Saturday, November 8, 2014

गीता ज्ञान - 10


विभूतियोग

सातवें से नवें अध्याय में भगवान् के निराकार एवं साकार रूप का निरूपण ज्ञान एवं विज्ञान के रूप में होता आया है। दशवाँ अध्याय भी उसी क्रम में है। इस अध्याय को ‘विभूतियोग’ नाम दिया गया है। ‘विभूति’ का अर्थ है - ऐश्वर्य। विभूतियोग का विस्तार से वर्णन इस अध्याय को भगवान् की अलौकिकता की स्थापना का अध्याय कहा जा सकता है। भगवान् क्या हैं और क्या नहीं, इस ज्ञान को बड़ी सुन्दरता एवं सरलता से प्रतिपादित किया गया है। 

गीता के पिछले अध्यायों में भक्ति की महत्ता को प्रतिष्ठापित किया गया है। भगवान् ही भक्ति के आलम्बन हैं। उनकी भक्ति में मानव का कल्याण छुपा है। इस सम्बन्ध में कोई भ्रान्ति नहीं हो सकती और अर्जुन को भी नहीं हुई, किन्तु वे योगेश्वर श्रीकृष्ण से उनकी दिव्य विभूतियों को सुनने का अनुरोध करते हैं और इस अध्याय की भूमिका बनती है।


    इस अध्याय में भगवत् तत्त्व की व्यापकता का वर्णन देखते ही बनता है। प्रारंभ में भगवान् बताते हैं कि उनकी उत्पत्ति को अर्थात् लीलापूर्वक प्रकट होने के रहस्य को न देवता और न ही महर्षि जानते हैं क्योंकि वे ही देवताओं एवं महर्षियों के भी आदिकारण हैं। बुद्धि, तत्त्वज्ञान, चेतना, क्षमा, इन्द्रियों को वश में रखना, मन का निग्रह, सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय, भय-निर्भयता, अहिंसा, समता, संन्तोष, तप, दान, कीर्ति-अपकीर्ति आदि ऐसे अनेक प्रकार के भाव उन्हीं के कारण होते हैं। उन्हीं की संकल्पशक्ति से चौदह मनु, उसके पश्चात् सनकादि चार ऋषि और पुनः सप्तर्षिगण उत्पन्न हुए हैं और इन्हीं की संतानें इस संसार में चारों ओर फैली हुई हैं। वे वासुदेव श्रीकृष्ण ही समस्त संसार की उत्पत्ति के कारण हैं और संसार में गति एवं चेष्टायें उन्हीं के कारण हैं। और जो इन विभूतियों के योग को जान लेता है, वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है।


    एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
    सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।। गी. 10.7।।


    अर्थात् जो मेरे इस ऐश्वर्य को एवं मेरी विलक्षण शक्ति एवं अनन्त सामर्थ्य को तत्त्व से जान लेता है, वह भक्तियोग में स्थिर हो जाता है और इसमें कोई संदेह नहीं है।


    इस विस्तृत जानकारी को भली-भाँति समझकर अर्जुन कहते हैं कि हे पुरुषोत्तम! आप ही देवों के देव हैं और आप ही स्वयं को जानने एवं समझने में सक्षम हैं। अतः आप ही अपनी योगशक्ति एवं विभूति को विस्तारपूर्वक कहिये। उन विभूतियों के सम्बन्ध में बताइये जिनके द्वारा आप सम्पूर्ण लोकों को आच्छादित करके स्थित हैं। उन भावों एवं रूपों के सम्बन्ध में बताइये जो मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं।


    तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे इन दिव्य विभूतियों को अर्जुन से संक्षेप में बतायेंगे क्योंकि इनके विस्तार का अन्त नहीं है। ये विभूतियाँ दसवें अध्याय के 20 से 40 श्लोकों में वर्णित हैं। 


भगवान् कहते हैं कि वे ही एकादश रुद्रों में शंकर हैं और यक्ष तथा राक्षसों में धन के स्वामी कुबेर हैं। द्वादश आदित्यों में विष्णु, ज्योतियों में रश्मिमाल सूर्य, मरुतों का तेज और नक्षत्रों के अधिपति चन्द्रमा वे ही हैं। वे ही सामवेद हैं, देवों में इन्द्र हैं, इन्द्रियों में मन हैं और प्राणियों में चेतना हैं। 


वे ही आठ वसुओं में अग्नि और शिखरधारी पर्वतों में सुमेरु पर्वत हैं। पुरोहितों के मुख्य पुरोहित बृहस्पति वे ही हैं और सेनापतियों में कार्तिकेय तथा महर्षियों में भृगु और शब्दों में आंेकार वे ही हैं। वे ही सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और पर्वतों में स्थिर हिमालय, जलाशयों में समुद्र और वृक्षों में पीपल वृक्ष हैं। देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिल, अश्वों में अमृत सहित उत्पन्न उच्चैःश्रवा, हाथियों में ऐरावत, मनुष्यों में राजा, आयुधों में वज्र, गायों में कामधेनु, कामदेव और सर्पराज वासुकि वे ही हैं। शेषनाग, वरुणदेव, आर्यमा पितर और यमराज भी वे ही हैं। वे ही दैत्यों में प्रह्लाद, गणना हेतु समय, पशुओं में मृगेन्द्र, पक्षियों मे गरुड़, पवित्र करने वाले पवन, शस्त्रधारियों में राम, जलचरों में मगर, नदियों में गंगा हैं।


वे केशव ही हैं, जो सृष्टियों के आदि, अन्त एवं मध्य में स्थित हैं। ब्रह्मविद्या और वादात्मक स्वरूप भी वे ही हैं। वे ही अक्षरों में आकार, समासों में द्वन्द्व समास, अक्षय काल, विराट् स्वरूप और सर्वधारणकर्त्ता भी हैं। मृत्यु एवं उत्पन्न होने के उद्भव और स्त्री जाति में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा और क्षमा भी वे ही हैं। गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्मास, वैदिक छन्दों में गायत्री, छल करने वालों में जुआ, तेजस्वियों में तेज, निश्चय करने वालों में निश्चय, सात्त्विक मनुष्यों में सात्त्विक भाव, यादवों में श्राीृकष्ण, पाण्डवों में अर्जुन, मुनियों में वेदव्यास, कवियों में उशना कवि (शुक्राचार्य), बाहर महीनों में मार्गशीर्ष, छः ऋतुओं में वसन्त, दमनकर्ताओं में दण्ड शक्ति, विजय की इच्छा रखने वालों में नीति, गोपनीय भावों में मौन, ज्ञनवानों में ज्ञान आदि सभी वे ही हैं।


यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।। गी.10.39।।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तारो मया।।गी.10.40।।


अर्थात् हे अर्जुन! सभी प्राणियों की उत्पत्ति का मूल कारण अथवा बीजरूप मैं ही हूँ। चराचर जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मुझसे रहित है।
हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। अतः मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तुमसे अति संक्षेप में बताया है।


तात्पर्य यह है कि संसार में स्थूल तथा सूक्ष्म वस्तु एवं भाव दोनों का समावेश है। स्थूल एवं सूक्ष्म, वस्तु तथा भाव इन दोनों रूपों में भगवान् विराजमान हैं। भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे ही सभी प्राणियों के हृदय में आत्मा बनकर स्थित हैं और सभी प्राणियों का आदि, मध्य और अंत भी हैं।


‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व एव प्रवर्तते। (गीता, 10.8)


इसके पश्चात् भगवान् कहते हैं कि जो भी विभूतियुक्त, कान्तियुक्त एवं शक्तियुक्त है, उस वस्तु को तुम मेरे तेज के अंश की अभिव्यक्ति जानो। मानव को बहुत अधिक जानने की आवश्यकता भी नहीं है। उन्हें तो मात्र इतना जान लेना चाहिये कि ईश्वर ही सम्पूर्ण जगत् को अपनी योगशक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हैं। 


ऐश्वर्य को देखकर ऐश्वर्यवान् का स्मरण सहज हो जाता है। ऐश्वर्यवान् और कोई नहीं, बल्कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं। इस अध्याय में भगवान् ने विशिष्ट व्यक्तियों एवं वस्तुओं का विवरण प्रस्तुत किया है, जिनके दर्शन एवं स्मरण से ईश्वर की स्मृति सहज-सुलभ हो जाती है। इन विभूतियों का स्मरण भगवान् से योग कराने में सहायक है, अतः यह अति-महत्त्वपूर्ण ‘विभूतियोग’ है।


विश्वजीत ‘सपन’