Sunday, December 18, 2011

नारी (आलेख)

(यह आलेख वर्ष १९९१ में सर्वप्रथम किरोड़ीमल कालेज की पत्रिका में छपी और उसके बाद कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं में इसने प्रवेश पाया था  यह नारी के प्रति मेरे विचारों कि पुष्टि करता है और मुझे उनके उत्थान की ओर कार्य करने को प्रेरित करता है। यह तस्वीर मेरी पूजनीया माँ की है, जिन्हें मैं जी-जान से प्रेम करता हूँ और उनके सम्मान में यह आलेख समर्पित करता हूँ।)
जय हिंद । जय भारत।
नारी

न जाने कितने विचारक नारी के विषय में अपने-अपने विचार प्रामाणिकता अथवा बिना प्रमाण के ही समाज के सामने रख चुके हैं। वस्तुतः विचारकों के विचार प्रामाणिकता के बिना भी तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हैं।
इस बारे में शास्त्रों में कहा गया है, ”तर्क्यतेऽनेनेति तर्कः प्रमाणम्“ अर्थात् जिसके द्वारा प्रमेय आदि के बारे में बताना उद्देश्य नहीं है। परन्तु इससे यह सिद्ध तो हो ही जाता है कि जहाँ प्रमाण की अपेक्षा है, वहाँ तर्क निराधार हो जाते हैं। किन्तु प्रमाण केवल प्रत्यक्ष हो, यह अनिवार्य नहीं है। अतः सब प्रकार के अनुमान आदि पर भी विचार करना पड़ता है।


      एक बार महाकवि भर्तृहरि ने नारी के विषय में अपनी जिज्ञासा शांत करने के उद्देश्य से एक संन्यासी से पूछा, "महात्मन्, नारी क्या है ?"

     संन्यासी ने हँसकर कहा - "राजन्, नारी में सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। श्रृंगार है उसमें, वैराग्य है, नीति भी ... वह गणिका है, पतिव्रता है, पत्नी है, माँ है, बहिन है, साथी है, आदिशक्ति है और म्लेच्छ भी ... क्या नहीं है।"

     पुनः एक बार अत्यंत ज्ञानी राजा भोज ने माघ पंडित से अन्य प्रश्नों के क्रम में एक यह प्रश्न भी पूछा कि संसार में क्षमतावान् कौन है। तब महाज्ञानी पंडित माघ ने बताया कि इस चराचर जगत् में दो ही क्षमतावान् हैं - एक पृथ्वी और दूसरी नारी।

     परन्तु अनादिकाल से ही नारी एक अनबूझ पहेली रही है। एक ओर यह भर्तृहरि की पहली पत्नी अनंगसेना की तरह विश्वासघातिनी है तो दूसरी ओर दूसरी पत्नी पिंगला की तरह पति की मृत्यु का समाचारमात्र पाकर शरीर त्यागने वाली पतिव्रता स्त्री। एक तरफ प्रचण्ड काली विनाश का प्रतीक है तो दूसरी तरफ सौम्य सरस्वती शान्ति का। वस्तुतः देखा जाए तो अत्यन्त प्राचीन काल से ही नारी के विभिन्न रूपों की चर्चा होती रही है। वैदिक काल में नारी का परिवार में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान था। उस समय सृष्टि की रचना में नारी का प्रकृति के रूप में उल्लेख किया गया है। शतपथ ब्राह्मण आदि में स्त्री को अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकारा गया है। महाभारत के आदि पर्व में कहा गया है - "जिनके पत्नियाँ हैं, वे ही धार्मिक संस्कार सम्पन्न कर सकते हैं। जो गृहस्थ हैं और जिनके पत्नियाँ हैं, वे ही सुखी रह सकते हैं।" अर्थात् कोई भी धार्मिक कार्य व अनुष्ठान ‘दम्पति’ के बिना पूर्ण नहीं होते थे। इसलिए तब नारी को हमेशा यथोचित आदर व सम्मान मिलता था, बल्कि उन्हें पूजनीय माना जाता था - "यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः"। अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहीं देवताओं का वास होता है। यहाँ तक कि वैशाली की नगरवधू आम्रपाली को भी उतनी ही श्रद्धा मिलती थी, जितनी अन्य नारियों को। परन्तु, तत्कालीन समय में नारी की क्या गति है, यह सर्वविदित है। वस्तुतः यह स्थिति भी कुछ हद तक हमारे पूर्वजों की ही देन है। ब्राह्मण काल में ही या यों कहें कि जब शासन-तंत्र पर ब्राह्मणों का बोलबाला था, नारी की इस स्थिति की नींव रखी जा चुकी थी। वह नींव इतनी गहरी और मजबूत रखी गई थी कि आज भी उसमें दरार नहीं पड़ पाई है।