Thursday, February 28, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 71)



महाभारत की कथा की 96 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

शोकाकुल चित्त की शान्ति

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    प्राचीन काल की बात है। सेनजित् नामक एक राजा था। उसका जीवन बड़ा सुखमय था। दैवयोग से एक दिन उसे पुत्र वियोग हो गया। उसका पुत्र कहीं चला गया। प्रयास करने पर भी न मिला। तब वह शोकातुर हो गया। इस प्रकार उसे देखकर एक ब्राह्मण ने उससे कहा - ‘‘राजन्! आप एक मूढ़ मनुष्य की भाँति मोहित हो रहे हैं। यह किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति के लक्षण नहीं हैं। आपको शोक नहीं करना चाहिये।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘आपकी बात उचित जान पड़ी है ब्राह्मण देवता, किन्तु मनुष्य इस शोक से कैसे छुटकारा पा सकता है? आप ही कुछ उपाय बतायें।’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘सुनिये राजन्, मैं इस शरीर अथवा पृथ्वी को अपनी नहीं मानता। यह जैसी दूसरों की है, वैसे ही मेरी भी है। इस प्रकार सोचने से मुझे व्यथा नहीं होती।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘किन्तु, मेरा पुत्र मुझसे बिछड़ गया है। वह मेरा अपना है। इस दुःख से कैसे छुटकारा मिल सकता है?’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘जिस प्रकार समुद्र में दो लकड़ियाँ मिलती हैं और पुनः अलग-अलग हो जाती हैं, ठीक उसी प्रकार मानव के जीवन में अनेक लोग आते हैं और अलग हो जाते हैं। यह क्रम चलता रहता है। आपका पुत्र किसी अज्ञात स्थान से आया था और किसी अज्ञात स्थान को चला गया। यही नियम है। संसार में विषयतृष्णा से जो व्याकुलता होती है, उसी का नाम दुःख है। इस दुःख का नाश ही सुख है।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘ऐसी स्थिति क्यों होती है देव? क्या यह सभी के साथ होती है अथवा किसी विशेष कारण से होती है?’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘मनुष्य अनेक प्रकार के बंधनों में फँसे होते हैं। जल में बालू का पुल बनाने वालों की भाँति अपने कार्यों में असफल होने दुःख पाते हैं। जिस प्रकार एक बूढ़ा हाथी दलदल में फँसकर अपने प्राण खो बैठता है, ठीक उसी प्रकार मानव पुत्र, स्त्री, कुटुम्ब आदि की आसक्ति में फँसकर शोक के समुद्र में डूबे रहते हैं। जब पुत्र, धन अथवा बन्धु-बान्धवों का नाश होता है, तो वे दुःख के सागर में गोते लगाने लगते हैं। उसे जान लेना चाहिये कि सुख-दुःख एवं जीवन-मृत्यु सब दैव के अधीन होता है।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘इसे कैसे समझें और इसे समझने वाली आप जैसी बुद्धि हमें किस प्रकार आ सकती है? कृपया विस्तार से बतायें।’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘राजन्! आपने उचित कहा। संसार की गति को कोई बुद्धिमान ही समझ सकता है। बुद्धियोग का सुख जिन्हें प्राप्त है, उन्हें हर्ष अथवा शोक छू भी नहीं सकता। शोक के सहस्रों स्थल हैं, भय के सैंकड़ों अवसर हैं, किन्तु बुद्धिमानों पर इनका प्रभाव नहीं पड़ता। जो बुद्धिमान, विचारशील, शास्त्राभ्यासी, ईर्ष्याहीन, संयमी एवं जितेन्द्रिय होता है, उसे शोक स्पर्श भी नहीं कर सकता।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘इस प्रकार शोकहीन बनने के लिये हमें क्या करना चाहिये ब्राह्मण देवता?’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘राजन्! एक बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह सुख या दुःख, प्रिय अथवा अप्रिय जो-जो भी प्राप्त हो उनका सामना उत्साह से करे, कभी भी हिम्मत न हारे। उसे अपने निश्चय पर डटा रहना चाहिये एवं संयत चित्त से व्यवहार करना चाहिये। जब सत्य एवं असत्य, शोक एवं आनन्द, भय एवं अभय तथा प्रिय एवं अप्रिय इन सभी का कोई त्याग कर देता है, तब वह परम शान्तचित्त हो जाता है।’’


सेनजित् ने कहा - ‘‘आपने उचित कहा ब्राह्मण देवता, किन्तु ऐसा दुःख हमें होता ही क्यों है? इसका अंत कब होता है?’’


ब्राह्मण ने कहा - ‘‘सुनिये राजन्, मनुष्य बु़िद्धमान हो अथवा मूर्ख, शूरवीर हो अथवा कायर, उसे अपने पूर्वजन्म के कर्मों के कारण शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार के फल भोगने ही होते हैं। इस प्रकार जीवों को प्रिय एवं अप्रिय तथा सुख एवं दुःख बारी-बारी से प्राप्त होते ही रहते हैं। जब दुःख का नाश होता है, तब सुख का उदय होता है। इस सुख-दुःख का चक्र हमेशा ही घूमता रहता है। आज आपको दुःख है, तो कल आपको सुख मिलेगा। यह निश्चित है। सबसे बड़ी बात है कि जो प्राणों के साथ जाने वाला रोग है, उस तृष्णा का जो त्याग देता है, वह सुखी हो जाता है। इस सम्बन्ध में पिंगला की गाथा प्रसिद्ध है। उसे सुनिये आपका दुःख दूर हो जायेगा।


पिंगला नाम की एक वेश्या थी। वह एक बार अपने प्रेमी की प्रतीक्षा में बड़ी देर तक बैठी रही। उसका प्रेमी नहीं आया। तब उसने विचार किया कि इतने दिनों तक मैं अपने प्रेम को पहचान न सकी। मेरा प्रेमी मेरे पास था, किन्तु मुझे ज्ञात न हो सका। तो यह कामना ही व्यर्थ है। आज से मैं समस्त कामनाओं को तिलांजलि देती हूँ। भोगों का रूप धारण करके ये नरकरूपी धूर्त मनुष्य अब मुझे धोखा नहीं दे सकते। मुझे अब कोई आशा नहीं रह गयी। अब मैं सुख की नींद सो सकती हूँ। इस प्रकार विचारकर पिंगला ने अपना जीवन सुखमय कर लिया था। ठीक उसी प्रकार आपको भी समस्त आशाओं का त्याग कर अपने जीवन को सुखमय बनाना होगा।’’


ब्राह्मण की बातें सुनकर सेनजित् का दुःख सदा के लिये चला गया। कहते हैं कि मानव-जीवन में शोक होना अवश्यम्भावी होता है, किन्तु उससे संतप्त होने वाला कभी सुखी नहीं रहता। अतः दुःख का त्याग करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये।


विश्वजीत 'सपन'

Wednesday, February 20, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 70)


महाभारत की कथा की 95 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

प्रायश्चित्त ही पाप का निवारण

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पूर्वकाल की बात है। राजा परिक्षित का पुत्र जनमेजय बड़ा पराक्रमी राजा था। एक दिन की बात है, उसे बिना जाने ही ब्रह्महत्या का पाप लग गया। पुरोहित एवं ब्राह्मणों ने उसका त्याग कर दिया। इस प्रकार वह अकेला हो गया। उससे राज्य का कार्य भी अच्छी तरह से देखा न जाता था। वह पाप की अग्नि में जलने लगा। कुछ उपाय न जानकर इस पाप से मुक्ति के लिये वह वन में जाकर तप करने लगा। अनेक वर्षों तक उसने तप किया, किन्तु उसे संतुष्टि न मिली। तदुपरान्त वह इधर-उधर भटकने लगा। उसने इस दौरान अनेक लोगों से अपने पाप के प्रायश्चित्त के बारे में पूछा, किन्तु उसे कोई समाधान न मिला। हाँ एक सुझाव मिला कि वह महातपस्वी शुनकवंशी इन्द्रोक्त मुनि के पास जाये। वही उनका कल्याण कर सकते थे। तब वह दीन-हीन बनकर मुनि इन्द्रोक्त के आश्रम गया।


मुनि ने उसे देखते ही कहा - ‘‘अरे महापापी, ब्राह्मण को मारने के कारण तेरा चित्त अशुद्ध हो गया है। तुम्हारा जीवन व्यर्थ है। तू अभी यहाँ से चला जा। तेरे जैसे पापी का इस आश्रम में कोई कार्य नहीं। तू नीच है, पापी है।’’


जनमेजय ने कहा - ‘‘मुने! मैं अवश्य ही धिक्कार के योग्य हूँ। मैं पापी हूँ, किन्तु इसकी चिंता करते हुए मुझे तनिक भी चैन नहीं है। आपके पास इस कारणवश आया हूँ कि आप इससे मुक्ति का कोई उपाय बतायें। मेरी रक्षा कीजिये। आप तो ज्ञानी हैं। आपको मेरे जैसे पापी को क्षमा कर देना चाहिये। मुनियों का धर्म ही क्षमा करना होता है।’’
इन्द्रोक्त मुनि कुछ शान्त हुए तथा बोले - ‘‘ठीक है, तुमने उचित कहा। यदि तुम सच में इससे मुक्ति की कामना रखते हो, तो जाओ ब्राह्मणों की शरण लो। उनसे ही तुम्हारे परलोक की रक्षा होगी। यदि तुम अपने पापों का पश्चात्ताप करते हो, तो अपनी गति धर्म में रखो। ऐसे कर्म करो जिससे तुम्हें शान्ति मिले।’’


जनमेजय ने कहा - ‘‘उचित कहा आपने मुनिवर। मैं अपने पापकर्म से संतप्त हूँ। मैं आज के बाद से कभी भी धर्म का लोप नहीं करूँगा। किसी भी अवस्था में धर्म का पालन करूँगा। मुझे कल्याण की इच्छा है तथा इसी कारण आपकी शरण में आया हूँ। मुझ पर कृपा कीजिये। आपकी कृपा के बिना मेरा जीवन व्यर्थ है। इस पाप के कारण मेरा जीना भी व्यर्थ है।’’


इन्दोक्त मुनि कहा - ‘‘तुम बदल गये लगते हो। इसी कारण मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। तुम समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहो। धर्म को कभी न छोड़ो। ब्राह्मणों के प्रति हमेशा सद्भव रखो। आज यह प्रतिज्ञा करो कि ब्राह्मणों से कभी द्रोह न करूँगा।’’


जनमेजय ने कहा - ‘‘हे गुरुवर, मैं आपके चरणों को स्पर्श करके प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब कभी भी मन, वचन या कर्म से ब्राह्मणों के प्रति द्रोह नहीं करूँगा।’’


मुनि इन्द्रोक्त ने राजा के चरण-स्पर्श पर उसको आशीर्वाद देते हुए कहा - ‘‘राजन्! तुम्हारा चित्त बदल गया है। अतः अब मैं तुम्हें धर्म का उपदेश दूँगा। इसे ध्यान से सुनो।


यदि राजा दुश्चरित्र हो तो वह समस्त राज्य को संतप्त कर डालता है। एक मनुष्य उदार, सम्पन्न अथवा कृपण या तपस्वी कुछ भी हो सकता है। इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि बिना विचार के किये गये कर्म से दुःख ही मिलता है। यज्ञ, दान, दया, वेद एवं सत्य - ये पाँचों पवित्र हैं। इसके अलावा विधिपूर्वक किया गया तप परम-पवित्र है। यही किसी राजा को पूर्णतः पवित्र करने वाला होता है। पवित्र स्थलों की यात्रा से भी पुण्य मिलता है। सरस्वती नदी सबसे पवित्र है। इसमें स्नान करो एवं स्वयं को पवित्र करो। नियम बना लो कि तुम कभी ब्राह्मणों का तिरस्कार न करोगे। तुमने पश्चात्ताप किया, तो तुम्हें उस पाप से आवश्य मुक्ति मिलेगी। कभी दुबारा पाप हो जाये, तो पुनः उचित रूप से उसका पश्चात्ताप करना चाहिये। अग्नि की उपासना एक वर्ष तक करो। तुम्हारा पाप दूर हो जायेगा। कहा गया है कि जिस मनुष्य ने जितने प्राणियों की हिंसा की हो, यदि वह उतने प्राणियों की प्राण-रक्षा करता है, वह पापमुक्त हो जाता है। मनु जी का कहना है कि जल में डुबकी लगाकर तीन बार अघमर्षण मन्त्र का जाप करने से उसी प्रकार पाप नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार अश्वमेध यज्ञ के बाद अवभृथ स्नान करने से होता है। बृहस्वति जी का कहना है कि यदि कोई मनुष्य बिना जाने कोई पाप कर देता है, तो उसे बुद्धिपूर्वक पुण्यकर्म करने चाहिये। इस प्रकार उसका पूर्व का पाप नष्ट हो जाता है।’’


इस प्रकार समाधान बताने के बाद मुनि इन्द्रोक्त ने राजा जनमेजय से विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ करवाया, जिससे उसके सारे पाप धुल गये। उसके बाद उसने धर्म में अपनी गति रखी तथा अनेक वर्षों तक सच्ची निष्ठा से प्रजा की सेवा करते रहे।


पाप चाहे जान-बूझकर हो अथवा अनजाने में, उसका निवारण करना ही उचित होता है। पाप धुलने के उपरान्त पुनः पापकर्म न हो, तभी जीवन सुखमय रहता है तथा ईश्वर की कृपा बनी रहती है। 


विश्वजीत 'सपन'

Friday, February 8, 2019

महाभारत की लोककथा - (भाग 69)




महाभारत की कथा की 94 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

पाप का निवारण
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प्राचीन काल की बात है। तब राजा को यदि कुछ शंका होती थी, तो वे अपने राज्य के ऋषि-मुनियों से उसका समाधान पूछते थे। वे ऋषि-मुनि भी उनकी समस्याओं अथवा पृच्छाओं के उचित समाधान किया करते थे। एक बार राजा अंगरिष्ठ को इसी प्रकार की शंका हुई, तो कामन्दक ऋषि के पास गये। ऋषि ने आश्रम पर उनका अतिथि के समान उचित स्वागत एवं सत्कार किया और बोले - ‘‘कहिये राजन्, हमारे आश्रम पर आपके आने का प्रयोजन क्या है? मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ।’’


राजा ने कहा - ‘‘मुनिवर! आप सभी तो जीवन से विलग होकर अपना जीवन यापन करते हैं, अतः आपसे कोई अनुचित कर्म नहीं होता, किन्तु हम सभी एक सामान्य जीवन जीते हैं, ऐसे में अनेक स्थितियों का सामना करना पड़ता है। तब निर्णय लेना कठिन हो जाता है।’’


ऋषि ने कहा - ‘‘आपकी बात उचित है महाराज। आपने जीवन की सच्चाई का अनुभव किया है। बताइये आपकी शंका क्या है?’’


राजा ने कहा - ‘‘धर्म, अर्थ एवं काम का निर्णय कैसे करना चाहिये? ये कहीं एक साथ मिले हुए एवं कहीं अलग-अलग क्यों रहते हैं?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘जब मनुष्यों का चित्त शुद्ध होता है तथा वे धर्मपूर्वक किसी अर्थ की प्राप्ति में प्रवृत्त होते हैं, तो उस समय धर्म, अर्थ एवं काम तीनों ही एक साथ मिले हुए प्रतीत होते हैं। धर्म, अर्थ का कारण होता है एवं काम, अर्थ का फल कहा जाता है। यहाँ दर्शनीय बात यह है कि इन तीनों का मूल कारण संकल्प होता है। संकल्प ही विषय होते हैं, जो इन्द्रियों के उपभोग करने के लिये बने होते हैं। फल की इच्छा धर्म का मल होता है। साथ ही छुपाकर धन को रखना, उसका कोई उपयोग न करना, स्वार्थ-सिद्धि हेतु उपभोग कराना आदि अर्थ का मल होता है। संतान की उत्पत्ति के आलावा आमोद-प्रमोद करना काम का मल होता है। इनसे मुक्ति पाना ही मनुष्यों का कर्तव्य होना चाहिये।’’


राजा ने पूछा - ‘‘धर्म, अर्थ एवं काम से जीवन का उद्देश्य किस प्रकार साधा जा सकता है?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘फलेच्छा को त्यागना आवश्यक होता है राजन्। जब बिना परिणाम की इच्छा करते हुए इस त्रिवर्ग का सेवन किया जाये, तो अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि अर्थ के लिये धर्मानुष्ठान करने पर कभी अर्थ की सिद्धि होती है तथा कभी नहीं। कभी-कभी कामों से भी अर्थ की सिद्धि संभव है, किन्तु अर्थ नष्ट भी होते रहते हैं। नष्ट नहीं होने वाला कार्य मोक्ष है। इसी को ध्यान में रखकर जीवन जीना चाहिये।’’


राजा ने कहा - ‘‘जीवन में हमें किस प्रकार की सावधानी रखनी चाहिये कि पाप न हो?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘राजन्! जो धर्म एवं अर्थ का परित्याग कर देता है तथा मात्र काम का ही सेवन करने लगता है, तब उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। यही मोह है, जो धर्म एवं अर्थ दोनों को नष्ट कर देता है। इसी कारण से व्यक्ति में नास्तिकता आ जाती है तथा वह दुराचारी हो जाता है। अतः सभी प्रकार के मोहों से बचने की आवश्यकता होती है।’’
राजा ने कहा - ‘‘मुनिवर, हम सावधानी रखें, फिर भी पाप हो जाता है। ऐसे में हमें क्या उपाय करना चाहिये?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘उचित है महाराज, मनुष्य इन्द्रियों का दास होता है। यदि हमने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं किया, तो पापाचार होने की संभावना बनी ही रहती है। एक मनुष्य को चाहिये कि कभी भी इन्द्रियों का दास न बने।’’


राजा ने कहा - ‘‘उचित है मुनिवर, मान लीजिये कि कभी एक राजा काम एवं मोह के वशीभूत होकर पाप कर बैठे, किन्तु बाद में उसे पश्चात्ताप भी हो, तो ऐसे पाप को दूर करने का क्या उपाय हो सकता है?’’


ऋषि ने कहा - ‘‘सर्वप्रथम तो एक राजा को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यदि वह पापाचार करता है, तो प्रजा उसका साथ नहीं देती। साधु एवं ब्राह्मण भी उसका साथ छोड़ देते हैं। उसका अंत कभी भी भला नहीं होता। अतः उसे अपने पापों की निंदा करनी चाहिये। उसे निरन्तर वेदों का अध्ययन करना चाहिये तथा ब्राह्मणों का सत्कार करना चाहिये। उसे अपना मन धर्म में लगाना चाहिये। उसे उदार एवं क्षमाशील बनकर प्रजा की सेवा करनी चाहिये। जल में खड़ा होकर गायत्री मंत्र का जाप करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये। उसे पापियों को राज्य से बाहर निकलवाकर धर्मात्माओं के साथ सत्संग करना चाहिये। मीठी वाणी एवं उत्तम कर्म के द्वारा सभी को प्रसन्न करना चाहिये। गुणवान् लोगों की प्रशंसा करनी चाहिये तथा गुणहीनों की निन्दा। राजन्, जो भी राजा अपना आचारण इस प्रकार का बना लेता है, उसे शीघ्र ही प्रजा का सम्मान प्राप्त हो जाता है। ऐसा आचरण करते रहने से वह निष्पाप हो जाता है एवं प्रजावत्सल कहलाता है।’’ 


इसके बाद राजा अंगरिष्ठ ने मुनि को प्रणाम किया और अपनी राजधानी लौट गये। उनकी शंका का समाधान हो चुका था। उन्होंने मुनि के बताये गये मार्ग का पालन किया और अनेक वर्षों तक सुख से प्रजा-पालन करते रहे।
 

विश्वजीत 'सपन'

Friday, February 1, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 68)




महाभारत की कथा की 93 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

दण्ड की उत्पत्ति
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    प्राचीन काल की बात है। अंगदेश के राजा वसुहोम थे। वे बड़े ही धर्मात्मा थे। उनका ध्यान हमेशा धर्म में लगा रहता था। एक बार वे हिमालय पर मुंजपृष्ठ नामक स्थल पर गये। यह वही शिखर है, जहाँ कभी परशुराम ने अपनी जटायें बाँधी थी। इसी कारण इसका नाम ‘मुंजपृष्ठ’ पड़ा। वहाँ जाकर उन्होंने वेदोक्त गुणों को अपनाया एवं अपनी रानी के साथ रहने लगे। उनके तप का प्रताप दूर-दूर तक फैलने लगा। वे महर्षि के तुल्य हो गये।


    एक दिन की बात है। राजा मन्धाता उनके दर्शन करने के लिये गये। उन्हें दण्ड की उत्पत्ति के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता थी। महाराज वसुहोम उस समय ध्यानमग्न थे। राजा मन्धाता विनीत होकर वहीं खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगे। जब वसुहोम का ध्यान टूटा, तो उन्होंने मन्धाता को देखा। उनको पूरा सम्मान देकर उनसे कुशल-क्षेम पूछा। समस्त प्रजा का हाल पूछने के उपरान्त उन्होंने मन्धाता से कहा - ‘‘महाराज! मुझे बताइये कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? आप किस प्रयोजन से यहाँ आये हैं?’’


    मन्धाता ने कहा - ‘‘राजन्! आपने बृहस्पति के सिद्धान्तों का अध्ययन किया है, साथ ही शुक्राचार्य की नीति का भी। कृपया मुझे यह बताने की कृपा करें कि दण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई?’’


    वसुहोम ने कहा - ‘‘महाराज! कहा जाता है कि एक बार पितामह ब्रह्मा जी ने यज्ञ की इच्छा की, किन्तु उन्हें कोई योग्य ऋत्विज् दिखाई न पड़े। तब उन्होंने मस्तक पर एक गर्भ धारण किया। वह गर्भ हजार वर्षों तक उनके मस्तक पर रहा। हजारवें वर्ष के पूर्ण होने पर ब्रह्मा जी को छींक आई। उस छींक के साथ ही वह गर्भ भी नाक के मार्ग से बाहर आ गिरा। उससे एक बालक प्रकट हुआ, जो प्रजापति क्षुप के नाम से विख्यात हुए एवं ब्रह्मा जी के यज्ञ के ऋत्विज् बने। यज्ञ प्रारम्भ हुआ तथा ब्रह्मा जी ने दीक्षा ली। दीक्षा लेने पर ब्रह्मा जी विनीत हो गये। उनमें शान्ति के गुण आ गये। तब उनके शासन में उग्रता न रही। इसी कारण दण्ड अदृश्य हो गया। दण्ड के लुप्त होते ही प्रजा में व्यभिचार बढ़ने लगा। बलवान् निर्बल को सताने लगे। चारों ओर अराजकता फैल गयी। स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ने लगी। ब्रह्मा जी को चिंता हुई कि अब क्या होगा? फिर उन्होंने विचारकर वरदानी भोलेनाथ के पास जाकर कहा - ‘‘भगवन्! अब आप ही कृपा कीजिये एवं प्रजा को इस वर्णसंकरता से छुटकारा दिलाइये, अन्यथा अनर्थ हो जायेगा।’’


    कुछ देर विचार कर महादेव ने एक दण्ड प्रकट किया। कुछ ही समय में दण्ड ने अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया। प्रजा में धर्माचरण होने लगा, जिसे देखकर माता सरस्वती ने दण्डनीति की रचना की। तब शिवशंकर ने एक-एक समूह का राजा बनाया। इन्द्र को देवताओं का, यम को पितरों का, कुबेर को धन एवं राक्षसों का, मेरु को पर्वतों का, समुद्र को सरिताओं का, वरुण को जल एवं असुरों का, मृत्यु को प्राणों का, वसिष्ठ को ब्राह्मणों का, अग्नि को वसुओं का, सूर्य को तेज का, चन्द्रमा को ताराओं एवं औषधियों का, कार्तिकेय को भूतों का तथा काल को सबका राजा बना दिया। स्वयं महादेव रुद्रों के राजा हुए। बृहस्पति पुत्र क्षुप को समस्त प्रजाओं का राजा बना दिया। यज्ञ समाप्त होने के बाद महादेव ने विष्णु का स्मरण कर वह दण्ड उन्हें सौंप दिया।’’


    मन्धाता ने पूछा - ‘‘उसके बाद क्या हुआ महाराज?’’


    वसुहोम ने कहा - ‘‘उसके बाद विष्णु ने उसे अंगिरा को दिया। अंगिरा ने इन्द्र एवं मरीचि को, मरीचि ने भृगु को, भृगु ने ऋषियों को, ऋषियों ने लोकपालों को, लोकपालों ने क्षुप को तथा क्षुप ने वैवस्वत मनु को वह दण्ड सौंपा। मनु ने धर्म की रक्षा के लिये उसे अपने पुत्रों को दिया। इस प्रकार यह दण्ड निरन्तर चलता जा रहा है।’’


    मन्धाता की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। उसने पूछा - ‘‘इस दण्ड का उद्देश्य क्या है? इसका कार्य क्या है? किस कारण से इसे बनाया गया? इसे भी विस्तार से बतायें।’’


    वसुहोम ने कहा - ‘‘महाराज! दण्ड सम्पूर्ण जगत् को नियम के अन्दर रखने का कार्य करता है। यह धर्म का सनातन आत्मा है। इसका उद्देश्य प्रजा को उद्दण्डता से बचाना है। दुष्टों का दमन करना भी इसका एक उद्देश्य है। दण्ड ही सबको वश में रखता है। यह कालरूप दण्ड सृष्टि के आदि, मध्य एवं अंत में सतत् जागरुक रहता है। यही वस्तुतः सम्पूर्ण लोकों का ईश्वर है, उसका प्रजापति है। बस इतना समझ लीजिये कि यह साक्षात् भगवान् शंकर का स्वरूप है।’’


    मन्धाता ने पूछा - ‘‘किन्तु महाराज, यह अंततः क्षत्रियों के पास कैसे पहुँचा?’’


    वसुहोम ने कहा - ‘‘वैवस्वत मनु ने प्रजा की रक्षा में इसका उपयोग किया और अपने पुत्रों को दिया। तब ब्राह्मण ही लोकरक्षा किया करते थे। उसके उपरान्त राज्य की रक्षा का भार क्षत्रियों पर आया, तब ब्राह्मणों ने यह दण्ड क्षत्रियों को दिया। उसके बाद से आज तक यह क्षत्रियों के पास ही रहता आया है और वे ही इसके पालक रहे हैं।’’


     कहते हैं कि जो भी वसुहोम एवं मन्धाता के सम्वाद के रूप में दण्ड के सिद्धान्त को सुनता एवं तदनुसार धर्माचरण करता है, उसकी सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं।




विश्वजीत 'सपन'