Wednesday, August 20, 2014

गीता ज्ञान - 7



                               ज्ञान-विज्ञानयोग


छठे अध्याय में अंतिम श्लोक में भगवान् कहते हैं कि जो श्रद्धावान् भक्त हैं और तल्लीन होकर भगवान् के भजन करते हैं, वे ही ईश्वर के मत में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं। हम इसे सातवें अध्याय की पूर्वपीठिका के रूप में देख सकते हैं कि भगवान् ने भक्तियोग का संकेत दे दिया है। इस सातवें अध्याय का नाम ज्ञान-विज्ञानयोग है, जिसमें ज्ञान एवं विज्ञान की आध्यात्मिक व्याख्या की गयी है। 

    इस अध्याय में प्रवेश से पूर्व इस बात को समझना बहुत आवश्यक है कि एक सांसारिक मनुष्य में अहंता एवं ममता के भाव रहते हैं, जबकि समता का अभाव रहता है। ‘मैं’ अंहता भाव एवं ‘मेरा’ ममता भाव है। यही ‘मैं’ और ‘मेरा’ माया है। जन्म-मरण, दुःख-सुख, हानि-लाभ, राग-द्वेष, मान-अपमान आदि द्वन्द्व मानव के जीवन में स्वाभाविक हैं। उनसे प्रभावित होकर मानव माया के बंधन में पड़ जाता है। इन सभी में समदृष्टि रखना ही ‘समता’ है। अहंता एवं ममता के भावों को मिटाने एवं समता के भाव को लाने के लिये ही गीता में ज्ञान, कर्म एवं भक्ति ये तीन मार्ग प्रतिपादित किये गये हैं। ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के प्रतिपादन के बाद भगवान् भक्तियोग का प्रतिपादन कर रहे हैं, जिसका प्रारंभ इस अध्याय में हुआ है।


    ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
    यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातमव्यमवशिष्यते।।गी.7.2।।


    अर्थात् मैं तुम्हारे निमित्त विज्ञान सहित सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान को बताऊँगा, जिसे जानकर संसार में और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। 


    यह संदर्भ सुन्दर एवं विस्तृत प्रकार से इस अध्याय में वर्णित है। भगवान् कहते हैं कि भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि एवं अहंकार ये आठ प्रकार की जड़ प्रकृति हैं, जिसे ‘अपरा’ प्रकृति कहा गया है। दूसरी प्रकृति चेतन प्रकृति है, जिसे ‘परा’ प्रकृति कहा गया है। इन दोनों ही प्रकृतियों के संयोग से सम्पूर्ण प्राणि जगत् उत्पन्न हुआ है। इनकी उत्पत्ति एवं प्रलय का मूल कारण ईश्वर ही है। पंचमहाभूतों अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथवी की उत्पत्ति पाँच तन्मात्राओं से होती है, जो हैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध। ये पंचमहाभूत उत्पन्न होकर पुनः उन्हीं में विलीन हो जाते हैं और यही सृष्टि एवं प्रलय का रहस्य है।


    भगवान् कहते हैं कि भावनाएँ सत्त्वगुण, राजोगुण एवं तमोगुण से समय-समय पर प्रभावित होती रहती हैं। इन्हीं गुणों से मोहित होकर मनुष्य त्रिगुणातीत परमात्मा को नहीं जान पाता है और जीवन में कष्ट पाता है। अतः भगवान् कहते हैंः


    दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
    मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।गी.7.14।।


    अर्थात् त्रिगुणमयी यह मेरी माया अपार एवं अद्भुत है। जो इस संसार को ही सत्य मानकर चलते हैं, इसका पार नहीं पाते हैं, किन्तु जो त्रिगुणातीत मुझ परमात्मा की उपासना करते हैं, वे इस माया का पार पा जाते हैं और उनका उद्धार होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा में ध्यान करने वाला और उसे ही सत्य मानने वाला मुक्त होता है और माया के बंधन से कष्ट नहीं पाता है। इसी क्रम में भगवान् भक्तों के प्रकार बताते हुए कहते हैं।


    चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जन।
    आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। गी.7.16।।


    अर्थात् भरतवंशियों में हे श्रेष्ठ अर्जुन! मेरे पुण्यात्मा भक्तों के चार प्रकार हैं - (1) अर्थार्थी - जो सांसारिक सुख-साधनों को प्राप्त करने के लिये मेरे भक्त बनते हैं। (2) आर्त्त - जो संकट निवारण के लिये मेरे भक्त बने हैं। (3) जिज्ञासु - जो मेरे रहस्य एवं मेरी रचना सृष्टि के बोध की जिज्ञासा रखते हैं। (4) ज्ञानी - जो ऐसा मानते हैं कि ईश्वर ही मूल कारण हैं, वे ही सत्य हैं, वे ही एकमात्र ध्येय एवं उपास्य हैं और ऐसा मानकर वे निःस्वार्थ भाव से मेरी उपासना करते हैं। ये ज्ञानी भक्त ही मेरे प्रिय हैं और मैं उनका प्रिय हूँ। वस्तुतः ऐसा ज्ञानी भक्त मेरा ही स्वरूप है। 


    यहीं पर एकदेववाद की स्थापना करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं।


    यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
    तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।गी.7.21।।


    अर्थात् जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धापूर्वक पूजना चाहते हैं, उन-उन सकाम भक्तों की श्रद्धा को मैं उस देवता के प्रति स्थिर करता हूँ। कहने का तत्पर्य यह है कि सभी देवता एक समान हैं और किसी भी देवता की उपासना से उसे वही फल प्राप्त होता है, जो सत्य है। यह एक महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन है, जो एकेश्वरवाद को पूर्णतः स्थापित करता है। इसी के क्रम में वे कह उठते हैं।


    स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
    लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्।।गी.7.22।।


    अर्थात् मेरे द्वारा श्रद्धा से युक्त वह पुरुष जिस देवविशेष की पूजा करता है, वह उस देवता से इच्छित फल पाता है, किन्तु फल-विधान करने वाला कोई दूसरा नहीं है, बल्कि वह मैं ही हूँ। देव भी मेरे द्वारा प्रदत्त वस्तु ही भक्त को देते हैं क्योंकि सबका स्रष्टा मैं ही हूँ। कहने का तात्पर्य यही है कि सभी एक ही हैं और ईश्वर एक ही है। उन्हें केवल अनेक रूपों में पूजा जाता है।


    आगे भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जरा और मृत्यु से छुटकारा पाने के लिये जो भक्त मेरा आश्रय लेकर साधना द्वारा संसारचक्र से मोक्ष पाने के लिये प्रयत्नशील होते हैं, वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण आध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जान लेते हैं। तब वे तत्त्ववेत्ता ज्ञानी मुझे जान लेते हैं और मुझे प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार भक्ति को इस अध्याय में सर्वश्रेष्ठ मार्ग के रूप में दर्शाया गया है, जो निश्चित रूप से सर्वकल्याणकारी है।


    इस प्रकार ज्ञान-विज्ञानयोग के इस अध्याय में कहा गया है कि इस सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति के मूल कारण ईश्वर ही हैं और इसका दृढ़ विश्वास ही ‘ज्ञान’ है। ईश्वर सर्वव्यापी हैं, वे कण-कण में विद्यमान हैं, वे ही अपरा एवं परा प्रकृति हैं, इस जगत् की उत्पत्ति के निमित्त एवं उपादान दोनों के ही कारण हैं - इस बात को मान लेना ही ‘विज्ञान’ है। इसे सरलीकरण करके देखें तो हम कह सकते हैं कि अपने शरीर और उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों और वस्तुओं को प्रकृति मान लेना ‘ज्ञानयोग’ है। संसार को मान लेना और उसके अनुसार कर्म करना ही ‘कर्मयोग’ है और ईश्वर की परमसत्ता में दृढ़ विश्वास ही ‘भक्तियोग’ है।

विश्वजीत ‘सपन’