Thursday, December 29, 2016

ओघवती का धर्म

सम्मानित मित्रगण,
महाभारत की कहानी का 13वाँ भाग आपके समक्ष प्रस्तुत है।
इस भाग में पौराणिक कथा ‘‘ओघवती के धर्म’’ के माध्यम से यह कहने का प्रयास किया गया है कि गृहस्थ धर्म यह कहता है कि अतिथि की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। आज हमारी संस्कृति के इस तत्त्व को हमने लगभग भुला दिया है। अतः पढ़ें और समझें कि हमारी संस्कृति का इस संबंध में क्या विचार है।
पढ़ने के लिये नीचे दिये लिंक को क्लिक करें।


http://pawanprawah.com/admin/photo/up1833.pdf

सादर 
सपन

Saturday, December 24, 2016

देवी इन्द्राणी की दुविधा

मित्रो,
महाभारत की कहानी का तेरहवाँ भाग आपके लिये प्रस्तुत है।
देवी इन्द्राणी या शची के जीवन में जब कठिनाई आती है, तो किस प्रकार वे उनका सामना करती हैं। यह कथा महाभारत के उद्योग पर्व का है। इसे पढ़ें और पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया दें।
इसे पढ़ने के लिये नीचे दिये लिंक को क्लिक करें।


http://pawanprawah.com/admin/photo/up1817.pdf
 
सादर नमन

Sunday, December 11, 2016

हिडिम्बा का प्यार

मित्रो,
महाभारत की कहानी का अगला भाग - ‘‘हिडिम्बा का प्यार’’। कुछ कहानियाँ बीच में नहीं आ सकीं, जिसका मुझे खेद है। इसे अवश्य पढ़ें और अपने विचार दें कि कैसी लगी? आपके सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।


इस कथा को पढ़ने के लिये नीचे दिये लिंक को क्लिक करें।


http://pawanprawah.com/admin/photo/up1785.pdf

सादर
आपका ‘सपन’

Sunday, November 13, 2016

‘‘द्रौपदी के पाँच पतियों का रहस्य’’

महाभारत की कहानी का नौवाँ भाग प्रकाशित।

इस कथा को पढ़ने के लिये, नीचे दिये लिंक को क्लिक करें।


http://pawanprawah.com/paper.php?news=1866&page=10&date=07-11-2016

आपके विचारों एवं सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।


विश्वजीत ‘सपन’

Wednesday, November 9, 2016

द्रौपदी का स्वयंवर

महाभारत की कहानी का आठवाँ भाग प्रस्तुत है। प्रकाशित एवं पीडीएफ में। कृपया पढ़ें और अपने विचार प्रकट करें कि आपको यह कथा कैसी लगी। आपके सुझाव इसे और सुन्दर पठनीय बनाने में मेरे लिये सहायक होंगे, अतः आपके विचारों की प्रतीक्षा रहेगी। इस कथा को पढ़ने के लिये नीचे दिये लिंक को क्लिक करें।

http://pawanprawah.com/admin/photo/up1850.pdf

आपका
विश्वजीत ‘सपन’

Sunday, October 9, 2016

दिव्यकन्या सत्यवती


महाभारत कहानी का सातवाँ भाग। पढ़ें और अपने विचार प्रकट करें कि कैसी लगी कहानी। आपके सुझाव मुझे और बेहतर लिखने में मदद करेंगे। इसे पढ़ने के लिये नीचे दिये लिंक को क्लिक करें। 

http://pawanprawah.com/admin/photo/up1785.pdf

आपका
सपन

Sunday, September 11, 2016

गंगा का विचित्र आचरण

सम्मानित मित्रो,
पवन प्रवाह नाम साप्ताहिक समाचार पत्र मेरी महाभारत की कहानियों को एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहा है। छठी कहानी ‘‘गंगा का विचित्र आचरण’’ इस बार प्रकाशित हुई है। आप इसे नीचे दिये लिंक पर पढ़ सकते हैं।
http://pawanprawah.com/admin/photo/up1753.pdf
सादर नमन

Sunday, September 4, 2016

राजकुमारी अम्बा की प्रतीज्ञा


महाभारत की कहानी का पाँचवाँ भाग।
मित्रो, इसे पढ़ें और अवश्य अपने विचार, सुझाव दें, ताकि इसे और बेहतर किया जा सके।

इस लिंक को खोलें ---

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आपका
विश्वजीत ‘सपन’


Saturday, June 18, 2016

राजकुमारी सुभद्रा का हरण - कथा 8

वैशम्पायन जी कहते हैं कि बारह वर्षों के लिये अर्जुन वन में रहने लगे और इसी दौरान उन्होंने अनेक स्थलों की यात्रायें कीं। हिमालय की तराई से होते हुए महेन्द्र पर्वत फिर सागर के किनारे चलते हुए प्रभास क्षेत्र में पहुँचे। तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ आकर अर्जुन को द्वारका नगरी लेकर आये।
(महाभारत, आदिपर्व)


8

बहुत समय पहले की बात है। भगवान् श्रीकृष्ण मथुरा में रहते थे। उस समय यादवों का राज्य अत्यधिक सुखी और सम्पन्न था। भाईचारे का वातावरण था। सभी प्रसन्नता से रहते थे। एक बार यादवों ने रैवत पर्वत पर एक बहुत बड़े उत्सव का आयोजन किया। ब्राह्मणों को सहस्रों रत्नों का दान दिया। उत्सव में यदुवंशी सज-धजकर घूम रहे थे। चारों ओर कोलाहल था। बाजे-गाजे बज रहे थे। नाच-गाना हो रहा था। सभी प्रसन्न थे। उसी उत्सव में श्री कृष्ण के साथ पाण्डु के तीसरे पुत्र अर्जुन भी थे। श्रीकृष्ण के बुलाने पर सखा के घर आये थे। 

वहाँ घूमते हुए अर्जुन की दृष्टि कृष्ण की बहन सुभद्रा पर पड़ी। पहली ही दृष्टि में वह उन्हें भा गयी। उसकी मोहिनी सूरत देखकर अर्जुन एकटक देखते रह गये। अर्जुन के मनोभावों को पढ़ते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने चुहलता से पूछा - ‘प्रिय अर्जुन! जो मैं देख रहा हूँ क्या वह सच है?’


अर्जुन सहसा पूछे गये इस प्रश्न से सकपका गये। शर्म के मारे उन्होंने अपना सिर झुका लिया। 


‘भगवन्! आपसे क्या छुपाना। आप तो अंतर्यामी हैं।’ अर्जुन ने सकुचाते हुए कहा।


कृष्ण के लिये इतना संकेत ही अधिक था। वे सुभद्रा के लिये अर्जुन को एक योग्य वर मानते थे। किन्तु सुभद्रा की इच्छा के बारे में उन्हें भी कोई जानकारी नहीं थी। इसलिए बोले - ‘प्रिय मित्र! स्वयंवर में वह तुम्हें वरेगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। यदि तुम सुभद्रा से विवाह करना चाहते हो, तो क्षत्रियों की तरह हरण करके ही कर सकते हो।’


‘लेकिन भगवन् आपके होते हुए, आपकी बहन का हरण कैसे संभव है?’ अर्जुन के लिये यह एक अनबूझ पहेली थी।


‘प्रिय अर्जुन! क्षत्रिय इस तरह से बातें नहीं करते। वे तो शौर्य के प्रतीक होते हैं। फिर तुम्हारे लिये यही सबसे सरल एवं उत्तम उपाय है।’ श्रीकृष्ण ने हमेशा की तरह मुस्कुराते हुए कहा।


कृष्ण की मंशा जानकर और उनकी सलाह पर अर्जुन ने अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के पास दूत भेजा। युधिष्ठिर ने दूत से समाचार सुना तो उन्हें अपार प्रसन्नता हुई और वे इस रिश्ते के लिये सहर्ष तैयार हो गये। दूत ने लौटकर जब यह समाचार कहा तो अर्जुन ने योजना बनायी।


एक दिन सुभद्रा रैवत पर्वत पर देव पूजा के लिये गयी। पूजा करने के बाद जब वह द्वारका आ रही थी, तब अवसर देखकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ पर बिठा लिया। उसे लेकर अपने नगर की ओर चल पड़े। सैनिकों ने तुरन्त जाकर द्वारका की सभा में यह समाचार बताया, तो यादवों ने इसे अपमान समझा और क्रोध से आगबबूला हो गये। सभापाल ने तत्काल युद्ध का आदेश दे दिया। युद्ध का डंका बजते ही सभी इकट्ठा हो गये और युद्ध की तैयारी करने लगे। 



तब बलराम ने इस बारे में श्रीकृष्ण से बात करने की सलाह दी। सभी श्रीकृष्ण के पास गये और बोले - ‘भगवन्! आपका मित्र समझकर हमने अर्जुन का स्वागत किया। किन्तु, उसने जिस थाली में खाया उसी में छेद किया। बिना किसी कारण के हमारी बहन का हरण किया। उसे इस करनी का दण्ड अवश्य मिलना चाहिए।’


सभी यादवों ने इस बात का समर्थन किया। श्रीकृष्ण ने शांत भाव से सबको समझाया - ‘अर्जुन ने हमारे वंश का अपमान नहीं, बल्कि सम्मान किया है। असल में हमारे वंश के महत्त्व को जानकर ही उसने हमारी बहन का हरण किया है।’


‘यह आप कैसी बातें कर रहे हैं? अर्जुन के अपराध को अपराध नहीं मान रहे हैं?’ यादवों ने पूछा। 


श्रीकृष्ण बोले - ‘यह अपराध नहीं है, बल्कि उसका यह कार्य उसके क्षत्रिय धर्म के अनुसार ही है। क्षत्रियों में हरण कर विवाह करना मान्य है। उसे स्वयंवर में सुभद्रा को पाने में संदेह था। इसलिए उसने ऐसा किया।’ 


‘किन्तु, भगवन्! वे हमसे बात करके भी हमारी बहन का हाथ माँग सकते थे।’ सभापाल ने कहा।


‘अवश्य, किन्तु आप भूल रहे हैं कि यदि बहन सुभद्रा को यह बात नहीं जँचती तो क्या होता? वैसे भी अर्जुन के साथ नाता जोड़ना हमारे लिये गर्व की बात है।’ श्रीकृष्ण ने पुनः समझाते हुए कहा।


यादवों में असंतोष था और नाना प्रकार से समझाने के पश्चात् ही वे श्रीकृष्ण की बात मान पाये। तब उन्होंने युद्ध करने का निर्णय त्याग दिया। यह समाचार पाकर अर्जुन सुभद्रा के साथ द्वारका वापस लौट आये। उसके बाद बड़ी धूम-धाम के साथ सुभद्रा का विवाह अर्जुन के साथ कर दिया गया। एक वर्ष तक अर्जुन द्वारका में ही रहे।


जब एक वर्ष के बाद वे सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ आये, तो उनका बहुत स्वागत हुआ। सुभद्रा ने कुन्ती के पैर छुए, तो उन्होंने आशीर्वाद दिया। द्रौपदी ने बहन कहकर संबोधित किया तो सुभद्रा ने उसके भी पैर छू लिये। द्रौपदी ने उसे गले से लगा लिया।


इस प्रकार इन्द्रप्रस्थ और द्वारका में बहुत ही घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गया। कुछ वर्षों के बाद सुभद्रा ने एक वीर और सुन्दर बालक को जन्म दिया। उसका नाम अभिमन्यु पड़ा। श्रीकृष्ण ने उसे सब प्रकार की शिक्षा दी और वह गुणों में एक श्रेष्ठ कुमार बना। महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु ने अपनी वीरता से सभी को चकित कर दिया।

 
विश्वजीत ‘सपन’

Saturday, March 12, 2016

गीता ज्ञान - 18 (अंतिम भाग)




अथाष्टादशोऽध्यायः


 (मोक्षसंन्यास योग)


 (भाग-4)
    

   
अठारहवें अध्याय का यह अंतिम भाग है और इसके बाद गीता ज्ञान समाप्त हो जायेगा। इस भाग में शेष बचे श्लोंकों की व्याख्या की जायेगी। भक्तियोग की बात बताकर भगवान् ने अर्जुन के माध्यम से संदेश दिया है कि मानव को ईश्वर की शरण में चला जाना चाहिए। यह श्लोक ही गीता के उपदेश का सार है।

    सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
    अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।गी.18.66।।


    अर्थात् सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़ कर, केवल मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिंता मत कर।


    स्वयं भगवान् के शरणागत हो जाना - यह सम्पूर्ण साधनों का सार है। इसमें शरणगत भक्त को कुछ भी करना शेष नहीं रहता है। भगवान् के साथ कर्मयोगी का ‘नित्य’ संबंध होता है, ज्ञानयोगी का ‘तात्त्विक’ संबंध होता है और शरणागत भक्त का ‘आत्मीय’ संबंध होता है। नित्य संबंध में संसार के अनित्य संबंध का त्याग है, तात्त्विक संबंध में तत्त्व के साथ एकता (तत्त्वबोध) है और आत्मीय संबंध में भगवान् के साथ अभिन्नता (प्रेम) है। नित्य संबंध में शान्त रस है, तात्त्विक संबंध में अखण्ड रस है और आत्मीय संबंध में अनन्त रस है। इस अनन्त रस के बिना शरणगति की प्राप्ति नहीं होती। यह शरणागति ही गीता का सार है। केवल पापों से मुक्ति ही शरणागति का फल नहीं है। यह ईश्वर की प्राप्ति है। कहा भी गया है कि कुछ चाहने से कुछ ही मिलता है, किन्तु कुछ न चाहने से सब-कुछ (अनन्त) मिलता है। शरणागत भक्त के वश भी स्वयं ईश्वर भी हो जाते हैं। इसी शरणागति में गीता के उपदेश की पूर्णता होती है। यहाँ भक्तियोग की सगुणता का प्रतिपादन बड़ी सुन्दरता से हुआ है। यही सर्वाधिक सरल मार्ग है ईश्वर-प्राप्ति का। इसी पूर्ण शरणागति को प्रपत्तिवाद भी कहते हैं। 


    इसके बाद गीताकार भगवान् के श्रीमुख से गीतोपदेश की अपात्रता के बारे में कहते हैं कि गीता का यह गूढ़ रहस्य अतपस्वी को नहीं कहना चाहिए, भक्तिहीन को नहीं कहना चाहिए तथा जो नहीं सुनना चाहता है, उसे भी नहीं कहना चाहिए। साथ ही जो ईश्वर में दोष-दृष्टि रखते हैं उन्हें भी नहीं कहना चाहिए। जो भगवान् से प्रेम करके, परम रहस्य को उनके भक्तों से कहेगा, वह ईश्वर को प्राप्त होगा। अर्थात् वह ईश्वर को प्राप्त करेगा। ऐसा करने वाला ही उनका सबसे परम प्रिय होगा। भगवान् को भक्त प्रिय होते ही हैं और जो गीताशास्त्र का प्रचार-प्रसार करेगा, वह भक्त तो अति प्रिय होगा ही। सभी इसका अध्ययन नहीं कर सकते, तब उन्हें बताने वाला भी होना चाहिए। तो न केवल इसका अध्ययन करने वाला, बल्कि इसे दूसरों के कल्याण के लिये बताने वाला भी ईश्वर-भक्ति करता है। साथ ही जो इसका श्रवण करता है, वह ईश्वर-भक्ति करता है। 


जो इस धर्ममय गीताशास्त्र का अध्ययन करेगा, उसके इस ज्ञानयज्ञ द्वारा ईश्वर की ही पूजा होगी। तात्पर्य इसका अध्ययन ईश्वर की पूजा से कम नहीं है। दोष-दृष्टि से रहित जो श्रद्धालु इस गीताशास्त्र का श्रवण करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर शुभ लोकों को प्राप्त करेगा। इस प्रकार गीता-ज्ञान और उसका माहात्म्य बताकर श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं कि हे पार्थ! क्या तुमने इस गीता-ज्ञान को ध्यान से सुना? क्या तुम्हारा अज्ञान जनित मोह भंग हुआ? अर्थात् अर्जुन का युद्ध न करने का जो निर्णय था, जो उसका भ्रम था, क्या वह दूर हुआ।


    तब अर्जुन ने कहा कि हे अच्युत! आपकी की कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने कर्तव्य विषयक अपनी स्मृति प्राप्त कर ली है। मेरा सन्देह मिट गया है, मैं स्थिर हो गया हूँ और आपके आदेश वचनों का पालन करूँगा। तात्पर्य यह कि अर्जुन ने अपने स्व-स्वभाव कर्म अर्थात् क्षात्र-धर्म के पालन का निर्णय ले लिया, क्योंकि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा उसका अज्ञान अब दूर हो चुका था। उसे भगवान् से मिले आदेश का पालन करना था। वह जान चुका था कि कर्ता वह नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर हैं। 


    ये बातें बताने के बाद संजय ने धृतराष्ट्र से कहा कि तो इस प्रकार मैंने वासुदेव श्रीकृष्ण एवं महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रोमांचक संवाद को सुना। श्रीव्यास जी की कृपा से दिव्यदृष्टि (अर्जुन को श्रीकृष्ण की कृपा से एवं संजय को श्रीव्यास जी की कृपा से दिव्यदृष्टि मिली थी, अतः संजय व्यास जी को कृतज्ञता प्रकट करते हैं) पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है। हे राजन! इस पवित्र और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं पुनः-पुनः अत्यन्त हर्षित हो रहा हूँ। श्रीकृष्ण के विलक्षण रूप को स्मरण करके मुझे पुनः-पुनः महान् आश्चर्य हो रहा है। 


गीता के आरम्भ में धृतराष्ट्र का प्रश्न था कि युद्ध का परिणाम क्या होगा? तो उसके उत्तर में संजय गीता के अंतिम श्लोक में कहते हैं कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीवधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है।
 

इति  

विश्वजीत ‘सपन’

Sunday, February 14, 2016

गीत ज्ञान 18 (भाग -3)



अथाष्टादशोऽध्यायः


(मोक्षसंन्यास योग)
 
(भाग-3)
    

हमने देखा कि भगवान् त्याग की महत्ता बताते समय कहते हैं कि नियत कर्मों के त्याग उचित नहीं हैं। साथ ही सांख्ययोग की दृष्टि से उन्होंने सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि में पाँच हेतु भी बताये। अब आगे के प्रकरण में भक्तियोग की बात बताने के लिये वे कहते हैं कि किन-किन वर्णों के लिये कौन-कौन से कर्म नियत किये गये हैं।

    ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
    कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।गी.18.41।।


    अर्थात् हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं। यहाँ समझना होगा कि भगवान् ने पूर्व में कहा था कि चारों वर्णों की रचना गुणों एवं कर्मों के विभाव के अनुसार की गयी है - ‘‘गुणकर्मविभागशः (4.13)’’। अब वे कहते हैं - ‘‘स्वभावप्रभवैर्गुणैः’’ अर्थात् चारों वर्णों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं। इस प्रकार चतुर्थ अध्याय में चारों वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, जबकि यहाँ बताते हैं कि इन चारों वर्णों के कर्म क्या-क्या होने चाहिए।


    मन का निग्रह करना, इन्द्रियों को वश में करना, धर्म पालन के लिये कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराध को क्षमा करना, शरीर, मन आदि में सरलता रखना, वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना, यज्ञविधि को अनुभव में लाना और परमात्मा, वेद आदि में आत्मिक भाव रखना, ये सभी ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। 


    शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता तथा युद्ध में पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करने का भाव, ये सभी क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। खेती करना, गायों की रक्षा करना और व्यापार करना, वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं, जबकि चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म हैं। इन्हें स्वाभाविक कर्म कहने का तात्पर्य यह है कि वैसे तो चेतन जीवात्मा और जड़ प्रकृति का स्वाभाव भिन्न है, किन्तु चेतन जीवात्मा ने जड़ प्रकृति से संबंध मान लिया है। इसी को गुणों का संग कहते हैं, जो जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है - ‘‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गी.13.21)’’। इसी संग के कारण गुणों के तारतम्य से जीव का जन्म विभिन्न वर्णों में होता है। इन स्वाभाविक कर्मों को करने में इन्हें श्रम नहीं करना पड़ता, क्योंकि वे उनके स्वाभाव के अनुसार कर्म हैं। इनमें ही इनकी रुचि होती है। 


    स्वभावज कर्मों के वर्णन का प्रयोजन क्या है? यह बात बताते हुए वे कहते हैंः-


    यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
    स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।गी.18.46।।


    अर्थात् जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्यमात्र सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।


    तात्पर्य यह कि समस्त मानव जाति को ऐसी परमसत्ता का पूजन करना चाहिए। यह स्वभावज कर्म करना ही पूजन है। जिस प्रकार रस्सी में साँप का भ्रम मिटने से साँप का लोप हो जाता है, किन्तु रस्सी तो रहती ही है, ठीक उसी प्रकार अपने कर्मों से एवं पदार्थों से भगवान् की पूजा करने से संसार तो लुप्त हो जाता है, किन्तु भगवान् रह जाते हैं और यही स्वरूप तब ईश्वरमय हो जाता है। यदि ऐसे कर्मों में कोई कमी भी रह जाये, तो वह पाप का भागी नहीं होता, क्योंकि वह स्वाभाविक कार्य है।


    यहाँ एक शंका उत्पन्न होती है कि एक कसाई के घर में उत्पन्न व्यक्ति किस प्रकार अपने स्वभावज कार्य से मुक्ति पायेगा? इसका समाधान यह है कि स्वभावज कर्म का अर्थ अहितकारी कर्म से कभी नहीं है। ये कर्म शास्त्रसम्मत ही होने चाहिए। किसी प्राणि की हत्या शास्त्रनिषिद्ध है, अतः ऐसे कर्म का त्याग ही उचित है। 


    इसके बाद संक्षेप में सांख्ययोग का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम इसके अधिकारी के बारे में बताते हैं कि जिसकी बुद्धि सर्वत्र आसक्तिरहित है, जिसने शरीर को वश में कर रखा है, जो छोटी-छोटी इच्छाओं से रहित है, वह मनुष्य इसका अधिकारी कहलाता है। ऐसा अधिकारी ही बह्म को प्राप्त करता है। यह किस प्रकार बह्म की प्राप्ति करता है, इसके बारे में वे अगले तीन श्लोकों में इसे बताते हैं।


    जो विशुद्ध सात्त्विकी बुद्धि से युक्त, वैराग्य के आश्रित, एकान्त का सेवन करने वाला और नियमित भोजन करने वाला, धैर्यपूर्वक रहित होकर इन्द्रियों का नियमन करके, शरीर-वाणी-मन को वश में करके, शब्द आदि विषयों का त्याग करके और राग-द्वेष को छोड़कर, ममता रहित तथा शान्त होकर निरन्तर ध्यानयोग के परायण हो जाता है, वह अहंकार, दर्प, बल, काम, क्रोध और परिग्रह से ब्रह्मप्राप्ति का पात्र हो जाता है। ऐसा साधक पूर्णतः मुझे प्राप्त हो जाता है अर्थात् ब्रह्म में लीन हो जाता है। ऐसे भक्त मुझे जानकर इस पराभक्ति के द्वारा मुझमें प्रविष्ट हो जाते हैं। 


    इसके बाद शरणागति की प्रधानता वाले भक्तियोग के संदर्भ में भगवान् कहते हैं कि मेरा आश्रय लेने वाला भक्त सभी कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत, अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य यह कि जहाँ ज्ञानयोगी के लिये सब विषयों का त्याग करना, निरन्तर ध्यान करना और अहंता, ममता, काम, क्रोध आदि का त्याग आवश्यक होता है, वहीं भक्तियोग में अपने स्वभावज कर्मों को करते हुए यदि वह भगवान् का आश्रय लेता है, तो उसे परमपद की प्राप्ति होती है। इसमें भक्तों को सुगमता होती है, क्योंकि उसे मात्र स्वयं को ईश्वर के आश्रय में रख देना होता है। 


    इस प्रकार भक्तियोग की महत्ता बताकर भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! तुम अपने समस्त कर्मों को मन से मुझे अर्पित कर दे, स्वयं को मेरे अर्पित कर दे, समता का आश्रय लेकर इस संसार से संबंध-विच्छेद कर ले और मेरे परायण होकर मेरे में चित्त लगा। अर्थात् तू यह मान ले कि मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि और संसार के व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि सब भगवान् के ही हैं। इनमें कोई भी वस्तु किसी की व्यक्तिगत नहीं है। इन वस्तुओ के सदुपयोग के लिये ईश्वर ने मात्र अधिकार दिया है। इस दिये हुए अधिकार को भी ईश्वर को अर्पित कर दे। 


    विशेष बात यह है कि चित्त से सब कर्म भगवान् को अर्पण करने से नित्य-वियोग हो जाता है और भगवान् के परायण होने से नित्य-योग हो जाता है। नित्य-योग में योग, नित्य-योग में वियोग, वियोग में नित्य-योग एवं वियोग में वियोग - ये चार अवस्थायें चित्त की वृत्तियों को लेकर होती हैं। इन्हें कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है। यथा, श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा का मिलन - ‘नित्य-योग में योग’ है। मिलन होने पर भी जब हृदय में बात उठती है कि ‘‘तुम कहाँ चले गये?’’ तो ‘नित्य-योग में वियोग’ होता है। श्यामसुन्दर सामने नहीं हैं, किन्तु मन को ऐसा प्रतीत होता है कि वे प्रत्यक्ष हैं, तो यह ‘वियोग में नित्य-योग’ है। श्यामसुन्दर थोड़े समय के लिये सामने नहीं आये, तो मन में भाव उठते हैं कि अब क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? उनसे कैसे मिलूँ? तो यह ‘वियोग में वियोग’ है। वास्तव में इन चारों अवस्थाओं में भगवान् के साथ नित्य-योग बना रहता है। वियोग तो कभी होता ही नहीं है। यह ‘नित्य-योग’ ही ‘प्रेम’ है। इस प्रेम में चार प्रकार का रस अथवा रति होती है - दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। इन रसों में दास्य से साख्य, साख्य से वात्सल्य और वात्सल्य से माधुर्य रस श्रेष्ठ है, क्योंकि इनमें ईश्वर के ऐश्वर्य की विस्मृति क्रमशः अधिक होती चली जाती है। किन्तु इनमें से कोई एक रस भी यदि पूर्णता में पहुँच जाता है, तो अन्य रसों की स्वयमेव पूर्ति हो जाती है। इन रसों को कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है।


    दास्य रति में भक्त का भगवान् के प्रति यह भाव होता है कि वे उनके स्वामी हैं और वे सेवक। उनका पूर्ण अधिकार होता है कि चाहे उनसे कोई भी कार्य करवा लें। मेरे से अत्यधिक प्रेम रखने के कारण ही वे बिना मेरी सम्मति के ही सब-कुछ विधान करते हैं।


    सख्य रति में भक्त का भगवान् के प्रति सखा भाव रहता है। वो सोचते हैं कि वे मुझे प्रेम करते हैं और मैं उन्हें प्रेम करता हूँ। उनका मेरे ऊपर पूरा अधिकार है, तो मेरा भी उन पर पूरा अधिकार है। अतः मैं जो कहूँ उन्हें मानना होगा।


    वात्सल्य रति में भक्त मानता है कि वह ईश्वर का माता-पिता अथवा गुरु है। उसे उनकी रक्षा करनी है। उनका ध्यान रखना है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार नन्द और यशोदा श्रीकृष्ण का घ्यान रखते थे कि उन्हें कुछ नुकसान न हो जाये।


    माधुर्य रति में भक्त को भगवान् के ऐश्वर्य की विस्मृति होती है। उन्हें प्रतीत होता है कि ईश्वर की सुख-सुविधायें जुटाना उनका कार्य है। इसमें भगवान् के साथ अभिन्नता होती है। 

       
    तात्पर्य यह है कि शाश्वत पद की प्राप्ति के लिये साधक को दो ही विशेष कार्य करने हैं - संसार के सम्बन्ध का त्याग और भगवान् के साथ प्रेम का सम्बन्ध। भक्त का कार्य भगवान् का आश्रय लेना है, भगवान् का ही चिंतन करना है। तब भगवान् भक्त पर विशेष कृपा करके उसके साधन की समस्त विघ्न-बाधाओं को दूर कर देते हैं और स्वयं की प्राप्ति भी करा देते हैं। कोई यदि अहंकारवश स्वयं को कर्ता मान लेता है, तो वह परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। अतः वे अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! अहंकारवश ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा विचार मिथ्या है, क्योंकि तुम्हारा क्षत्रियत्व तुम्हें हठात् ही युद्ध में लगा देगा। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार मनुष्य गंगा जी के प्रवाह को रोक नहीं सकता, किन्तु उसे घुमा सकता है, ठीक उसी प्रकार अपने स्वभाव के कर्म को छोड़ नहीं सकता, किन्तु ईश्वर भक्ति के द्वारा उन्हें निर्मल बना सकता है।


    यह स्वभाव हो तरह का होता है - विहित कर्मों का स्वभाव एवं निषिद्ध कर्मों का स्वभाव। इनमें विकहत कर्मों का स्वभाव तो स्वतः होने से ‘स्व-स्वभाव’ है, जबकि निषिद्ध कर्मों का स्वभावा आगन्तुक होने ‘पर-स्वभाव’ है। ‘स्व-स्वभाव’ सजातीय होने से ‘जन्य’ नहीं है, जबकि ‘पर-स्वभाव’ विजातीय होने से जन्य है। मानव का कर्तव्य है कि वह निषिद्ध कर्मों के स्वभाव का त्याग करके विहित कर्मों के स्वभाव के अुनसार कार्य करे। 


    अतः अर्जुन को वे बताते हुए कहते हैं कि ईश्वर सभी प्रणियों के अंदर ही शोभा पाता है। वह अपनी मायाशक्ति से घुमा रहा है। अतः उस परमात्मा की शरण में जाओ। उसकी कृपा से ही तुम परमशक्ति तथा परमधाम को प्राप्त करोगे। इतना कह कर भगवान् कहते हैं कि जो भी गोपनीय बातें थीं, मैंने तुम्हें बता दीं। अब तुम स्वयं इस पर विचार करो कि तुम्हें क्या करना है। फिर भी इस बात से इंकार नहीं कि मैं परम हितकर वच नही तुमसे कहूँगा, क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो। अतः मुझ परमेश्वर की शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें मुक्त कर दूँगा। तुम शोक मत करो।

विश्वजीत ‘सपन’
क्रमशः

Saturday, January 16, 2016

गीता ज्ञान - 18 (भाग-2)


अथाष्टादशोऽध्यायः

(मोक्षसंन्यास योग)
(भाग-2)


प्रथम श्लोक में अर्जुन ने ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के तत्त्वों को जानने की इच्छा प्रकट की थी। अतः भगवान् ने बारहवें श्लोक तक कर्मयोग तथा उसके बाद ज्ञानयोग की बातें बताई हैं।
   
गीताकार भगवान् के श्रीमुख से सांख्यशास्त्र (ज्ञानयोग) सिद्धान्त का प्रतिपादन करवाते हैं, ये वे पाँच कारण हैं जो सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये कारक हैं।


    अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथिग्विम्।
    विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।। गी.18.14।।


    इस श्लोक में कर्मों की सिद्धि में पाँच कारण बताये गये हैं - अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव। अधिष्ठान का अर्थ है आश्रयस्थल। समस्त क्रियायें प्रकृति एवं प्रकृति के कार्यों द्वारा ही होती हैं। अविवेकी पुरुष जब इन क्रियाओं को अपना मान लेता है, तो वह ‘कर्ता’ बन जाता है। ‘करण’ कुल तेरह हैं और इनकी चेष्टायें इस प्रकार हैं - पाणि (हाथ अर्थात् आदान-प्रदान करना), पाद (पैर अर्थात् चलना-फिरना), वाक् (बोलना), उपस्थ (मूत्र-त्याग करना) एवं पायु (गुदा अर्थात् मल का त्याग करना) ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। श्रोस्त्र (सुनना), चक्षु (देखना), त्वक् (स्पर्श करना), रसना (चखना) एवं घ्राण (सूँघना) - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। और ये दस बहिःकरण हैं। इनके साथ तीन अन्तःकरण हैं - मन (मनन करना), बुद्धि (निश्चय करना) एवं अहंकार (मैं ऐसा हूँ अथवा वैसा हूँ का अभिमान करना)। इन सभी की अपनी-अपनी चेष्टायें हैं। पाँचवाँ कारण ‘दैव’ है अर्थात् संस्कार। मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसके अन्तःकरण पर वैसा ही संस्कार पड़ता है। पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का नाम ही दैव अथवा भाग्य है। 


तात्पर्य यह है कि मनुष्य मन, शरीर, वाणी से शास्त्र के अनुरूप अथवा उसके विरुद्ध जो भी कर्म करता है उसके ये ही पूर्वोक्त कारण होते हैं। किन्तु जो मनुष्य इस वास्तविकता को नहीं देखता और शुद्ध-स्वरूप आत्मा को ही कर्ता मान लेता है वह अज्ञानी है। उसे यथार्थ का पता नहीं है। इसके विपरीत जिसमें अहं भाव नहीं है और जिस पुरुष के अन्तःकरण में ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ ऐसा भाव दृढ़ हो गया है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों और कर्मों में लिप्त नहीं है, वह पाप-दोष से निर्मुक्त रहता है। अर्जुन ये समझते हैं कि आततायियों को एवं गुरुओं को मारने से वध का पाप लगेगा, तो भगवान् कहते हैं कि इनको मारने से पाप नहीं लगेगा, क्योंकि पाप लगने में कारण अहंता और बुद्धि की लिप्तता है। वर्षा से कई जीव-जन्तुओं के प्राण चले जाते हैं और कई की प्राण-रक्षा होती है तब वर्षा को पाप नहीं लगता। ठीक उसी प्रकार युद्ध में मार डाले गये शत्रुओं से पाप नहीं लगता। पाप तब लगता है, जब हम स्वयं को कर्ता मान लेते हैं।


इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता ये तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा है। ज्ञान का अर्थ इस प्रकार समझा जा सकता है कि पुरुष की कोई प्रवृत्ति जब होती है, तो उससे पूर्व ज्ञान होता है, जैसे जल पीने के पहले प्यास का ज्ञान होता है। जल यहाँ ज्ञेय है और जिसको इसका ज्ञान होता है वह परिज्ञाता है। तो इन तीनों से ही कर्म करने की प्रेरणा होती है, अन्यथा नहीं। यदि इनमें से कोई एक भी न रहे, तो कर्म की प्रेरणा नहीं होती है। वे पुनः कहते हैं कि कर्म-संग्रह के तीन कारण होते हैं - कर्ता, कर्म और करण। जिन साधनों से कर्ता कर्म करता है, वे करण हैं और इन करण से जो चेष्टायें होती हैं, वे कर्म हैं। इनको करने वाला कर्ता होता है। इन तीनों के सहयोग से ही कर्म पूरा होता है। 


वे आगे कहते हैं कि सांख्यशास्त्र में ज्ञान, कर्म और कर्ता के गुणों के भेद से तीन प्रकार बताये गये हैं - ये सत्त्वगुण प्रेरित, रजोगुण प्रेरित और तमोगुण प्रेरित कहे गये हैं। इनका वर्णन आगे विस्तार से बताया गया है।


जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य पृथक्-पृथक् समस्त प्राणियों में एक विभागरहित परमात्मा भाव को समभाव से स्थित देखता है, उसे सात्त्विक ज्ञान कहते हैं। इस सात्त्विक ज्ञान को इस प्रकार समझा जा सकता है कि मैं, तू, यह और वह सभी किसी प्रकाश में कार्य करते हैं। इन चारों के अन्तर्गत सभी प्राणी आ जाते हैं, जो विभक्त हैं, किन्तु इनका भी प्रकाशक है, जो अविभक्त है। यही ज्ञान सात्त्विक कहलाता है। किन्तु राजस ज्ञान के द्वारा सभी प्राणियों में भेद-भाव से भरा अलग-अलग देखने की भेद-दृष्टि आती है। राजस ज्ञान में राग की मुख्यता होती है। यह राग आसक्ति उत्पन्न करता है और प्राणियों में रहने वाली अविनाशी आत्मा को तत्त्व से अलग समझता है। राजस ज्ञान में जड़-चेतन का विभेद नहीं रहता है। जिस ज्ञान द्वारा प्रकृति के कार्यरूप शरीर को ही मनुष्य अपना सर्वस्व मानता है, उसी में आसक्त रहता है और शास्त्रसम्मत ज्ञान की वास्तविकता को नहीं मानता है, वह तुच्छ ज्ञान तामस कहलाता है। इसे भगवान् ज्ञान नहीं कहते हैं, क्योंकि यह असल में अज्ञान ही है।


सात्त्विक कर्म वह है, जो शास्त्रसम्मत है, कर्ता के अभिमान से और फलासक्ति से रहित है और बिना किसी राग-द्वेष से किया गया है। परन्तु जो कर्म भोगों की इच्छा से अथवा अहंकार से ग्रस्त परिश्रमपूर्वक किया जाता है, वह राजस कर्म कहलाता है। जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य का बिना विचार किये अज्ञानपूर्वक किया जाता है, वह तामस कर्म कहलाता है। 


जो कर्ता अनासक्त है, अहंकारयुक्त वचनों को नहीं बोलता है, धैर्य एवं उत्साहयुक्त है, कार्य सिद्ध होने अथवा न होने पर भी हर्ष-शोकादि विचारों से रहित है, वह सात्त्विक कर्ता है। जो कर्ता आसक्ति से युक्त है, कर्मफल की इच्छा वाला लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने वाला, अपवित्र आचरण करने वाला और हर्ष-शोकादि में लिप्त है, वह राजस कर्ता है। जो कर्ता असावधान, अशिक्षित, गर्वीला, हठी, अपकारी का उपकार करने वाला, आलसी, विषादी और किसी भी कार्य को बहुत देर से करने वाला, तामस कर्ता कहलाता है। कहने का तात्पर्य यह कि जैसा कर्ता होगा, उसका कर्म भी वैसा ही होगा। सात्त्विक कर्ता अपने विवेक से सात्त्विक कर्म करके परमात्मा से अभिन्न हो जाता है, जबकि राजस और तामस कर्ता का ध्येय परमात्मा नहीं होता है, बल्कि स्वयं का सुख-दुःख आदि होता है, अतः वह परमात्मा से अभिन्न नहीं हो सकता है।


सभी कर्म विचारपूर्वक किये जाते हैं। उन कर्मों के विचार में बुद्धि एवं धृति नामक करणों की प्रधानता होती है, अतः आगे इनके प्रकारों पर विचार किया गया है। बुद्धि एवं धृति के भी तीन प्रकार के भेद होते हैं।


सात्त्विकी बुद्धि वह है जो प्रवृत्ति एवं निवृत्ति को, कर्तव्य एवं अकर्तव्य को, भय एवं अभय को, बन्धन तथा मोक्ष को यथार्थ रूप से जानती है, वह सात्त्विक बृद्धि होती है। प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दो अवस्थायें साधक की होती हैं। जब कोई संसार का काम-धंधा करता है, तो यह प्रवृत्ति है, जब सांसारिक कार्यों को छोड़कर भजन आदि में लिप्त होता है, तो यह निवृत्ति है। यहाँ इस बात को समझना होगा कि सांसारिक कामना सहित निवृत्ति भी प्रवृत्ति होती है। जैसे कोई निवृत्ति इस कारण से करता है कि उसका मान-सम्मान होगा, आदर-सत्कार होगा तो यह निवृत्ति नहीं होगी, बल्कि प्रवृत्ति होगी। अतः साधक को कामना-वासनारहित प्रवृत्ति और निवृत्ति को ही ग्रहण करना चाहिए।


जो मनुष्य अपनी जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को, कर्तव्य एवं अकर्तव्य को ठीक-ठाक नहीं जानता, उसे राजस बुद्धि कहते हैं। शास्त्रों में जो भी विधान हैं, वे सभी धर्म हैं और उसके विपरीत सभी अधर्म। अपना कथित कर्तव्य करना ही उचित है, किन्तु लोग सच्चाई से ये कर्तव्य कर्म नहीं करते। ऐसे व्यक्ति राजस बुद्धि वाले कहे गये हैं। तमोगुण से घिरी हुई जो बुद्धि अधर्म को भी धर्म मान ले और इसी प्रकार की विपरीत धारणा करने वाली होती है, वह तामसी बुद्धि कहलाती है। 


अब भगवान् धृति के संबंध में कहते हैं। यह धृति क्या है? इसे जान लेना आवश्यक है। साधारण रूप से देखने पर धृति भी बुद्धि एक गुण प्रतीत होती है, किन्तु इनमें अंतर होता है। धृति बुद्धि से अलग और विलक्षण है, क्योंकि यह कर्ता में ही रहती है और इसी कारण से कर्ता बुद्धि का उचित उपयोग कर सकता है। असल में बुद्धि में जो धारणात्मक स्थिरता रहती है, वही धृति है। इसके भी तीन प्रकार होते हैं।


समता से युक्त अर्थात् सांसारिक लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख-दुःख आदि में सम रहने वाला, अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा अर्थात् इस लोक एवं परलोक सुख, भोग आदि किंचित मात्र भी इच्छा न रखते हुए परमात्मा को चाहने वाला, मन, प्राण एवं इन्द्रियों को संयमित करने वाली धृति ही सात्त्विकी धृति कहलाती है। किन्तु फल की कामना से अत्यन्त आसक्तिपूर्वक धर्म, अर्थ एवं काम को जो धारण करता है, वह धृति राजसी होती है। तथा दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धृति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड को नहीं छोड़ता है, वह धृति तामसी कहलाती है। 


इस प्रकरण के अंत में वे सुख के प्रकार बताते हैं, क्योंकि मनुष्यों में सुख के लोभ से कर्मों में प्रवृत्ति होती है। तात्पर्य यह कि सुख कर्म-संग्रह का कारण है।


जिस सुख से साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवा आदि के अभ्यास के परिणामस्वरूप आनन्दित होता है और जिसके कारण दुःखों का अन्त हो जाता है। साथ ही जो आरम्भ में भले ही विष के समान प्रतीत हो, किन्तु परिणाम में अमृत के समान हो जाये, वह परमात्मा-विषयक बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक सुख कहलाता है। किन्तु जो सुख विषय एवं इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होने वाला है और भोगकाल में अमृत के समान तथा परिणामकाल में विष के समान है, वह राजस सुख कहलाता है। इसके साथ ही जो सुख भोगकाल के साथ-साथ परिणाम में भी अज्ञान में भटकाता है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहलाता है।
इस प्रकरण में भगवान् के कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अनादि हैं और दो हैं। यह विवेक पुरुष के अन्दर होता है। जब कोई पुरुष इस विवेक का अनादर करते हुए प्रकृति से संबंध जोड़ लेता है, तो पुरुष में राग उत्पन्न हो जाता है। इसी राग के कारण उसमें प्रकृतिजन्य आसक्ति पैदा हो जाती है। इसी आसक्ति के कारण जब वह सात्त्विक सुख प्राप्त करना चाहता है, तो राजस और तामस सुख का त्याग करना कठिन हो जाता है। जब यह राग मिट जाता है, तो अमृत के समान आनंद की अनुभूति होती है। 


इस प्रकरण का उपसंहार वे इस श्लोक में करते हैं।


न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः।।गी.18.40।।


पृथ्वी में, स्वर्ग में या देवताओं में तथा इनके अतिरिक्त और कहीं भी ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो इन तीनों गुणों की परिधि से बाहर हो। सभी के प्रकार बताने के बाद भगवान् ने उस सुख की बात की जो सर्वोत्तम है, जिसे सात्त्विक सुख कहा गया। किन्तु इसे भी ‘आत्मबुद्धिप्रसादजम्’ कहा, इसे जन्य माना तो यह भी नित्य नहीं हो सकता। तात्पर्य यह कि इस जन्य सुख से भी ऊपर उठने की बात है। प्रकृति एवं प्रकृति के तीनों गुणों से रहित होकर उस परमतत्त्व को प्राप्त करना है। यह सबका अपना स्वाभाविक स्वरूप है। यह गुणातीत है, विलक्षण है, अलौकिक है। ‘संसार की कोई भी वस्तु इन तीनों गुणों से रहित नहीं है’ - तत्त्वज्ञानी ऐसा नहीं मानते, बल्कि अज्ञानी मानते हैं। तत्त्वज्ञानी स्वाभाविक स्वरूप को मानते हैं जो ‘निर्गुण’, निराकार ब्रह्म हैं।

विश्वजीत ‘सपन’
क्रमशः