Sunday, July 21, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 84)

महाभारत की कथा की 109 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 
 

चराचर प्राणियों की अनित्यता

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दैत्यराज प्रह्लाद देवासुर संग्राम के बाद पराजित होकर एक स्थल पर निर्विकार बैठे हुए थे। उनकी किसी विषय में आसक्ति न थी। वे सत्त्वगुण में स्थित रहते थे। ऐसी परिस्थिति में भी उन्हें इस प्रकार देखकर इन्द्र को उनकी बुद्धि को जानने की प्रबल इच्छा हुई। वे उनके पास जाकर बोले - ‘‘तुम्हारे मत में कल्याण का सर्वश्रेष्ठ साधन क्या है?’’


    दैत्यराज ने कहा - ‘‘देवराज, जो आत्मा को शुभ एवं अशुभ कर्मों का कर्ता मानता है, वह अज्ञानी है। यदि पुरुष कर्ता होता, तो वह अपने कल्याण के लिये जो कुछ भी करता, वह सब अवश्य सिद्ध हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता। कार्यों को जानना, किन्तु उनको करने वाली प्रकृति को न जानना ही मोह का कारण होता है। इस बात को समझने वाले को मोह नहीं होता, तब उसका सर्वदा कल्याण होता है।’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘तुम रस्सियों में बाँधे गये, राज्य से च्युत हुए, शत्रुओं के वश में पड़े तथा राज्यलक्ष्मी से भी हीन हुए। इस प्रकार की दुर्दशा होने पर भी तुम्हें शोक क्यों नहीं होता?’’


    प्रह्लाद ने कहा - ‘‘मैं सम्पूर्ण भूतों की अनित्यता को जानता हूँ। कोई भी वस्तु सदा के लिये नहीं होती, उसको नष्ट होना ही होता है। मैं इन समस्त नाशवान् को समझता हूँ और इसी कारण मुझे इसके न रहने पर कोई शोक नहीं होता। मन एवं इन्द्रियों को अधीन करके तृष्णा एवं कामनाओं का त्याग करके सदा अविनाशी आत्मा पर दृष्टि रखता है, उसे कभी कोई कष्ट नहीं होता। फिर शोक करने से शरीर को कष्ट होता है तथा शत्रु प्रसन्न होते हैं, तो शोक क्यों किया जाये? शोक करने से दुःख दूर नहीं होता।’’


    इन्द्र ने समझ लिया कि प्रह्लाद आत्मतत्त्व का ज्ञानी है। इसके बाद भी उन्होंने पूछा - ‘‘तुम्हारी बात उचित है, किन्तु अपने ऊपर संकट देखकर भी तुम निश्चिन्त कैसे हो? तुम्हारी यह स्थिति आत्मज्ञान के कारण है या धैर्य के?’’


    दैत्यराज ने कहा - ‘‘मैं ममता, अहंकार तथा कामनाओं का त्याग कर बंधनरहित हो चुका हूँ। मैं समस्त प्राणियों की उत्पत्ति एवं उनके विनाश को समझता हूँ। वैसे भी संकट पड़ने पर जो धैर्य नहीं खोता है, वही श्रेष्ठ मनुष्य समझा जाता है। जो होना है, वह होकर ही रहेगा। अपने ऊपर जो अवस्था आ पड़ी है, वही होनहार थी, इस तरह का भाव रखकर जो उस परिस्थिति को स्वीकार करता है, उसे कभी मोह नहीं होता। न तो मेरे मन में राग है और न ही द्वेष। न तो मैं किसी को आत्मीय समझता हूँ और न ही द्वेषी। फिर मुझे किस संकट से भय होगा? मुझे किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है। मेरी दृष्टि मात्र अविनाशी आत्मा पर है। इस कारण मुझे जीवन सरल एवं शान्तिमय प्रतीत होता है।’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘जिस उपाय से ऐसी शान्ति मिलती है और इस प्रकार की बुद्धि प्राप्त होती है, उसे विस्तार से बताओ।’’


    प्रह्लाद ने कहा - ‘‘सरलता, निर्मलता, चित्त की स्थिरता एवं बड़े -बूढ़ों की सेवा करने से ज्ञान को समझने वाली बुद्धि की प्राप्ति होती है। इन गुणों को अपनाने से स्वभाव से ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। स्वभाव से ही शान्ति मिलती है। आप जो कुछ भी देख रहे हैं, वह सब स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं।’’


    इस प्रकार के उत्तर पाकर इन्द्र को विस्मय हुआ। दैत्यराज होते हुए भी प्रह्लाद निंदा एवं स्तुति को समान समझते थे, मन एवं इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते थे तथा एकान्त निवास करते थे। उन्हें चराचर प्राणियों की उत्पत्ति एवं नाश का ज्ञान था। वे अप्रिय हो जाने पर भी कभी क्रोध नहीं करते थे तथा प्रिय होने पर हर्ष नहीं मनाते थे। वे आत्मा का कल्याण करने वाले ज्ञानयोग में स्थित एवं धीर थे। इतना समझने के बाद इन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने प्रह्लाद के वचनों की प्रशंसा की तथा उनका पूजन भी किया। उसके उपरान्त वे अपने धाम को लौट गये।


    इस संसार में जो भी शुभ अथवा अशुभ कर्म होता है, उसका कर्ता पुरुष नहीं बल्कि करने वाली प्रकृति है। सब तरह के भाव एवं अभाव स्वभाव से ही आते रहते हैं, उनके लिये पुरुष का कोई प्रयत्न नहीं होता तथा प्रयत्न के अभाव में पुरुष उसका कर्ता नहीं हो सकता। जब किसी पुरुष को उसके कर्तापन का अभिमान हो जाता है, तब वह मोह में बँध जाता है।


विश्वजीत 'सपन'

Sunday, July 14, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 83)



महाभारत की कथा की 108 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

देवी लक्ष्मी का माहात्म्य

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    प्राचीन काल की बात है। एक दिन महर्षि नारद गंगा जी में स्नान करने के लिये उनके तट पर गये। उसी समय वज्रधारी इन्द्र भी उसी तट पर पहुँचे। दोनों ने ही एक साथ जल में गोते लगाये और गायत्री मंत्र का जाप किया। उसके उपरान्त वे वहीं रेत पर बैठकर वार्तालाप करने लगे। जब वे वार्तालाप कर ही रहे थे कि सूर्य भगवान् का उदय हुआ। तत्काल ही दोनों ने सूर्य पूजा की। 


    ठीक उसी समय आकाश से एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई, जो निरन्तर उनके समीप ही आ रही थी। वह एक अनुपम दृश्य था। समस्त जगत् उस प्रकाश-पुंज से आलोकित हो रहा था। निकट आते ही उन्होंने देखा कि वह भगवान् विष्णु का विमान था और उस पर साक्षात् लक्ष्मी माता विराजमान थीं। जब वे उनके समीप आईं, तब दोनों ने उनको प्रमाण किया और इन्द्र बोले - ‘‘माता आज आपके दर्शन से चित्त प्रसन्न हो गया। इस प्रकार आपके आने का कोई न कोई भेद अवश्य है। कृपाकर हमें बतायें कि आपके आने का क्या प्रयोजन है?’’


    लक्ष्मी देवी ने कहा - ‘‘इन्द्र, आप तो जानते ही हैं कि मैं सदा धर्मशील पुरुषों के देश में, नगर में एवं आवास पर निवास करती हूँ। वीरता से संघर्ष करने वाले राजाओं के शरीर में सदा उपस्थित रहती हूँ। मैं पहले सत्य और धर्म में बँधकर असुरों के पास रहती थी, किन्तु अब उन्हें धर्म के विपरीत देखकर आपके पास रहने के विचार से आई हूँ।’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘देवि, आपका हार्दिक स्वागत है, किन्तु दैत्यों का पहले क्या आचरण था कि आप उनके पास रहती थीं।’’


    लक्ष्मी ने कहा - ‘‘पहले दैत्यलोग दान, अध्ययन एवं यज्ञ में संलग्न रहते थे। देवता, पितर, गुरु एवं अतिथियों की पूजा करते थे। उनमें सदा सत्य बोलने की प्रवृत्ति थी। वे घर-द्वार स्वच्छ रखते थे। उनमें श्रद्धा थी एवं क्रोध न था। सबका स्वभाव अच्छा था, सभी दयालु थे, सबमें सरलता एवं भक्तिभाव था। उपवास एवं तप में लगे रहते थे। ब्राह्मणों की पूजा किया करते थे। सदा ही धर्म का आचरण करते थे और इसी कारण मैं सदियों से उनके पास रहती आयी हूँ।’’


    इन्द्र ने पूछा - ‘‘देवि, फिर अब ऐसा क्या हो गया कि उन्हें छोड़कर हम देवताओं के पास रहने आयी हैं?’’


    लक्ष्मी ने कहा - ‘‘समय के उलट-फेर से उनके गुणों में विपरीतता आयी है। अब उनमें धर्म नहीं रह गया है। गुरुओं का आदर समाप्त हो गया है। बड़े-बूढ़ों का सम्मान समाप्त हो गया है। संतानों के लालन-पालन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। संतान पिता के रहते ही मालिक बन बैठता है। स्वच्छता से उन्हें कोई मतलब नहीं रह गया है। उनके रसोइये भी अपवित्र रहने लगे हैं। स्त्रियों एवं बूढ़ों को अपमानित किया जाता है। यज्ञ, तपादि से उनका कोई नाता नहीं रह गया है। चारों ओर भय का वातावरण बन गया है। पूर्व में दानवों के उत्थान में मैं सहायक थी, किन्तु अब मैं नहीं रही, तो अवश्य ही उनका पतन प्रारंभ हो गया है। मेरे रहते ही उत्थान संभव है। मैं यदि नहीं रही तो पतन होना अवश्यम्भावी है। इसी कारण मैंने निश्चय किया है कि मैं अब आपके पास ही निवास करूँगी। मेरे साथ आठ देवियाँ भी निवास करती हैं - आशा, श्रद्धा, धृति, क्षान्ति, विजिति, संनति, क्षमा तथा जया। अब से इन देवियों का निवास भी आपके पास ही होगा। आप हमें स्वीकार कीजिये।’’


    इन्द्र ने उन सभी देवियों को प्रणाम कर कहा - ‘‘हम धन्य हो गये माते, आपका हमारे यहाँ हार्दिक स्वागत है।’’


    इन्द्र एवं नारद के ऐसा अभिनन्दन करने के साथ ही शीतल, सुगन्धित एवं सुखद वायु चलने लगी। उनके दर्शन करने के लिये सभी देवी-देवता उपस्थित हो गये। नारद जी ने लक्ष्मी जी के शुभागमन की प्रशंसा की। ब्रह्मा जी के लोक से अमृत वर्षा होने लगी। देवताओं की दुन्दुभि बिना बजाये ही बज उठी। समस्त दिशायें निर्मल एवं श्रीसम्पन्न दिखाई देने लगीं। 


    लक्ष्मी जी के इस प्रकार आने से संसार में समय पर वर्षा होने लगी। पृथ्वी पर रत्नों की खानें प्रकट हो गयीं। मनुष्य, किन्नर, यक्ष, देवताओं आदि की समृद्धि बढ़ गयी। वे सभी सुख से रहने लगे। गौएँ दूध देने के साथ ही सभी की मनोकामनायें पूर्ण करने लगीं। किसी के मुख से कठोर वाणी नहीं निकलती थी। 


     कहते हैं कि जो लोग लक्ष्मी देवी की आराधना से सम्बन्ध रखने वाले इस कथा का अध्ययन एवं वाचन ब्राह्मणों की मंडली में करते हैं, यदि वे धन के इच्छुक हों, तो उन्हें प्रचुर मात्रा में धन की प्राप्ति होती है। वे जीवन भर सुखी रहते हैं तथा उन्हें कभी भी दुःख का अनुभव नहीं होता। 


विश्वजीत 'सपन'