क्या करना चाहिये?’’


    मुनियों ने कहा - ‘‘तुम्हें धर्म का पालन करना है और उसे धरती पर पुनः स्थापित करना है। जिस कार्य में धर्म की स्थिति जान पड़े उसे निःशंक करो। सभी जीवों के प्रति समान भाव रखो। जो मनुष्य धर्म से विलग होता दिखाई दे, उसका दमन करो।’’


    पृथु ने कहा - ‘‘मुनिगण, ब्राह्मण तो सर्वदा वन्दनीय हैं, अतः उन्हें छोड़कर मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।’’


    मुनियों ने मान लिया और पृथु ने अपना कार्य आरम्भ कर दिया। तब पृथ्वी बड़ी ऊँची-नीची थी। पृथु ने पत्थर, मिट्टी आदि डलवाकर उसे समतल किया। सभी देवताओं ने मिलकर पृथु का अभिषेक किया। स्वयं पृथ्वी उनकी सभा में उपस्थित हुई थी। पृथु के संकल्प से करोड़ों हाथी, घोड़े, रथ, पैदल आदि उत्पन्न हो गये। सभी जीवों का भय समाप्त हो गया। वे प्रसन्न होकर अपना जीवन जीने लगे। पृथु ने दण्डनीति का सुन्दर अनुपालन किया और धरती को स्वर्ग बना दिया। उन्होंने समस्त प्रजा का ‘रंजन’ किया एवं इसी कारण उन्हें प्रथम ‘राजा’ होने का गौरव प्राप्त हुआ। ब्राह्मणों का क्षति से त्राण किया, इस कारण वे ‘क्षत्रिय’ कहलाये। उन्होंने धर्मानुसार भूमि को प्रथित (पालित) किया और इसी कारण धरती का नाम ‘पृथ्वी’ पड़ा। 


    उनके शरीर में स्वयं भगवान् विष्णु का आवेश था, अतः सारा संसार उन्हें देवता की भाँति मानकर उनका सम्मान करता था। उन्होंने पहली बार पृथ्वी पर दण्डनीति का पालन किया और समस्त संसार को भयमुक्त किया।


    कहते हैं कि सभी राजा को गुप्तचरों द्वारा दृष्टि रखते हुए दण्डनीति का पालन करना चाहिये। राजा के दण्ड का बड़ा महत्त्व होता है, क्योंकि उसी के कारण समस्त राष्ट्र में नीति एवं न्याय का आचरण होता है। 


विश्वजीत 'सपन'

Monday, December 10, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 62)




महाभारत की कथा की 87वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 
 
परशुराम का जीवन-चरित
 

प्राचीन काल में जह्नु नामक एक राजा हुए। उनके पुत्र का नाम था अज। अज से बलाकाश्व का जन्म हुआ। बलाकाश्व के पुत्र कुशिक बड़े धर्मज्ञ हुए। उन्होंने पुत्र-प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या की। तब स्वयं इन्द्र ही उनके पुत्र के रूप में अवतरित हुए एवं उनका नाम पड़ा गाधि। गाधि के कोई पुत्र न था, एक पुत्री हुई, जिसका नाम था सत्यवती। सत्यवती शुद्ध आचरण वाली तपस्विनी स्त्री थी। उसके इस प्रकार के व्यवहार को देखते हुए गाधि ने उसका विवाह मुनि ऋचीक से कर दिया।


मुनि ऋचीक को पता था कि गाधि एवं सत्यवती दोनों को पुत्र प्राप्ति की इच्छा थी। इसको ध्यान में रखते हुए एक दिन उन्होंने राजा गाधि एवं सत्यवती को संतान देने के लिये चरु तैयार किये। सत्यवती को बुलाकर चरु देते हुए उन्होंने कहा - ‘‘देवि! यह दो प्रकार का चरु है। इसमें से यह तुम ले लेना और दूसरा अपनी माँ को दे देना। तुम्हारी माता को एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी, जो बड़े-बड़े क्षत्रियों का संहार करेगा। तुम्हें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण बालक की प्राप्ति होगी, जो तपस्वी एवं धैर्यवान् होगा।’’


ऋचीक मुनि ऐसा कहकर वन को चले गये। तभी तीर्थयात्रा को निकले गाधि अपनी पत्नी सहित ऋचीक के आश्रम पर आये। सत्यवती ने अपनी माता को चरु के बारे में बताया, किन्तु भूलवश चरु बदल गये और उन दोनों के एक-दूसरे के लिये दिये चरु को खा लिया। कुछ समय उपरान्त दोनों को गर्भ ठहर गया। सत्यवती के गर्भ को देखते ही ऋचीक ने पहचान लिया कि चरु खाने में भूल हुई है, वे अपनी पत्नी से बोले - ‘‘यह तो अनुचित हुआ प्रिये, मैंने तुम्हारे चरु में ब्राह्मण का तेज स्थापित किया था, किन्तु अब तुम्हारा पुत्र क्षत्रिय उत्पन्न होगा।’’
 

सत्यवती बोली - ‘‘भगवन्! ऐसा न कहिये। मुझे तो ब्राह्मण पुत्र ही चाहिये।’’

ऋचीक ने कहा - ‘‘मैंने ऐसा संकल्प नहीं किया था, किन्तु चरु के बदल जाने से ऐसा ही होगा।’’


सत्यवती बोली - ‘‘मुनिवर! आप तो इच्छा करते ही सृष्टि रच सकते हैं। कोई उपाय कर मुझे शान्त पुत्र ही दीजिये, चाहे मेरा पौत्र उग्र स्वभाव का क्यों न हो।’’


ऋचीक ने कहा - ‘‘तो फिर ठीक है, जैसा तुम कहती हो, वैसा ही होगा। मैं ऐसा ही वरदान तुम्हें देता हूँ।’’


उसके बाद ऋचीक मुनि के ऐसा संकल्प करने से सत्यवती ने जमदग्नि मुनि को जन्म दिया और राजा गाधि के यहाँ विश्वामित्र पैदा हुए।


विश्वामित्र में ब्राह्मण के गुण हुए और उन्होंने चरु के प्रभाव के कारण ही अंततः ब्राह्मणत्व की प्राप्ति भी की थी। उधर जमदग्नि ने पुत्र अर्थात् सत्यवती के पौत्र परशुराम हुए। उनका स्वभाग उग्र था तथा वे सम्पूर्ण विद्याओं के ज्ञाता हुए।

जब परशुराम बड़े हुए, तब हैहयवंशी क्षत्रियों का स्वामी अर्जुन नामक एक राजा था। अर्जुन राजा कृतवीर्य का पुत्र था। वह बड़ा पराक्रमी था, किन्तु थोड़ा घमण्डी भी था। उसने अश्वमेध यज्ञ से सम्पूर्ण पृथ्वी जीती और उसे ब्राह्मणों को दान में दे दी। उसने दत्तात्रेय की कृपा से सहस्र भुजायें प्राप्त कीं। एक बार अग्नि के भिक्षा माँगने पर उसने अपनी भुजाओं के पराक्रम को बताते हुए उन्हें भिक्षा दी। कुपित अग्नि ने उसके बाणों के अग्रभाग से निकलकर अनेक गाँवों, नगरों आदि का जला दिया। इस आग ने आपव मुनि का आश्रम भी जला दिया। तब कुपित होकर आपव मुनि ने उसे शाप देते हुए कहा - ‘‘तुम्हें जिन भुजाओं पर घमण्ड है, उसका नाश होगा, उन्हें संग्राम में परशुराम जी काट डालेंगे।’’


अर्जुन के पुत्र बड़े बली थे, किन्तु मूर्ख भी थे। वे घमण्डी एवं क्रूर भी थे। एक दिन वे जमदग्नि के आश्रम के पास से निकल रहे थे। उन्होंने उनकी गाय के बछड़े को चुरा लिया। उस बछड़े के लिये बड़ा भयंकर युद्ध हुआ और उस युद्ध में परशुराम ने अर्जुन की भुजाओं को काट दिया। फिर वे बछड़े को लेकर अपने आश्रम चले गये। 


अर्जुन के पुत्र भी चुप रहने वालों में से न थे। एक दिन अवसर पाकर जब परशुराम आश्रम में न थे तथा कुश एवं समिधा लाने वन गये हुए थे, तब अर्जुन के पुत्रों ने जगदग्नि का सिर काटकर उनका वध कर दिया। पिता के वध से क्रोधित होकर परशुराम ने क्षत्रियों के विनाश का संकल्प लिया और अस्त्र उठा लिये। सर्वप्रथम उन्होंने हैहयवंशियों पर आक्रमण किया एवं उन्हें समूल नष्ट कर दिया। इसके बाद भी कुछ क्षत्रिय बच गये थे। धीरे-धीरे उन्होंने अपना पराक्रम बढ़ाया। जैसे ही परशुराम जी को यह पता चला तो उन्होंने पुनः शस्त्र उठाये एवं क्षत्रियों के बालकों तक को मार दिया। अब क्षत्रिय मात्र गर्भ में ही बचे थे। वे बच्चे भी जब जन्म लेते थे, तो उनका पता लगाकर वे उनका भी वध कर देते थे। इस प्रकार इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार करके उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया तथा सम्पूर्ण पृथ्वी को कश्यप जी को दान में दे दी। तब क्षत्रियों की रक्षा करने के उद्देश्य से कश्यप ने परशुराम से कहा - ‘‘परशुराम, तुमने अपना कार्य सम्पन्न कर लिया। तुम अब दक्षिण समुद्र के किनारे चले जाओ और मेरे राज्य में कभी निवास न करना।’’

परशुराम वहाँ से चले गये और समुद्र ने उनके लिये स्थान खाली किया, जो शूर्पारक देश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे अपरान्त भूमि भी कहते हैं।


विश्वजीत ‘सपन’

Tuesday, December 4, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 61)


महाभारत की कथा की 86वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

मानव धर्म का रहस्य
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प्राचीन काल की बात है। विदेहराज जनक को शोक हुआ। वे इससे मुक्ति पाना चाहते थे। तब उन्होंने विप्रवर अश्मा से पूछा - ‘‘हे विप्रवर! मुझे शोक हुआ है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि ऐसे में क्या करना चाहिये। कृपा कर अपना कल्याण करने वाले मानव का व्यवहार कैसा होना चाहिये, इसका ज्ञान मुझे दीजिये?’’


अश्मा महान् ज्ञानी एवं तत्त्ववेत्ता थे। वे राजा की दुविधा को समझ रहे थे। उन्होंने कहा - ‘‘राजन्! मानव जीवन को भली-भाँति समझना आवश्यक होता है। इस बात को मन में अच्छी तरह से बिठा लें कि जन्म लेते ही प्रत्येक मानव दुःख एवं सुख का अनुभव करने लगता है। इसी कारण उसका ज्ञान अंधकार में छुप जाता है। जिस प्रकार वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, ठीक उसी प्रकार ये सुख-दुःख भी मानव के ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। असल में सुख एवं दुःख प्रारब्ध के अनुसार आते ही हैं और आयेंगे ही। इनसे मुक्ति संभव नहीं है। विधाता की करनी बड़ी विचित्र है। भूख-प्यास, रोग, आपत्ति, ज्वर, मृत्यु आदि सब के सब जीव के जन्म के समय ही निश्चित हो जाते हैं। नियम के अनुसार समस्त प्राणियों को इनसे होकर ही जाना पड़ता है। इस प्रकार काल के प्रभाव से जीवों का सम्बन्ध इष्ट एवं अनिष्ट दोनों से होता है। यही जीवन है तथा जीवन का यही ज्ञान वास्तविक ज्ञान कहलाता है।’’


जनक ने पूछा - ‘‘हे ब्राह्मण देवता, आपने सही कहा। मुझे यह बताने का कष्ट करें कि क्या मृत्यु पर विजय नहीं पायी जा सकती?’’


अश्मा ने कहा - ‘‘यह संभव नहीं है राजन्, मृत्यु सभी को आनी है, तब वह चाहे आज हो अथवा कल। मनुष्य जब मृत्यु के निकट होता है अथवा जब वह वृद्धावस्था में जाता है, तब कोई औषधि, मन्त्र, होम अथवा पूजा उसे बचा नहीं सकते। मृत्यु का यह लम्बा मार्ग समस्त जीवों को तय करना ही पड़ता है। तपस्वी, दानी एवं बड़े-बड़े यज्ञ करने वाले भी वृद्धावस्था तथा मृत्यु को पार नहीं कर सकते।’’ 


राजा जनक ने कहा - ‘‘उचित है विप्रवर, कृपया ये भी बतायें कि हमारे संबंधी, नाते-रिश्तेदार आदि के संदर्भ में क्या सत्य है? हमारा मोह उनसे लगा ही रहता है।’’


अश्मा ने कहा - ‘‘राजन्! बड़ा ही सुन्दर प्रश्न किया आपने। इसके उत्तर को समझ लेने वाले को कभी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता है। ये रिश्ते-नातेदार भी उसी प्रकार मिलते एवं बिछुड़ते रहते हैं, जिस प्रकार समुद्र में दो लक्कड़ मिलते एवं बिछुड़ते रहते हैं। इस संसार में माता-पिता, स्त्री, पुत्र, पुत्री आदि किसके हुए हैं? विचार करें, तो इस जीव का न तो कोई सम्बन्धी हुआ है तथा न कभी होगा। याद कीजिये कि आपके बाप-दादा कहाँ चले गये? अब न वे आपको देख सकते हैं और न आप उन्हें। सब के सब एक दिन मिट जाते हैं। स्वर्ग एवं नरक को मनुष्य अपनी आँखों से कभी देख ही नहीं सकता। उन्हें देखने के लिये सत्पुरुष शास्त्ररूपी नेत्रों से काम लेते हैं। अतः इस बात को समझिये कि यह संसार ही अनित्य है एवं चक्र के समान घूमता रहता है। सभी को आना है तथा पुनः जाना है। यही नियम है, अतः जीव को सभी प्रकार के शोकों को भूल जाना चाहिये। उसे स्वयं से पूछना चाहिये कि शोक किसके लिये करना है? मेरा तो कोई है ही नहीं। किसी के प्रति मोह मात्र जीव का भ्रम है।’’


राजा जनक ने पूछा - ‘‘विप्रवर! यदि यह संसार ही भ्रम है, तो ऐसे में एक मानव का स्वभाव क्या होना चाहिये? उसे किस प्रकार का आचरण करना चाहिये?’’


अश्मा ने कहा - ‘‘जिसे अपने कल्याण की चिंता है, उस मनुष्य को शास्त्रों का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिये। उसे चाहिये कि वह पितरों का श्राद्ध एवं देवताओं के पूजन करे। पहले मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। उसके बाद उसे गृहस्थ आश्रम का पालन करना चाहिये। पितरों एवं देवताओं के ऋण से मुक्त होकर संतान उत्पन्न करना चाहिये तथा यज्ञादि करना चाहिये। उसे हृदय का शोक त्याग कर इहलोक, स्वर्गलोक अथवा परमात्मा की आराधना करनी चाहिये। जो राजा शास्त्र के अनुसार धर्म का आचरण करता है तथा द्रव्य-संग्रह करता है, उसका सम्पूर्ण विश्व में सुयश फैलता है, अतः राजन् तुम्हें भी ऐसा ही करना चाहिये।’’


अश्मा मुनि के इस प्रकार कहने से राजा जनक का शोक दूर हो गया। उन्हें धर्म के रहस्य की प्राप्ति हुई तथा उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी। उनका मनोरथ पूर्ण हुआ और वे प्रसन्नचित्त होकर अपने महल वापस लौट गये। यही जीवन का रहस्य है। यही मानव का धर्म है। जो मानव इस प्रकार अपना जीवन यापन करता है, उसे अंततः अंतिम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।


विश्वजीत 'सपन'