Friday, January 18, 2019

महाभारत की लोककथा भाग - 67


महाभारत की कथा की 92 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

विपत्ति का समाधान शोक नहीं

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    प्राचीन काल की बात है। कोसल के राजकुमार क्षेमदर्शी को विपत्ति का सामना करना पड़ा। उसकी समस्त सैनिक शक्ति नष्ट हो गयी। वह शोक करने लगा। जब उसे कोई उपाय न सूझा, तो उसने कालकवृक्षीय मुनि से इसके समाधान की आशा में उनके आश्रम गया और बोला - ‘‘मुनिवर! मैं बड़ी विपत्ति में हूँ। मेरी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गयी। मेरे पास धन नहीं रहा, किन्तु उसका मोह नहीं छोड़ पा रहा हूँ। बार-बार प्रयास करने पर मुझे अपना राज्य नहीं मिल पा रहा। सैनिक शक्ति भी नष्ट हो चुकी है। मैं बड़ी सोचनीय अवस्था में पड़ा हूँ। कृपाकर कुछ ऐसा उपाय बतायें कि मुझे सुख एवं शान्ति की प्राप्ति हो सके।’’


    कालकवृक्षीय मुनि को राजकुमार की दशा का पता था। उसे उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता थी, क्योंकि वह मोह में पड़ गया था। ऐसा विचारकर उन्होंने इस प्रकार कहा - ‘‘राजकुमार! सर्वप्रथम जिस वस्तु को तुम समझते हो कि ‘वह है’, उसको समझो कि ‘वह नहीं है’। यदि किसी ने ऐसा समझ लिया, तो उसे विपत्ति आने पर भी शोक नहीं होता। यदि तुम बड़ी सम्पत्ति का मोह त्याग न सको, तो कम से कम उसकी ममता का त्याग कर दो। यदि तुम यह मान लेते तो कि जो वस्तु थी, वह मेरी न थी, तब तुम्हें उसके खोने का दुःख न होगा।’’


    राजकुमार ने पूछा - ‘‘सम्पत्ति तो फिर बनायी जा सकती है, किन्तु घर-परिवार आदि का क्या करें?’’


    मुनि ने कहा - ‘‘आज तुम्हारे पितामह कहाँ है? अनेक नाते-रिश्तेदार नहीं रहे। यह शरीर ही अनित्य है। इसे जाना ही होता है। एक दिन तुम भी न रहोगे। फिर किसके लिये शोक करना? प्रारब्ध बड़ा प्रबल है, वही देता है और छीन भी लेता है। यह धारणा रखो, तो सब ठीक हो जाता है।’’


    राजकुमार बोला - ‘‘उचित कहा आपने। मुझे भी दैवयोग से अनायास ही राज्य प्राप्त हो गया था, जिसे काल ने छीन लिया। अब तो जो कुछ भी मिल जाता है, उन्हीं से जीवन-निर्वाह कर रहा हूँ।’’


    मुनि ने इसका समाधान देते हुए कहा - ‘‘उचित है, क्योंकि प्रारब्ध को कोई बदल नहीं सकता। यद्यपि धन पाना दुर्लभ है तथापि यह अस्थिर है। इसे इसी प्रकार समझकर सत्पुरुष इसका परित्याग कर देते हैं। दैववश जो भी हमें मिलता है, हमें उसमें ही आनन्दित होना चाहिये। दूसरे के धन को देखकर ईर्ष्या करने से शोक होता है। धर्मात्मा एवं धीर पुरुष तो स्वयंमेव राज्यलक्ष्मी एवं पुत्र-पौत्रों का परित्याग कर देते हैं। तुम भी ऐसा ही करो।’’


    राजकुमार ने पूछा - ‘‘तो क्या अर्थ की कामना ही व्यर्थ है?’’


    मुनि ने उत्तर दिया - ‘‘तुम अर्थ को अनर्थ के रूप में समझो। अर्थ से भोग की इच्छा जागृत होती है। भोगजनित इच्छा से अर्थ सम्पादन की इच्छा जागृत होती है। मानव इसमें इतना रम जाते हैं कि उन्हें इससे बड़ा कोई सुख नहीं लगता, किन्तु यह किसी का नहीं होता। जब इसका नाश होता है, तब उसका सारा सम्मान भी नष्ट हो जाता है। कुछ लोग तो ऐसे भी होते हैं कि धन के लोभ में पड़कर अपने प्राण भी गँवा बैठते हैं।’’


    राजकुमार को उपदेश समझ में आ रहा था। उसकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। उसने पूछा - ‘‘फिर जीवन क्या है? उसका उद्देश्य क्या है?’’


    मुनि ने समझाते हुए इसका उत्तर दिया - ‘‘धन जीवन का उद्देश्य नहीं है। धन-संग्रह का अंत विनाश होता है। जीवन का अंत मरण है और संयोग का अंत वियोग। इस बात को समझो कि चाहे मनुष्य धन को छोड़ता है अथवा धन उसे छोड़ देता है। धन किसी के पास कभी टिककर नहीं रहता।’’


    राजकुमार ने कहा - ‘‘आपकी बात समझ गया मुनिवर। अब मुझे क्या करना चाहिये?’’


    कालकवृक्षीय मुनि ने कहा - ‘‘इसे समझने का प्रयास करो कि विपत्ति मात्र तुम्हारे ऊपर नहीं आई है। यह किसी के भी ऊपर आ सकती है, अतः मन, वाणी एवं इन्द्रियों पर नियंत्रण रखो। घबराओ नहीं, तुममें उत्तम ज्ञान है। तुम्हारी इच्छा भी थोड़ी है। तुममें चंचलता भी नहीं है। तुम्हारा हृदय कोमल है एवं तुम्हारी बुद्धि भी निश्चित पर टिकी है। तुम्हें कपट से भरी एवं शास्त्र के विरुद्ध वृत्ति का आश्रय नहीं लेना चाहिये। तुम सर्वस्व का त्याग कर दो। फल, फूल ग्रहण करते हुए, वन में विचरते हुए अपनी जीविका का निर्वाह करो।’’


    राजकुमार क्षेमदर्शी ने कहा - ‘‘किन्तु राज्य की प्राप्ति कैसे हो?’’


मुनि ने कहा - ‘‘काम, क्रोध, हर्ष, भय एवं दम्भ का त्यागकर शत्रुओं की भी सेवा करो। उनसे मेल बढ़ाओ। किसी प्रकार राजा जनक को प्रसन्न करो। बुद्धिमानों का विश्वास-भाजन बनकर शत्रुओं के राज्य में भ्रमण करो। शत्रु का कोष खाली करवा दो। दान करवा के उसकी सम्पत्ति क्षीण कर दो। नीरोग शत्रु को कृत्रिम उपायों से मरवा दो। तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।’’


राजकुमार ने कहा - ‘‘किन्तु मैं कपट से कुछ नहीं करना चाहता। अपना राज्य भी नहीं चाहता। मुझे कोई दूसरा उपाय बताइये।’’


मुनि ने कहा ‘‘तुम सत्य ही गुणों से युक्त हो। अगली बार जब विदेहराज आयेंगे, तो मैं अवश्य तुमसे मित्रता का आदेश दूँगा।’’


उसके उपरान्त उन्होंने विदेहराज को संदेश भिजवाया। वे आये तो उनसे कहा - ‘‘यह राजकुमार उच्च कुल का है। यह धर्मात्मा है। इसमें कोई भी दुर्भावना नहीं है। इससे संधि कर लो।’’


जनक ने कहा - ‘‘आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है। आपने मेरे कल्याण के लिये ही सोचा होगा।’’


फिर उन्होंने कोसल राजकुमार को बुलाकर कहा - ‘‘मैंने धर्म एवं नीति का पालन कर धरती पर विजय पायी है, किन्तु आपने अपने गुणों से मुझे जीत लिया। आप मेरे घर पधारें।’’


उसके उपरान्त दोनों ने मुनि को प्रणाम किया और मिथिला नगरी की ओर प्रस्थान कर गये। राजकुमार के साथ उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। उन्हें धन-सम्पत्ति देकर विदा किया।


शास्त्रों में कहा गया है कि जब राजा मेल से रहते हैं, तो उनकी उन्नति कोई नहीं रोक सकता।


Friday, January 11, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 66)




महाभारत की कथा की 91 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।  

विरोध से किसी का भला नहीं होता
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    यह एक प्राचीन इतिहास है। पूर्वकाल में एक समय था, जब धरती पर राजा पुरूरवा का राज्य था। वे बड़े धर्मज्ञ एवं नीतिपरायण राजा थे। जब भी उन्हें कोई शंका होती थी, तब वे महर्षि कश्यप के पास जाकर उसका समाधान किया करते थे। एक बार ऐसी ही शंकायें लेकर वे कश्यप के पास गये। कश्यप ने उनका आश्रम में स्वागत किया और बोले - ‘‘कहिये राजन्! आप किस प्रयोजन से मेरे आश्रम में पधारे हैं? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’’


    पुरूरवा ने कहा - ‘‘मुनिवर! जब ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों एक-दूसरे का परित्याग कर दें, तो दूसरे वर्ण के लोग किसे प्रधान समझें और प्रजा को किसका पक्ष लेना चाहिये? कृपया मेरी इस शंका का समाधान करें।’’


    कश्यप ने कहा - ‘‘राजन्! ब्राह्मण एवं क्षत्रिय में विरोध उचित नहीं। जहाँ क्षत्रिय ब्राह्मण का विरोध करते हैं, वहाँ क्षत्रिय का राज्य नष्ट हो जाता है। उन क्षत्रियों की वृद्धि रुक जाती है। तब क्षत्रिय न यज्ञ कर पाते हैं और न ही वेदाध्ययन। उनका विकास पूरी तरह से रुक जाता है। वे तब अमंगल करने लगते हैं एवं धर्म से विलग हो जाते हैं।’’
    पुरूरवा ने कहा - ‘‘उचित है, मुनिवर। यदि ब्राह्मण क्षत्रिय का विरोध करे, तो क्या होता है?’’


    कश्यप ने कहा - ‘‘राजन्! तब ब्राह्मण की रक्षा नहीं होती। उन्हें भय का जीवन बिताना पड़ता है। उन्हें दान-उपहार नहीं मिलता, तो जीवकोपार्जन उनके लिये कठिन हो जाता है, अतः दोनों को मिलकर रहना चाहिये। ब्राह्मण की उन्नति का आधार क्षत्रिय होता है और क्षत्रिय के अभ्युदय का आधार ब्राह्मण। दोनों जातियाँ एक-दूसरे पर आश्रित हैं, यदि इनकी प्राचीन काल से चली आ रही मित्रता टूट जाती है, तो विनाश प्रारंभ हो जाता है। चारों वर्णों की प्रजा पर मोह छा जाता है। प्रजा अपने मार्ग से भटक जाती है।’’


    पुरूरवा ने कहा - ‘‘क्या ब्राह्मणों को छोड़ देना पापकर्म के समान है?’’


    कश्यप ने कहा - ‘‘महाराज, इसे इस प्रकार समझें। ब्राह्मणरूपी वृक्ष सुख एवं सुवर्ण की वर्षा करता है। यदि उसकी रक्षा न की गयी, तो इससे निरन्तर दुःख एवं पाप की वृद्धि होती है। तब क्षत्रिय न चाहते हुए भी पापियों के संसर्ग में आ जाते हैं। तब उनसे पापकर्म होने लगता है, जिस कारण वे वर्षों तक कष्ट भोगते हुए दौड़ते फिरते हैं। वहीं ब्राह्मण जैसे पुण्यात्माओं के संसर्ग से वे सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को पुण्य लोक की प्राप्ति होती है। जहाँ घी के दिये जलते हैं। अतः ब्राह्मणों का सम्मान करना समाज के हित में होता है।’’


    पुरूरवा ने पूछा - ‘‘उचित कहा आपने गुरुवर। इस संदर्भ में एक राजा का क्या कर्तव्य होना चाहिये?’’


    कश्यप ने उन्हें समझाया - ‘‘राजा को एक बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि विद्वान्, ज्ञानी, तपस्वी ब्राह्मणों का कभी तिरस्कार नहीं करना चाहिये। ऐसा होने से राजा को हानि होती है। प्रजा को असह्य दुःख उठाना पड़ता है। एक राजा को चाहिये कि वह एक बहुज्ञ पुरोहित अवश्य बनाये। राज्याभिषेक होने के पूर्व ही एक योग्य पुरोहित का वरण कर लेना चाहिये। इसका कारण यही है कि धर्म के अनुसार ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है। वेदवत्ता विद्वानों का कहना है कि सर्वप्रथम ब्राह्मण का जन्म हुआ था, अतः वे सभी वर्णों में ज्येष्ठ, सम्माननीय तथा पूजनीय होते हैं। बलवान् होते हुए भी राजा का कर्तव्य है कि वह धर्मानुसार सभी उत्तम वस्तुओं का निवेदन ब्राह्मण से करे। इस बात में संदेह नहीं कि ब्राह्मण क्षत्रिय को उन्नतिशील बनाते हैं एवं क्षत्रिय ब्राह्मण की उन्नति में कारण होते हैं। राजा का कर्तव्य यही है कि वह सदा ही ब्राह्मण का विशेष सम्मान करे।’’


    पुरूरवा ने सम्मान से महर्षि कश्यप को प्रणाम किया तो कश्यप ने पुनः कहा - ‘‘राजन्! धर्म एवं अर्थ को समझना कठिन होता है, अतः एक राजा को सत्परामर्श के लिये एक बहुज्ञ पुरोहित अवश्य रखना चाहिये। जिस देश में राजा एवं पुरोहित धर्मज्ञ तथा राजनीति के गूढ़ रहस्य को समझने वाले होते हैं, उस राज्य का एवं उसकी प्रजा का भला होता है। ब्राह्मण एवं क्षत्रिय में परस्पर सद्भाव होता है, तो प्रजा को सुख मिलता है। यदि उनमें वैमनस्य होता है, तो उस राज्य एवं उसकी प्रजा का निश्चित ही नाश होता है।’’


    पुरूरवा को समाधान मिल गया था। महर्षि कश्यप के बताये मार्ग पर चलते हुए एवं धर्म का पालन करते हुए उन्होंने अनेक वर्षों तक धरती पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा सुखी रही एवं भयरहित रही।


    जीवन में परस्पर मिलकर रहने से ही जीवन सुखमय एवं शान्तिमय रहता है। विरोध से कभी किसी का भला नहीं होता। यह मूलमंत्र ही इस कथा का उद्देश्य है।


विश्वजीत 'सपन'

Friday, January 4, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 65)




महाभारत की कथा की 90 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 
 

राजा की आवश्यकता
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किसी भी प्रकार के समाज में एक राजा की आवश्यकता होती है। जिस देश में राजा नहीं होता, उसमें धर्म की स्थिति नहीं होती। तब राज्य में अराजकता फैल जाती है। पापियों द्वारा समस्त प्रजा को कष्ट पहुँचाया जाता है। इसी कारण देवताओं ने प्रजापालन के लिये राजाओं की सृष्टि की है। पूर्वकाल में एक बार ऐसा ही हुआ कि धरती पर धर्म का लोप होने लगा। राजा से हीन धरती नष्ट होने वाली थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि धरती पर प्रजा नहीं होगी। अधर्म का बोलबाला होने लगा था। देवताओं ने जब देखा, तो वे बड़े दुःखी हुए। वे सभी मिलकर ब्रह्मा जी के पास गये एवं उनसे कहा - ‘‘भगवन्! धरती पर विनाश के बादल छा गये हैं। धर्म एवं वेद का लोप हो रहा है। प्रजा मोह में पड़कर अनुचित कार्यों में संलग्न हो रही है। वहाँ कोई राजा नहीं है। आप ही कुछ उपाय करें, अन्यथा समस्त पृथ्वी का विनाश हो जायेगा।’’


    तब ब्रह्मा जी कहा - ‘‘देवतागण, आप लोग चिंता न करें। पृथ्वी की स्थिति मुझे भी ज्ञात है। आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें। मैं कुछ उपाय करता हूँ।’’


उसके उपरान्त उन्होंने थोड़ी देर तक आपनी आँखें मूँदकर विचार किया। फिर उन्होंने मनु को बुला भेजा।


मनु ने आकर उन्हें प्रणाम किया और बोले - ‘‘भगवन्! आपने मुझे किस प्रयोजन से बुलाया है? आपकी क्या आज्ञा है?’’


ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘जाओ तुम पृथ्वी पर जाकर राजा का कर्म करो तथा नष्ट होती पृथ्वी की रक्षा करो। यह कार्य तुम्हीं कर सकते हो।’’


    मनु के मन में अनेक आशंकायें थीं। वे राजा बनना नहीं चाहते थे। उन्होंने ब्रह्मा जी से कहा - ‘‘भगवन्! मुझे राजा नहीं बनना है। राजा का कार्य बड़ा कठिन होता है। फिर मैं पाप से अत्यधिक डरता हूँ। विशेषतः मनुष्य जाति में असत्यपूर्ण आचरण अत्यधिक होता है। उनका राजा बनना एक कठिन कार्य है तथा पाप में पड़ने जैसा है, अतः मुझे क्षमा करें।’’


    तब ब्रह्मा जी ने राजा की महत्ता बताते हुए तथा स्वयं ब्रह्मा की भक्ति हेतु प्रेरित करते हुए कहा - ‘‘तुम पापकर्म से मत डरो। जो पाप करेगा, उसे ही पाप लगेगा। इसमें तुम्हें कोई दोष न होगा। राजा तो निष्पक्ष होता है। वह धर्म का पालन करता है। मेरा विश्वास है कि तुम बड़े सुयोग्य राजा होगे। तुम्हारे प्रताप से प्रजा सुखी रहेगी। कोई भी तुम्हें दबा नहीं पायेगा। तुम सर्वदा विजयी होगे। तुम्हारे कारण जो प्रजा सुखी होगी तथा धर्म का कार्य करेगी, तब उसका चतुर्थांश तुम्हें भी मिलेगा। उस धर्म के प्रभाव से तुम्हें ब्रह्मा की भक्ति का प्रसाद मिलेगा। मेरी आज्ञा है कि तुम पृथ्वी पर जाओ एवं शत्रुओं का मानमर्दन करो। प्रजा की रक्षा करो। उनको धर्म में लगाओ। तुम्हें सदा विजय की प्राप्ति हो।’’


    इस प्रकार जब ब्रह्मा जी ने मनु को प्रेरित किया, तो मनु पृथ्वी का राजा बनने के लिये तैयार हो गये। उसके उपरान्त उन्होंने ब्रह्मा जी से आज्ञा ली, उन्हें प्रणाम किया तथा बड़ी भारी सेना लेकर विजय अभियान के लिये निकल पड़े। 


    मनु महाराज ने पृथ्वी पर सर्वत्र घूम-घूमकर पापियों का दमन किया। सभी शत्रु राजाओं को हराकर एक राज्य की स्थापना की। उनके पराक्रम को देखकर सभी दंग रह गये। कुछ ही समय में प्रजा में भय की समाप्ति हुई। वे सुखपूर्वक रहने लगे। मनु ने धर्म का कार्य प्रारंभ किया। धीरे-धीरे प्रजा भी धर्म के कार्यों को करने लगी। समस्त पृथ्वी में शान्ति-व्यवस्था की स्थापना हुई। बुरे एवं अनुचित कर्म करने वालों को उचित दण्ड देकर उन्होंने समाज को उचित मार्ग दिखाया। उन्होंने अपने राजा होने के सभी कर्तव्यों का पालन किया।


    उन्होंने ब्राह्मणों का सत्कार किया। उन्हें दान देकर पुण्य का कार्य किया। ब्राह्मण उन्हें आशीर्वाद देते थे, फलतः उन पर बुरी शक्ति की छाया न पड़ने पाती थी। ऋषि-मुनि निष्कंटक वन में रहने लगे। उनका भय समाप्त हो गया। वे राजा के लिये लिये यज्ञ करने लगे। उनकी प्रजा बड़ी सुखी थी। वे राजा का सम्मान करने लगे। उन्हें प्रतिदिन राजकोष के लिये अनेक प्रकार के उपहार देने लगे। इस प्रकार राजकोष समृद्ध होने लगा। मनु महाराज ने भी उस राजकोष का उचित उपयोग किया। सारा धन वे प्रजा की सेवा, उनकी दरिद्रता आदि को मिटाने में खर्च करने लगे। इससे समस्त प्रजा की दीनता समाप्त हो गयी। प्रजा उनके गुणगान गाने लगी। उनके लिये अपने-अपने घरों में पूजा-अर्चना करने लगे। उनकी लम्बी आयु की प्रार्थना करने लगे। उसके बाद मनु महाराज ने पृथ्वी पर अनेक वर्षों तक राज्य किया। अंततः उनके समस्त कार्यों के कारण उन्हें ब्रह्मा जी का प्रसाद मिला। उनकी भक्ति का फल मिला।


प्रस्तुति - विश्वजीत 'सपन'