Saturday, June 18, 2016

राजकुमारी सुभद्रा का हरण - कथा 8

वैशम्पायन जी कहते हैं कि बारह वर्षों के लिये अर्जुन वन में रहने लगे और इसी दौरान उन्होंने अनेक स्थलों की यात्रायें कीं। हिमालय की तराई से होते हुए महेन्द्र पर्वत फिर सागर के किनारे चलते हुए प्रभास क्षेत्र में पहुँचे। तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ आकर अर्जुन को द्वारका नगरी लेकर आये।
(महाभारत, आदिपर्व)


8

बहुत समय पहले की बात है। भगवान् श्रीकृष्ण मथुरा में रहते थे। उस समय यादवों का राज्य अत्यधिक सुखी और सम्पन्न था। भाईचारे का वातावरण था। सभी प्रसन्नता से रहते थे। एक बार यादवों ने रैवत पर्वत पर एक बहुत बड़े उत्सव का आयोजन किया। ब्राह्मणों को सहस्रों रत्नों का दान दिया। उत्सव में यदुवंशी सज-धजकर घूम रहे थे। चारों ओर कोलाहल था। बाजे-गाजे बज रहे थे। नाच-गाना हो रहा था। सभी प्रसन्न थे। उसी उत्सव में श्री कृष्ण के साथ पाण्डु के तीसरे पुत्र अर्जुन भी थे। श्रीकृष्ण के बुलाने पर सखा के घर आये थे। 

वहाँ घूमते हुए अर्जुन की दृष्टि कृष्ण की बहन सुभद्रा पर पड़ी। पहली ही दृष्टि में वह उन्हें भा गयी। उसकी मोहिनी सूरत देखकर अर्जुन एकटक देखते रह गये। अर्जुन के मनोभावों को पढ़ते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने चुहलता से पूछा - ‘प्रिय अर्जुन! जो मैं देख रहा हूँ क्या वह सच है?’


अर्जुन सहसा पूछे गये इस प्रश्न से सकपका गये। शर्म के मारे उन्होंने अपना सिर झुका लिया। 


‘भगवन्! आपसे क्या छुपाना। आप तो अंतर्यामी हैं।’ अर्जुन ने सकुचाते हुए कहा।


कृष्ण के लिये इतना संकेत ही अधिक था। वे सुभद्रा के लिये अर्जुन को एक योग्य वर मानते थे। किन्तु सुभद्रा की इच्छा के बारे में उन्हें भी कोई जानकारी नहीं थी। इसलिए बोले - ‘प्रिय मित्र! स्वयंवर में वह तुम्हें वरेगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। यदि तुम सुभद्रा से विवाह करना चाहते हो, तो क्षत्रियों की तरह हरण करके ही कर सकते हो।’


‘लेकिन भगवन् आपके होते हुए, आपकी बहन का हरण कैसे संभव है?’ अर्जुन के लिये यह एक अनबूझ पहेली थी।


‘प्रिय अर्जुन! क्षत्रिय इस तरह से बातें नहीं करते। वे तो शौर्य के प्रतीक होते हैं। फिर तुम्हारे लिये यही सबसे सरल एवं उत्तम उपाय है।’ श्रीकृष्ण ने हमेशा की तरह मुस्कुराते हुए कहा।


कृष्ण की मंशा जानकर और उनकी सलाह पर अर्जुन ने अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के पास दूत भेजा। युधिष्ठिर ने दूत से समाचार सुना तो उन्हें अपार प्रसन्नता हुई और वे इस रिश्ते के लिये सहर्ष तैयार हो गये। दूत ने लौटकर जब यह समाचार कहा तो अर्जुन ने योजना बनायी।


एक दिन सुभद्रा रैवत पर्वत पर देव पूजा के लिये गयी। पूजा करने के बाद जब वह द्वारका आ रही थी, तब अवसर देखकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ पर बिठा लिया। उसे लेकर अपने नगर की ओर चल पड़े। सैनिकों ने तुरन्त जाकर द्वारका की सभा में यह समाचार बताया, तो यादवों ने इसे अपमान समझा और क्रोध से आगबबूला हो गये। सभापाल ने तत्काल युद्ध का आदेश दे दिया। युद्ध का डंका बजते ही सभी इकट्ठा हो गये और युद्ध की तैयारी करने लगे। 



तब बलराम ने इस बारे में श्रीकृष्ण से बात करने की सलाह दी। सभी श्रीकृष्ण के पास गये और बोले - ‘भगवन्! आपका मित्र समझकर हमने अर्जुन का स्वागत किया। किन्तु, उसने जिस थाली में खाया उसी में छेद किया। बिना किसी कारण के हमारी बहन का हरण किया। उसे इस करनी का दण्ड अवश्य मिलना चाहिए।’


सभी यादवों ने इस बात का समर्थन किया। श्रीकृष्ण ने शांत भाव से सबको समझाया - ‘अर्जुन ने हमारे वंश का अपमान नहीं, बल्कि सम्मान किया है। असल में हमारे वंश के महत्त्व को जानकर ही उसने हमारी बहन का हरण किया है।’


‘यह आप कैसी बातें कर रहे हैं? अर्जुन के अपराध को अपराध नहीं मान रहे हैं?’ यादवों ने पूछा। 


श्रीकृष्ण बोले - ‘यह अपराध नहीं है, बल्कि उसका यह कार्य उसके क्षत्रिय धर्म के अनुसार ही है। क्षत्रियों में हरण कर विवाह करना मान्य है। उसे स्वयंवर में सुभद्रा को पाने में संदेह था। इसलिए उसने ऐसा किया।’ 


‘किन्तु, भगवन्! वे हमसे बात करके भी हमारी बहन का हाथ माँग सकते थे।’ सभापाल ने कहा।


‘अवश्य, किन्तु आप भूल रहे हैं कि यदि बहन सुभद्रा को यह बात नहीं जँचती तो क्या होता? वैसे भी अर्जुन के साथ नाता जोड़ना हमारे लिये गर्व की बात है।’ श्रीकृष्ण ने पुनः समझाते हुए कहा।


यादवों में असंतोष था और नाना प्रकार से समझाने के पश्चात् ही वे श्रीकृष्ण की बात मान पाये। तब उन्होंने युद्ध करने का निर्णय त्याग दिया। यह समाचार पाकर अर्जुन सुभद्रा के साथ द्वारका वापस लौट आये। उसके बाद बड़ी धूम-धाम के साथ सुभद्रा का विवाह अर्जुन के साथ कर दिया गया। एक वर्ष तक अर्जुन द्वारका में ही रहे।


जब एक वर्ष के बाद वे सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ आये, तो उनका बहुत स्वागत हुआ। सुभद्रा ने कुन्ती के पैर छुए, तो उन्होंने आशीर्वाद दिया। द्रौपदी ने बहन कहकर संबोधित किया तो सुभद्रा ने उसके भी पैर छू लिये। द्रौपदी ने उसे गले से लगा लिया।


इस प्रकार इन्द्रप्रस्थ और द्वारका में बहुत ही घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गया। कुछ वर्षों के बाद सुभद्रा ने एक वीर और सुन्दर बालक को जन्म दिया। उसका नाम अभिमन्यु पड़ा। श्रीकृष्ण ने उसे सब प्रकार की शिक्षा दी और वह गुणों में एक श्रेष्ठ कुमार बना। महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु ने अपनी वीरता से सभी को चकित कर दिया।

 
विश्वजीत ‘सपन’