Sunday, March 24, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग-73)




महाभारत की कथा की 98 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

कामत्याग की महिमा

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पुरातन काल की बात है। मंकि नामक एक व्यक्ति था। वह धन प्राप्त करना चाहता था, किन्तु उसका प्रत्येक प्रयास असफल हो जाता था। इस प्रकार उसका जीवन कष्टमय था। बार-बार के प्रयास के असफल हो जाने से वह बड़ा दुःखी रहता था और हमेशा कुछ नया करने पर विचार करता रहता था। बड़ा सोच-विचारकर उसने निर्णय लिया कि वह दो बछड़ों को खरीदेगा। उन बछड़ों को पाल-पोसकर बड़ा करेगा और फिर उनसे धनोपार्जन करेगा। ऐसा विचार कर उसने अपने बचे-खुचे धन से दो बछड़े खरीद लिये। उन्हें बड़े स्नेह से पालने लगा। समय बीतता गया।


एक दिन उसने सोचा कि क्यों न अब इन्हें प्रशिक्षित किया जाये, ताकि धन उपार्जित करने का अवसर मिले। यही सोचकर उसने उन्हें साधने के लिये जुए में जोत दिया। मार्ग में चलते समय उसने देखा कि कुछ दूरी पर एक ऊँट बैठा हुआ था। बछड़े पहली बार जुए में जुते थे। उन्हें इस तरह बँधना अच्छा नहीं लग रहा था। पता नहीं उन्हें क्या सूझाी कि वे उस ऊँट को बीच में करके उसकी ओर दौड़ने लगे। मंकि को लगा कि वे ऊँट से टकरा जायेंगे। उसने बड़ा प्रयास किया कि बछड़ों की दिशा ठीक हो, किन्तु वे बछड़े भी हठ में थे और माने नहीं। जब वे ऊँट की गर्दन के पास आये, तो ऊँट भी घबरा गया। वह उठ गया और भागने लगा। इस प्रकार वे दोनों बछड़े ऊँट की गर्दन में लटक गये। बछड़ों के इस प्रकार के अपहरण से एवं गर्दन दबने से उनको मरते देखकर मंकि ने कहा - ‘‘मनुष्य कितना भी चतुर क्यों न हो, किन्तु जो उसके भाग्य में नहीं होता तो प्रयत्न करने पर भी उसे धन की प्राप्ति नहीं हो सकती।’’


बेचारा मंकि बस देख रहा था। वह ऊँट उसके दो बछड़ों को अपने गले में लटकाये इधर-उधर भागा जा रहा था। बछड़ों के गले की घण्टी से और भी घबरा रहा था। मंकि यह सब देखकर विचार करने लगा कि यह सब दैव-लीला ही है। यदि किसी को कुछ मिलता है, तो खोजने पर दैव का ही किया जान पड़ता है। यदि कुछ नहीं मिलता तो उनकी ही कृपा के कारण होता है। दैव ने मुझे धन से मुक्ति लेने का संदेश दिया है। मुझे इस इच्छा से मुक्ति पा लेनी चाहिये। कहते हैं कि यदि सुख की इच्छा हो तो वैराग्य का आश्रय लेना चाहिये। जो मनुष्य धन की इच्छा त्याग देता है, वही सुख की नींद सोता है। सही है, शुकदेव मुनि ने कहा था - ‘जो मनुष्य अपनी समस्त कामनाओं को पा लेता है और जो उसका सर्वथा त्याग कर देता है, तो उन दोनों में कामनाओं को पाने वाले की अपेक्षा त्याग करने वाला ही श्रेष्ठ होता है।’


मंकि अपने घर वापस लौट गया और विचार करने लगा कि उसे अब क्या करना चाहिये? उसे शुकदेव जी की उक्ति के अनुसार ही विषयासक्ति को छोड़ देनी चाहिये, क्योंकि उसने बार-बार प्रयास किया, किन्तु उसकी अर्थवासना ने मात्र छकाया ही। उसे प्रतीत होने लगा कि अर्थवासना का वह खिलौना बना हुआ है। धन निश्चय ही संकल्प से उपजता है, तो उसे इस संकल्प को ही छोड़ देना चाहिये, ताकि वह समूल नष्ट हो जाये। उसे आज समझ आया कि यह संकल्प ही दुःख का कारण है। यदि प्राप्त हो जाये तो चिंता बनी रहती है और बढ़ती भी रहती है। यदि मिल जाये तो और भी पाने की तृष्णा बढ़ती जाती है। इसका कोई अंत नहीं है। फिर यदि धन होने का संदेह हो तो लुटेरे उस धन को पाने के लिये मार डालते हैं अथवा नाना प्रकार की पीड़ायें देते हैं। इससे तो धन का न होना ही श्रेयस्कर जान पड़ता है। 


मंकि ने निश्चय किया और मन ही मन कहा - ‘‘अरे काम, तेरा पेट भरना बड़ा कठिन कार्य है। तू पाताल से समान दुष्पूर है। तू मुझे दुःखों में फँसाना चाहता है। मैं तेरे बनाये इस जाल में नहीं फँस सकता। आज दैववश मेरे धन का नाश हो गया, किन्तु आज ही मुझे वैराग्य प्राप्त हुआ। मैं जान गया कि भोगों की इच्छा ने मुझे बाँध रखा था, किन्तु अब नहीं। आज के बाद से मैं तृप्त और स्वस्थचित्त रहूँगा। जो कुछ अनायास ही प्राप्त होगा, उसी से निर्वाह कर लूँगा। अब काम, लोभ, तृष्ण या कृपणता का प्रभाव मुझ पर नहीं हो सकता। मैं आज से ही सत्त्वगुण में स्थित हो गया हूँ। मैं अब अज्ञानियों की भाँति लोभ में पड़कर दुःख नहीं पाऊँगा। सच तो यही है कि मनुष्य जिस-जिस कामना को छोड़ देता है, उसी की ओर से सुखी हो जाता है और कामना के वशीभूत होकर ही दुःख पाता है। आज से मैं परब्रह्म में प्रतिष्ठित हूँ, पूर्णतया शान्त हूँ। मुझे असीम आनन्द का अनुभव हो रहा है।’’


इस प्रकार की बुद्धि पाकर मंकि विरक्त हो गया। उसने सभी प्रकार की कामनाओं का त्याग कर दिया एवं ब्रह्मानन्द को प्राप्त किया। दो बछड़ों के नाश से ही उसे अमरत्व की प्राप्ति हुई। उसने काम की जड़ें काट दीं और अत्यन्त सुखी हो गया।


यदि मनुष्य को नाना प्रकार से उद्योग करने पर भी धन की प्राप्ति न हो, तो उसे इन पाँच बातों का अनुसरण करना चाहिये - सबके प्रति समताभाव रखना, धनादि के लिये विशेष उपक्रम न करना, सत्य भाषण करना, भोगों से विरक्त रहना एवं कर्म में आसक्त न होना। ऐसा करने से उसे सर्वथा सुख की प्राप्ति होती है। यही शास्त्र कहते हैं।


विश्वजीत 'सपन'

Thursday, March 14, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 72)




महाभारत की कथा की 97 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

जीवन क्या है?

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एक प्रचीन इतिहास है। किसी स्वाध्यायशील ब्राह्मण का मेधावी नामक एक पुत्र था। मेधावी अपने नाम के गुणों वाला था। वह धर्म, अर्थ एवं मोक्ष को भली-भाँति जानने-समझने वाला था। एक दिन की बात है। उसने अपने पिता से कहा - ‘‘पिताजी, मनुष्य की आयु बड़ी तेजी से बीतती जा रही है। उसके पास कम समय होता है। ऐसे में उसे धर्माचरण के लिये क्या करना चाहिये?’’


    पिता ने समझाते हुए कहा - ‘‘बेटा, मनुष्य को चारों आश्रमों का पालन करना चाहिये। सर्वप्रथम उसे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेदाध्ययन करना चाहिये, उसके उपरान्त गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर अपने पितरों की सद्गति के लिये पुत्र उत्पन्न करना चाहिये, फिर यज्ञादि करना चाहिए। कुछ समय बाद उसे वानप्रस्थ आश्रम का पालन करना चाहिये तथा अंत में संन्यास ग्रहण कर वन-गमन करना चाहिये। यही जगत का नियम है एवं शास्त्रों के अनुसार जीवन यापन करने का मूल सिद्धान्त हैं।’’


    मेधावी इस अनित्य जगत् को सत्य नहीं मानता था। उसने पूछा - ‘‘पिताजी, आपकी बात शास्त्रों के अनुसार उचित है, किन्तु मुझे तो यह लोक बड़ा ही ताड़ित तथा सब ओर से घिरा हुआ प्रतीत होता है। इसमें अमोघ वस्तुओं का पतन हो रहा है। इस प्रकार की बातों से जीवन-यापन कैसे किया जा सकता है?’’


    पुत्र की बात सुनकर पिता को आश्चर्य भी हुआ एवं गर्व भी। पिता ने कहा - ‘‘पुत्र, तुमको यह लोक ताड़ित कैसे लग रहा है?’’


    मेधावी ने कहा - ‘‘पिताजी, मृत्यु को देखिये वह किसी को नहीं छोड़ती। प्रत्येक रात्रि के बीतने पर आयु क्षीण हो रही है। मेरे अथवा आपके कहने पर भी मृत्यु नहीं रुक सकती। हम निरन्तर भोगों के संग्रह में लगे रहते हैं, किन्तु मृत्यु हमें उठाकर ले जाती है। बुढ़ापा सबको आना ही है। अमोघ रात्रियाँ नित्य ही आती हैं एवं चली जाती हैं। पिताजी, इस जगत में मृत्यु, जरा, व्याधि तथा अनेक प्रकार होने वाले दुःखों का ताँता लगा ही रहता है, तो यह लोक इतना अधिक ताड़ित है। यह जीवन की विधि नहीं हो सकती। हम तो सब ओर से घिरे हुए लगते हैं।’’


    पिता ने पूछा - ‘‘और ऐसा क्या है, जो हमें सब ओर से घेरे हुए हैं? इनमें कौन-कौन-सी अमोघ वस्तुओं के पतन हो रहे हैं? इसे थोड़ा विस्तार से बताओ।’’


    मेधावी ने कहा - ‘‘पिताजी, मनुष्य मोह में घिरा रहता है। उसे भोग की इच्छा घेरे रहती है। उसके पास पुत्र एवं पशुओं की अधिकता होती है तथा उन्हीं में उसका मन आसक्त रहता है। अनेक प्रकार की वस्तुओं की लालसा उसे पूर्णतः घेरे रहती है। स्त्री एवं पुत्रों में आसक्ति तो जीव को बाँधने वाली रस्सी के समान ही है। मात्र पुण्यात्मा पुरुष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरुष इसे काट नहीं सकते। यह संसार जैसा दिखाई देता है, वैसा कदापि नहीं है।’’


    पिता ने पुत्र की बात को समझकर पूछा - ‘‘तुम्हारी बात उचित है पुत्र, किन्तु तब एक मनुष्य को क्या करना चाहिये? उसे किस प्रकार का जीवन जीना चाहिये? शास्त्रगत जीवन ही तो उचित होना चाहिये।’’


    मेधावी ने कहा - ‘‘सत्य ही जीवन का आधार होना चाहिये। मनुष्य को सत्ययोग में तत्पर रहना चाहिये, क्योंकि सत्य में ही अमृततत्त्व है। उसे अपनी इन्द्रियों का दमन करना चाहिये। अमृत एवं मृत्यु दोनों ही एक शरीर में विद्यमान होते हैं। मोह से मृत्यु प्राप्त होती है, जबकि सत्य से अमरत्व प्राप्त होता है। हमें हमेशा ही सत्य की खोज करनी चाहिये। हिंसा से दूर रहना चाहिये। काम एवं क्रोध को मन से निकाल देना चाहिये। सुख-दुःख में समान रहना चाहिये। जिसमें दूसरों को सुख मिले, ऐसा आचरण करना चाहिये, तब वह मृत्यु के भय से मुक्त हो सकता है। यह भय से मुक्ति ही समस्त प्रकार के अज्ञान के अंधकार को दूर कर देता है। यही जीवन का मूल आधार है।’’


    पिता ने कहा - ‘‘यह सब जानते हुए भी मनुष्य ऐसा आचरण क्यों नहीं करता?’’


    मेधावी ने कहा - ‘‘पिताजी, यह सब अज्ञानता के कारण होता है। ज्ञान के समान कोई नेत्र नहीं एवं सत्य के समान कोई तप नहीं। राग के समान कोई दुःख नहीं एवं त्याग के समान कोई सुख नहीं। सत्य तो यही है कि एक ब्राह्मण के लिये एकान्तवास, समता, सत्य-भाषण, सदाचार, अहिंसा, सरलता तथा सब प्रकार के काम्य कर्मों से निवृत्ति से बढ़कर कोई धन नहीं होता। ऐसे में किसी अन्य प्रकार के धन की प्रवृत्त होना ही अनुचित है।


    एक बार सोचिये। कल जो थे, आज नहीं हैं। आज जो हैं, वे कल नहीं रहेंगे। फिर धन, स्वजन, स्त्री, पुत्र आदि से हमें क्या लेना-देना? हमें तो अपने अन्तःकरण में स्थित आत्मा को खोजना चाहिये। यही एक ब्राह्मण एवं किसी भी मनुष्य का ध्येय होना चाहिये।’’ 


    इस प्रकार मेधावी ने अपने पिता को बताया कि वास्तविक जीवन क्या है तथा हमें किस प्रकार का जीवन जीना चाहिये। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह जीवन को समझे तथा सत्य की खोज करते हुए जीवन को उचित मार्ग पर लेकर चले, ताकि मृत्यु जैसे सत्य का भय दूर हो सके एवं जीवन का सुख प्राप्त हो सके। मनुष्य जीवन ईश्वर का वरदान है। इसे ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिये।


विश्वजीत 'सपन'