Wednesday, October 31, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 57



 महाभारत की कथा की 82वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

मुनि जैगीषव्य की लीला
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पूर्वकाल की बात है। देवल नामक एक मुनि हुए। वे गृहस्थ-धर्म का आश्रय लेकर जीवन-यापन करते थे। वे बड़े ही धर्मात्मा एवं तपस्वी थे। मन, वाणी तथा क्रिया से वे समस्त जीवों का समान रूप से सम्मान करते थे। उन्हें क्रोध स्पर्श भी न कर पाता था। प्रतिकूल वचन पर भी वे सामान्य भाव ही प्रदर्शित करते थे। वे सदा ही देवता, ब्राह्मण, अतिथि आदि की सेवा में तत्पर रहा करते थे। 


एक दिन की बात है। महान् धर्मात्मा मुनि जैगीषव्य उनके आश्रम में एक भिक्षुक बनकर आये। वे सिद्धिप्राप्त योगी थे तथा उनकी स्थिति योग में ही बनी रहती थी। मुनि देवल ने उनका आथित्य स्वीकार किया एवं उनकी बड़ी सेवा की। जैगीषव्य मुनि देवल के आतिथ्य से प्रसन्न होकर वहीं रहने लगे, किन्तु वे हमेशा ही योग में लीन रहते थे। वे बोलते भी न थे। उधर मुनि देवल कभी भी योग साधना उनकी उपस्थिति में नहीं करते थे। इस प्रकार अधिक समय बीत गया। 


कुछ समय के बाद जैगीषव्य मुनि बड़ा कम दिखाई देने लगे। मात्र भोजन के समय ही वे देवल मुनि को दिखाई देते थे। मुनि देवल को बात खटकती थी, क्योंकि अब तक उन्होंने देवल से एक शब्द भी कहा न था। यह बात भी मुनि देवल को परेशान करती थी। तब देवल मुनि ने उनके रहस्य को जानने का मन बनाया। वे जानना चाहते थे कि जैगीषव्य का उनके यहाँ आने एवं ऐसा विचित्र व्यवहार करने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था? 


इसी क्रम में एक दिन वे सत्य जानने के लिये आकाशमार्ग से समुद्र तट की ओर चल पड़े। जैसे ही वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि मुनि जैगीषव्य वहाँ पूर्व से ही उपस्थित थे। मुनि देवल को बड़ा आश्चर्य हुआ कि अभी तो वे आश्रम में थे, किन्तु उनके पहुँचने के पूर्व ही समुद्र तट पर पहुँच गये थे तथा उन्होंने उनसे पूर्व स्नान भी कर लिया था। यह कैसे संभव था? ऐसा विचार करते हुए वे भी स्नानकर आश्रम आये, तो देखा कि मुनि जैगीषव्य पूर्व से ही आश्रम में उपस्थित थे। अब उन्हें यह रहस्य जानने की बड़ी तीव्र इच्छा हुई। उन्हें प्रतीत होने लगा कि जैगीषव्य में कोई न कोई अद्भुत शक्ति अवश्य है।  


ऐसा सोचकर वे आकाश में उनके रहस्य को जानने के लिये उड़ चले। अंतरिक्ष में पहुँचकर उन्होंने सिद्धों को देखा और सबसे बड़े आश्चर्य की बात थी कि वे सिद्ध मुनि जैगीषव्य की पूजा कर रहे थे। उसके उपरान्त तो और भी अद्भुत संयोग हुआ। जैगीषव्य को उन्होंने स्वर्गलोग में जाते देखा, वहाँ से चन्द्रलोक और पुनः चन्द्रलोक से अग्निहोत्रियों के उत्तमलोक में जाते देखा। अब मुनि देवल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वे जहाँ भी जाते उन्हें मुनि जैगीषव्य के दर्शन हो जा रहे थे। कुछ समय तक ऐसा ही चलता रहा, फिर सहसा वे कहीं अन्तर्धान हो गये। तब मुनि देवल को लगा कि वे अवश्य ही कोई असाधारण प्राणी थे। इस रहस्य को जानने के लिये उन्होंने सिद्धों से पूछा - ‘‘बड़े आश्चर्य की बात है कि मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ, मुनि जैगीषव्य वहाँ-वहाँ दिखाई देते हैं, किन्तु अभी अचानक ही वे कहीं चले गये। इसका क्या रहस्य है। इसे मुझे विस्तार से बतायें।’’


सिद्धों ने कहा - ‘‘मुनिवर! आप व्यथित न हों। जैगीषव्य एक सिद्ध पुरुष हैं। उनकी लीला वे ही जानें, किन्तु अब वे ब्रह्मलोक चले गये हैं। वहाँ आपकी गति नहीं है, अतः आप आश्रम लौट जायें। वे अवश्य आपकी समस्या का समाधान करेंगे।’’


सिद्धों की बात सुनकर मुनि देवल अपने आश्रम की ओर लौट गये, किन्तु उनका मन अशान्त था। वे मन ही मन विचार कर रहे थे कि यदि इस बार उनका सामना मुनि जैगीषव्य से हुआ, तो वे उनसे मोक्षधर्म का मार्ग अवश्य पूछेंगे। ऐसा विचार करते हुए जब वे आश्रम में पहुँचे, तो उनकी दृष्टि आश्रम में पूर्व से ही बैठे मुनि जैगीषव्य पर पड़ी। तत्काल ही उन्होंने जैगीषव्य को प्रणाम किया और बोले - ‘‘भगवन्! मैं आपको पहचान न सका। इस भूल के लिये मुझे क्षमा करें।’’


मुनि जैगीषव्य के मुख पर मात्र मुस्कान थी। देवल मुनि फिर बोले - ‘‘मुनिवर! मैं संन्यास का आश्रय लेना चाहता हूँ। कृपाकर मुझे मोक्षधर्म का मार्ग बतायें।’’


अब मुनि जैगीषव्य को विश्वास हो गया कि मुनि देवल शिक्षा ग्रहण करने हेतु तैयार थे। तब उन्होंने मुनि देवल को ज्ञान का उपदेश दिया। फिर उन्हें योग की विधि बताई और उसके उपरान्त उनको कर्तव्य एवं अकर्तव्य का भी उपदेश दिया।


इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद मुनि देवल ने गृहस्थ-धर्म का परित्याग कर दिया। उन्होंने मोक्ष-धर्म में अपनी प्रीति लगाई। इस प्रकार उन्होंने परा सिद्धि एवं परम योग को प्राप्त किया।


विश्वजीत 'सपन'

Thursday, October 25, 2018

महाभारत की लोककथा भाग- 56



महाभारत की कथा की 81वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 

जीने की चाह
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बहुत पुरानी बात है। किसी गाँव में एक व्यक्ति रहता था। वह बड़ा ही निडर और साहसी था। सभी उसके साहस की प्रशंसा करते थे। इस बात का उसे अभिमान भी था। उसमें उत्साह की भी कोई कमी न थी। काम और नयी वस्तुओं की खोज में वह भटकता रहता था। इस कारण वह अनेक स्थलों का भ्रमण किया करता था। 


एक दिन की बात है। वह किसी बड़े वन में जा रहा था। चलते-चलते वह बड़े ही वीरान और दुर्गम क्षेत्र में पहुँच गया। वहाँ वन बड़ा ही घना था। हर तरफ जंगली जानवरों का संकट मँडरा रहा था। जब उस सुनसान जंगल में भाँति-भाँति की आवाज़ें आने लगीं, तो वह व्यक्ति अत्यधिक भयभीत हो गया। भय के कारण इधर-उधर भागने लगा। उसका साहस जवाब दे रहा था, किन्तु वह मरना नहीं चाहता था। जीने की उसकी चाह उसे भागने और जान बचाने को विवश कर रही थी। वह अपनी पूरी शक्ति लगाकर भाग रहा था तथा किसी सुरक्षित स्थान की खोज में था, किन्तु उसे ऐसा कोई स्थान नहीं मिल पा रहा था और न ही वह जंगल से बाहर ही निकल पा रहा था। भय का साया जब गहरा जाता है, तो भय उस व्यक्ति के पीछे लग जाता है। भागते-भागते उसने ऊपर की ओर देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। वह पूरा का पूरा वन जालों से घिरा हुआ था। निकलने का कोई मार्ग न था। फिर उसने देखा कि एक बड़ी ही भयानक स्त्री उसे अपनी भुजाओं में घेरने के लिये उसकी ओर आगे बढ़ रही थी। वह समझ गया कि यदि वह उस स्त्री की पकड़ में आ गया, तो उसके प्राण नहीं बच सकते थे। उधर वह भयानक स्त्री अट्टहास करती उसकी ओर ही चली आ रही थी। उसने अपनी दृष्टि चारों ओर दौड़ाई तो देखा कि एक बड़ा ही विशाल पाँच सिरवाला नाग भी उसकी ओर अपना जीभ लपलपाते हुए बढ़ा चला आ रहा था। अब उसे अपने बचने का कोई मार्ग नहीं दिख रहा था। वह और वेग से भागने लगा। अब उसे यह पता न था कि वह कहाँ और किस दिशा में भाग रहा था। उस जंगल में झाड़-झंखाड़ों के बीच एक गहरा कुआँ था। उस पर झाड़-झंखाड़ और खर-पतवार उगने से वह दिखाई नहीं दे रहा था। भागता हुआ वह व्यक्ति उसी कुएँ में गिर गया। वह तेजी से गिरने लगा। तब उसे लगा कि वह नहीं बच पायेगा, किन्तु सौभाग्य से लताओं में उसका पैर फँस गया। उसका पैर ऊपर को और सिर नीचे की ओर हो गया और वह बीच में ही लटक गया।


जान बची लाखों पाये वाली कहावत उसे याद आई। किन्तु समस्या यह थी कि उन लताओं से छूटने का कोई उपाय न सूझ रहा था। तभी उसने नीचे की ओर देखा। वहाँ एक बड़ा भारी साँप लपलपाते हुए उसे ही देख रहा था। उसने सोचा कि भला हुआ वह नीचे नहीं गिरा, अन्यथा उस साँप से बचना तो मुश्किल ही था। अब उसने सोचा कि किसी तरह ऊपर की ओर जाना ही उचित होगा। उसने बड़ी मुश्किल से ऊपर की ओर देखा। उसे वहाँ एक बहुत ही विशालकाय हाथी दिखाई पड़ा। उसका शरीर कहीं सफेद और कहीं काला था। उसके छः मुँह और बारह पैर थे। वह बड़ा ही अजीब दिख रहा था। वह धीरे-धीरे कुएँ की ओर ही बढ़ा चला जा रहा था। उस व्यक्ति के ऊपर की ओर जाने की आशा भी कम हो गयी। यदि वह ऊपर गया तो उस हाथी से बच पाना मुश्किल ही था। अब वह क्या करे और क्या न करे की उलझन में था। किन्तु उसके जीने की आशा अब भी बनी हुई थी। अतः उसने चारों ओर देखना प्रारंभ किया कि कुछ तो ऐसा होगा, जिससे उसे जीने में सहायता होगी। तब उसने देखा कि उस कुएँ के किनारे एक वृक्ष था। उसकी शाखाओं पर मधुमक्खियों ने कई छत्ते बना रखे थे। समय-समय पर उससे मधु की धाराएँ नीचे टपक रही थीं। उसने प्रयत्न कर शहद से अपनी भूख और प्यास मिटाने की व्यवस्था कर ली। अब वह शहद पीकर उसी प्रकार जीवन जीने लगा। उस वृक्ष को रात-दिन चूहे काट रहे थे, जिसे देख वह व्यक्ति निराश होता रहता था, किन्तु उसके जीवन की आशा ने उसे बचाये रखा।


इसी कारण से कहा जाता है कि कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ हों, अनेक प्रकार के भय हों, अनेक प्रकार के कष्ट झेलने पड़ रहे हों, यदि मनुष्य जीने की इच्छा रखता है, तो वह अवश्य जी लेता है। वह कैसी भी स्थिति में जीने का मार्ग अवश्य ढूँढ ही लेता है।

Sunday, October 21, 2018

महाभारत की लोककथा भाग-55




महाभारत की कथा की 80वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 
 
श्रुतावती की तपस्या
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प्राचीन काल की बात है। भरद्वाज की एक रूपमती कन्या थी। उसका नाम श्रुतावती था। उसने मन ही मन इन्द्र को अपना पति मान लिया था। फिर उसने इन्द्र को पति के रूप में पाने के लिये बड़ी उग्र तपस्या की। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अत्यन्त ही कठोर नियमादि का पालन करने लगी। अनेक वर्षों की उसकी इस भक्ति और तप को देखकर देवराज इन्द्र प्रसन्न हो गये। उन्होंने श्रुतावती को दर्शन दिया और बोले - ‘‘शुभे! मैं तुम्हारी तपस्या एवं भक्ति से प्रसन्न हूँ। बोलो तुम्हें क्या वर चाहिये?’’


श्रुतावती ने कहा - ‘‘देवेश! मुझे आपकी अर्द्धांगिनी बनने का सौभाग्य प्राप्त करना है। इस वर की पूर्ति हेतु आपसे प्रार्थना है।’’


इन्द्र ने कहा - ‘‘देवि! तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। इस शरीर का त्याग कर तुम मेरे साथ स्वर्ग में निवास करोगी। तुम जानती हो कि इस बदरपाचन नामक पवित्र तीर्थ में अरुन्धती सप्तर्षियों के साथ रहा करती थी। एक दिन सप्तर्षि उसे अकेला छोड़कर जीविका निर्वाहन हेतु फल-फूल लाने के लिये हिमालय पर चले गये। वहाँ उन्हें जब कुछ भी न मिला तो वे वहीं आश्रम बनाकर रहने लगे। उस समय इस स्थल पर बारह वर्षों से वर्षा नहीं हो रही थी। तब अरुन्धती तपस्या में संलग्न रहने लगी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर उससे मिलने एक ब्राह्मण के वेष में आये।’’


शंकर बोले - ‘‘हे देवि! मैं भिक्षा लेने आया हूँ। कुछ खाने को मिलेगा?’’


अरुन्धती ने कहा - ‘‘विप्रवर! अन्न तो समाप्त हो चुका है। मात्र कुछ बेर ही रह गये हैं, यदि आपकी इच्छा है, तो इन्हें खा सकते हैं।’’


शंकर ने कहा - ‘‘ठीक है देवि, जैसा तुम कहो। ऐसा करो कि इन फलों को पकाकर मुझे दो।’’


अरुन्धती ने तब प्रज्वलित अग्नि पर बेरों को पकाना प्रारंभ किया। उसी समय उसे पवित्र एवं दिव्य कथायें सुनाई देने लगीं। वह बिना कुछ खाये ही उन बेरों को पकाती रही और कथायें सुनती रही। सहसा बारह वर्षों की वह अनावृष्टि समाप्त हो गयी। इतना अधिक समय बीत गया, किन्तु उसे वह एक दिन के समान ही प्रतीत हुआ। तब तक सप्तर्षि भी फल-फूल लेकर लौट आये।


शंकर भगवान् ने प्रसन्न होकर कहा - ‘‘हे धर्म को जानने वाली देवि, अब तुम पूर्व की भाँति इन ऋषियों की सेवा करो। तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूँ।’’


यह कहकर शंकर जी ने स्वयं को प्रकट कर दिया। मुनियों सहित अरुन्धती ने उन्हें विधिवत प्रणाम किया तो वे मुनियों से बोले - ‘‘मुनिवर, आप लोगों ने हिमालय में रहकर जिस तप का उपार्जन किया है, अरुन्धती ने यहीं रहकर कर लिया, और तो और उसने बारह वर्षों तक बिना कुछ खाये, बेर पकाते हुए यह कठिन तप किया है, उसका तप आपसे भी श्रेष्ठ है।’’


उसके पश्चात् भगवान् शंकर ने अरुन्धती से कहा - ‘‘हे देवि, तुम्हारा कल्याण हो। यदि तुम्हारी कोई मनोकामना हो, तो बोलो। मैं तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करूँगा।’’


अरुन्धती ने कहा - ‘‘हे देवों के देव महादेव, यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो यह स्थान बदरपाचन तीर्थ हो जाये। जो भी मनुष्य इस स्थल पर पवित्रतापूर्वक तीन रात्रि तक निवास तथा उपवास करे, उसे बारह वर्षों के तीर्थ सेवन का फल प्राप्त हो।’’


शंकर भगवान् ने कहा - ‘‘ऐसा ही होगा देवि।’’


फिर सप्तर्षियों ने शंकर की स्तुति की और वे अपने धाम चले गये। अरुन्धती इतने वर्षों तक भूखी-प्यासी रही, किन्तु न तो वह थकी और न ही मुख मलिन हुआ। ऋषिगण भी यह देखकर आश्चर्य कर रहे थे।
‘‘तो देवि, यहीं पर अरुन्धती को परम सिद्धि प्राप्ति हुई थी, तुमने भी अरुन्धती की भाँति ही तप का पालन किया है, अतः तुम्हारे सभी मनोरथ अवश्य पूर्ण होंगे।’’ 


ऐसा कहकर इन्द्र अपने धाम को चले गये। उनके जाते ही वहाँ फूलों की वर्षा होने लगी। देवताओं की दुन्दुभी बज उठी। सुगन्धित वायु चलने लगी। उसी समय श्रुतावती ने देह त्याग कर दिया और स्वर्ग में इन्द्र की पत्नी के रूप में रहने लगी।


कहते हैं कि जो भी बदरपाचन तीर्थ में स्नान करके तथा एकाग्रचित्त होकर एक रात्रि निवास करता है, उसे देह त्याग करने के पश्चात् दुर्लभ लोकों की प्राप्ति होती है।



विश्वजीत 'सपन'

Wednesday, October 17, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 54


महाभारत की कथा की 79वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

अरुणा नदी का माहात्म्य
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प्राचीन काल की बात है। उस समय दानवों का राजा नमुचि था। उसने बड़ा उत्पात मचाया, तो इन्द्र ने उसे मारने का प्रण लिया। इस बात से नमुचि भयभीत हो गया और भय के कारण सूर्य की किरणों में जाकर छुप गया। अब इन्द्र के लिये उसे मारना असंभव हो गया। तब बड़ा विचारकर इन्द्र ने नमुचि से मित्रता कर ली।


इन्द्र ने कहा - ‘‘अब तो तुम मेरे मित्र हो गये हो। अब बाहर निकल आओ।’’


नमुचि को इन्द्र पर विश्वास न था, उसने कहा - ‘‘नहीं, जब तक आप प्रतिज्ञा नहीं करते कि आप मुझे मारेंगे नहीं, तब तक मैं बाहर नहीं आता।


इन्द्र ने कहा - ‘‘जब मैंने वचन दे दिया, फिर क्या डरना?’’


नमुचि ने कहा - ‘‘तुम्हारी बात सही, किन्तु मुझे तुम्हारी प्रतिज्ञा चाहिये, अन्यथा मैं बाहर नहीं आता।’’


इस प्रकार नाना प्रकार से समझाने के उपरान्त भी नमुचि न माना, तब इन्द्र ने नमुचि से कहा - ‘‘असुरश्रेष्ठ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं तुम्हें न गीले अस्त्र से मारूँगा, न सूखे अस्त्र से, न मैं दिन में मारूँगा और न ही रात में। यह मैं सत्य की सौगंध खाकर कहता हूँ, अतः अब तो बाहर आ जाओ।’’


इस प्रकार अपनी बातों से इन्द्र ने नमुचि को सूर्य की किरणों से बाहर निकलवा लिया। नमुचि प्रसन्न था कि अब उसे इन्द्र का कोई भय न था, किन्तु उसे पता नहीं था कि इन्द्र ने ऐसा जान-बूझकर कहा था। वे समय की प्रतीक्षा में थे। फिर एक दिन अवसर पाकर जब धरती पर कुहासा (न रात न दिन) छाया हुआ था, पानी के फेन (न गीला न सूखा) से उन्होंने नमुचि का सिर काटकर उसका वध कर दिया।


नमुचि के लिये बड़ा कष्टकारक विषय था। मित्र होते हुए भी इन्द्र ने छल से उसका सिर काट दिया था। तब उसका कटा हुआ सिर इन्द्र के पीछे लग गया। वह कहने लगा - ‘‘तुमने मुझसे मित्रता की और उसके उपरान्त छल से मेरा सिर काट लिया। तुम पापी हो। तुमने अपने मित्र के वध करने का अपराध किया है। जब तक मुझे न्याय नहीं मिल जाता मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ूँगा। तुम अपराधी हो।’’


इन्द्र जहाँ-जहाँ जाते, नमुचि का सिर उनके पीछे ही रहता और वही बातें दुहराता रहता था। इस प्रकार अनेक बार नमुचि के सिर के ऐसा कहने से इन्द्र भी घबरा उठे। वे भागे-भागे ब्रह्मा जी के पास गये और बोले - ‘‘भगवन्! यह नमुचि का सिर मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा। प्रतीत होता है कि मित्र का वध करने के कारण ब्रह्महत्या का दोष लग गया है। अब आप ही कुछ उपाय सुझायें। मैं अत्यधिक कष्ट का अनुभव कर रहा हूँ।’’


तब इन्द्र की समस्या पर विचार कर ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘इन्द्र! तुम घबराओ नहीं। अरुणा नदी के तट पर जाओ। पूर्वकाल में सरस्वती नदी ने गुप्त रूप से अरुणा नदी को अपने जल से पूर्ण किया था, अतः वह सरस्वती एवं अरुणा नदी के संगम का स्थल पवित्र बन गया है।’’
‘‘यह कैसे हुआ भगवन्।’’ इन्द्र ने पूछा।


ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘एक बार की बात है। राक्षसों ने अपने उद्धार के लिये महर्षियों से विनती की। महर्षियों ने राक्षसों के कल्याण के संदर्भ में विचार किया और तब उनकी मुक्ति के लिये उन्होंने महानदी सरस्वती का स्तवन किया। इस अनुरोध को स्वीकार कर समस्त सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती अपनी स्वरूपभूता अरुणा को लेकर आई। राक्षसों ने उसमें स्नान कर ब्रह्महत्या के दोषों से मुक्ति पायी थी। तब से यह संगम पवित्र बन गया है और ब्रह्महत्या के दोष का निवारण करने वाला भी है। उस संगम में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। तुम उस स्थल पर जाओ। वहाँ यज्ञ और दान करो। उसके बाद उस पवित्र संगम में स्नान करो। तुम्हारा संकट दूर हो जायेगा।’’


ब्रह्मा जी के ऐसा कहने पर इन्द्र तत्काल ही सरस्वती नदी के उस पवित्र संगम-स्थल पर गये। उन्होंने वहाँ जाकर एक बड़ा-सा यज्ञ किया और अनेक प्रकार की वस्तुओं का दान किया। उसके पश्चात् उन्होंने उस पवित्र संगम में स्नान किया। स्नान करते ही उनका ब्रह्महत्या का पाप धुल गया। वे भयरहित हो गये, किन्तु नमुचि का सिर अभी भी उनके पीछे था। यह कैसे संभव था? इन्द्र विचार करने लगे। तभी उन्हें ध्यान आया कि नमुचि को मुक्ति नहीं मिली है।


ऐसा विचारका इन्द्र ने नमुचि के सिर से कहा - ‘‘मित्र, मैं ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो चुका हूँ। अब तुम भी इस पवित्र संगम में स्नान करके मुक्त हो जाओ।’’


नमुचि ने वैसा ही किया। उसने भी पवित्र संगम में गोता लगाया। तत्क्षण ही उसके सारे पाप धुल गये और वह अक्षय लोक का अधिकारी बना। 


विश्वजीत 'सपन'

Sunday, October 7, 2018

महाभारत की लोककथा - भाग - 53





महाभारत की कथा की 78वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 

तपोबल का प्रभाव

प्राचीन काल की बात है। तब पृथ्वी पर हैहयवंशी क्षत्रियों का राज्य था। परपुरञ्जय नामक उनका एक राजकुमार था। वह बड़ा ही सुन्दर एवं वंश की मर्यादाओं में वृद्धि करने वाला एक पराक्रमी योद्धा था। एक दिन की बात है। राजकुमार वन में शिकार खेलने के लिये गया। बड़ा भटकने के बाद भी उसे कोई पशु दिखाई न दिया। वह चलते-चलते घने वन में जा पहुँचा। वन इतना घना था कि कुछ भी अच्छी तरह से दिखाई न देता था। सहसा उसे थोड़ी दूर पर एक काला मृग बैठा दिखाई दिया। उसने बाण से निशाना लेकर उस पर बाण छोड़ दिया। वह बाण सीधे उस मृग को लगा और वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। राजकुमार बड़ा प्रसन्न हुआ। जब वह मृग के पास पहुँचा, तो चौंक गया। असल में वह कोई मृग न था, बल्कि कोई मुनि थे, जो काला मृगचर्म ओढ़े वहाँ बैठे हुए थे। राजकुमार को यह देखकर बड़ा संताप हुआ कि चाहे भूल से ही सही उसने एक ब्राह्मण की हत्या कर दी थी। वह दुःखी मन से अपने राज्य लौट आया और उसने हैहयवंशी क्षत्रियों से जाकर कहा - ‘‘आज मुझसे एक बड़ा भारी पाप हो गया। भूल से एक मुनि की हत्या हो गयी। एक जघन्य अपराध हो गया। मुझे अत्यधिक ग्लानि हो रही है, किन्तु प्रायश्चित्त का कोई उपाय तो करना ही होगा।’’


इस प्रकार उसने सारी घटना उन लोगों को सुना दी। यह सुनकर सभी क्षत्रिय शोक में डूब गये। उस समय ब्रह्महत्या सबसे बड़ा पाप माना जाता था। इस पाप कर्म का प्रायश्चित्त तो करना ही होगा। ऐसा सोचकर वे सभी कश्यपनन्दन अरिष्टनेमि के आश्रम पर पहुँचे। 


मुनि ने पूछा - ‘‘आप सभी यहाँ किस प्रयोजन से आये हैं? बतायें मैं आप लोगों की क्या सेवा कर सकता हूँ? प्रतीत होता है कि आप सभी किसी संकट में हैं।’’


क्षत्रिय बोले - ‘‘सत्य कहा आपने मुनिवर, हमसे एक बड़ा पाप हो गया है। किसी प्रकार आप ही इसका निदान ढूँढ सकते हैं। कृपया हमारी सहायता करें।’’


मुनि बोले - ‘‘अवश्य, किन्तु कौन-से पापकर्म की बात आप कर रहे हैं। कृपाकर स्पष्ट बतायें।’’


क्षत्रिय बोले - ‘‘मुनिवर हमसे एक ब्राह्मण की हत्या हो गयी है। ब्रह्महत्या का पाप है। इससे बचने के लिये क्या प्रायश्चित्त होगा, उस हेतु आपकी शरण में आये हैं।’’


मुनि बोले - ‘‘यह तो सच में चिंता का विषय है। ब्रह्महत्या तो भारी पाप है, किन्तु यह ब्रह्महत्या कैसे हुई? वह मरा हुआ ब्राह्मण कहाँ है?’’


तब राजकुमार ने पूरी घटना उन्हें विस्तार से बता दी एवं मुनि को लेकर उस स्थान पर गया, जहाँ उस मुनि का मृत शरीर पड़ा हुआ था, किन्तु वहाँ कोई मृत शरीर न था। तब सभी आश्चर्य में पड़ गये कि वह मृत शरीर गया कहाँ? क्या कोई पशु उठाकर ले गया? उन्हें इस प्रकार अचम्भे में पड़े देखकर मुनि अरिष्टनेमि ने कहा - ‘‘
परपुरञ्जय, यह देखो, यह वही ब्राह्मण है, जिसे तुमने मार डाला था। यह जीवित है।’’

मुनि ने उस ब्राह्मण की ओर संकेत करते हुए पूछा। यह वही ब्राह्मण था, जिसे
परपुरञ्जय का बाण लगा था।


परपुरञ्जय आश्चर्य से उस ब्राह्मण देखते हुए बोला - ‘‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है मुनिवर। मैंने बाण से इन्हें मार दिया था। ये धरती पर गिरकर मृत हो चुके थे। मैंने स्वयं देखा था, किन्तु ये जीवित कैसे हो गये?’’

मुनि ने कहा - ‘‘यह मेरा पुत्र है। यह तपोबल से युक्त है।’’


क्षत्रियों ने कहा - ‘‘क्या यह तपस्या का बल है, मुनिवर? हम सभी इस रहस्य को जानने को इच्छुक हैं। मृत व्यक्ति क्या तप के बल से जीवित हो सकता है?’’


मुनि ने कहा - ‘‘आप सभी सुनें। मृत्यु हम पर प्रभाव नहीं डालती। हम सदा सत्य बोलते हैं एवं सदा धर्म का पालन करते हैं, अतः मृत्यु का भय हमें नहीं होता। हम शुभकर्मों की चर्चा करते हैं तथा दोषों का बखान नहीं करते। हम शम, दम, क्षमा, तीर्थसेवन तथा दान में तत्पर रहते हैं। पवित्र स्थल पर पवित्रता से रहते हैं। इस कारण हमें मृत्यु का भय नहीं होता। संक्षेप में इसे ही हमारे तप का बल कह सकते हैं। आप लोग अब अपने घर जायें। आपको ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगेगा।’’


यह सब सुनकर सभी क्षत्रिय बड़े प्रसन्न हो गये। उन्हें एक बड़े पाप से छुटकारा मिल गया था। उन्होंने मुनिवर अरिष्टनेमि का बड़ा सम्मान किया एवं उनकी पूजा की। मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वे सभी प्रसन्न होकर अपने-अपने घर चले गये।


तप में अत्यधिक बल होता है। एक तपस्वी ही इसे जान सकता है। तप करने वाले को जीवन में किसी भी प्रकार का भय नहीं होता।


विश्वजीत 'सपन'

Tuesday, October 2, 2018

महाभारत की लोककथा - भाग 52


महाभारत की कथा में 77वीं कड़ी में प्रस्तुत एक और महाभारत की लोककथा।

ऋष्यशृंग का जीवन-चरित

प्राचीन काल की बात है। ऋष्यशृंग नामक एक मुनि हुए। उनका जन्म एक मृगी के उदर से हुआ था। उनके सिर पर एक सींग था, अतः वे ऋष्यशृंग के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने अपने पिता ब्रह्मर्षि विभाण्डक के अतिरिक्त किसी को न देखा था, अतः उनका मन सदैव ब्रह्मचर्य में स्थित रहता था। वे अपने पिता के आश्रम में वन में रहते थे, किन्तु बड़े ही महान् तप वाले थे।


उसी समय अंगदेश में लोमपाद नामक एक राजा थे। उन्होंने किसी ब्राह्मण को कुछ देने का प्रण लिया, किन्तु उसे निराश किया, तो उनके राज्य में वर्षा नहीं होती थी। प्रजा हाहाकार कर रही थी। राजा ने तपस्वी ब्राह्मणों को बुलाकर पूछा - ‘‘हमारे राज्य में वर्षा नहीं होती। आपलोग इसका कुछ उपाय बतायें।’’


ब्राह्मणों ने कहा - ‘‘राजन्, ब्राह्मण आप पर कुपित हैं, अतः प्रायश्चित्त कीजिये। एक तपस्वी मुनि कुमार ऋष्यशृंग हैं, उन्हें किसी प्रकार राज्य में लाइये। उनके चरण पड़ते ही वर्षा होने लगेगी, किन्तु ध्यान रहे कि उनको स्त्री जाति का कुछ भी पता नहीं है।’’


राजा लोमपाद ने पहले प्रायश्चित्त किया तथा उसके पश्चात् ऋष्यशृंग को राज्य में लाने के उपायों के लिय अपने मंत्रियों आदि से परामर्श किया। विचार कर उन्होंने राज्य की प्रधान गणिकाओं को बुलाकर कहा - ‘‘आपलोग किसी भी प्रकार उपायकर ऋष्यशृंग को इस राज्य में लाइये। आपको जो चाहिये वो मिलेगा।’’


एक वृद्धा गणिका ने कहा - ‘‘राजन्, मैं यह प्रयास अवश्य करूँगी, किन्तु जिन-जिन सामग्रियों की मुझे आवश्यकता होगी, उन्हें प्रदान करना होगा।’’


राजा ने अपनी सहमति प्रदान कर दी। तब उस वृद्धा ने अपनी बुद्धि से एक सुन्दर नौका का निर्माण किया। उसमें एक आश्रम बनाया, जो वास्तव के आश्रम के समान ही वनों एवं उपवनों से सजा हुआ था। उसे ले जाकर उसने विभाण्डक मुनि के आश्रम के निकट जाकर बँधवा दिया। उसके उपरान्त उसने गुप्तचरों से पता लगवाया कि मुनि कब आश्रम में नहीं रहते हैं। एक दिन जब मुनि आश्रम में नहीं थे, तब उसने अपनी सुन्दर पुत्री को मुनि कुमार के पास भेजा।


वह गणिका-पुत्री उनके पास जाकर, उन्हें प्रणामकर बोली - ‘‘मुनिवर, यहाँ सभी आनन्द में तो हैं। आपको कोई कष्ट तो नहीं है?’’


ऋष्यशृंग ने कहा - ‘‘आपकी कान्ति अनुपम है। आप पहले इस मृगचर्म से ढके हुए कुश के आसन पर विराजिये। आपको जल देता हूँ। यहाँ सब ठीक है। आपका आश्रम कहाँ है?’’


गणिका बोली - ‘‘मेरा आश्रम इस पर्वत के पीछे तीन योजन दूर है। मैं किसी को प्रणाम करने नहीं देता तथा न ही किसी का स्पर्श किया हुआ कुछ लेता हूँ। मैं प्रणम्य नहीं, बल्कि आप मेरे वंद्य हैं।’’


ऋष्यशृंग ने तब कहा - ‘‘ऐसा है, तो आप अपनी रुचि के अुनसार ही कुछ ग्रहण करें।’’


उस गणिका ने उनका दिया कुछ भी स्वीकार न किया, बल्कि अपने पास से लायी स्वादिष्ट, रसीले पदार्थ उनको दिये। बड़े सुन्दर-सुन्दर, चमकीले वस्त्र, मालायें एवं शरबत आदि दिये। ऋष्यशृंग को वे बड़े पसंद आये। तब उस गणिका ने नाना प्रकार से उन्हें लुभाया और उनके मन में विकार उत्पन्न कर दिया। जब वह समझ गयी कि मुनि कुमार अब उन्हें चाहने लगे हैं, तो वह अग्निहोत्र का बहाना कर वहाँ से चली गयी। कुछ समय के पश्चात् मुनि विभाण्डक आये, तो उन्हें मुनि कुमार को अपने चित्त के विपरीत पाया। उन्होंने पूछा - ‘‘क्या बात है, पुत्र। आज अग्निहोत्र का कार्य भी सम्पादित नहीं हुआ। तुम्हारा मन अचेत-सा है। कुछ परेशान-से हो। क्या बात है?’’


ऋष्यशृंग ने कहा - ‘‘पिताश्री, आज आश्रम में एक जटाधारी ब्रह्मचारी आया था। वह बड़ा ही तेजस्वी था। उसके गले में अनेक प्रकार के मनोरम आभूषण थे। गले की नीचे दो मांसपिण्ड थे। वह रोमहीन एवं मनोहर था। उसका स्वरूप विचित्र, किन्तु मनभावन था। उसकी वाणी बड़ी सुरीली और मीठी थी। उसने मुझे सुन्दर-सुन्दर व्यंजन खाने को दिये। वह चला गया, तो मन विचलित हुआ। मैं चाहता हूँ कि शीघ्र ही उसके पास जाऊँ और उसे यहाँ लाकर अपने पास रखूँ।’’


विभाण्डक समझ गये कि या तो वह राक्षस था अथवा कोई स्त्री। उन्होंने अपने पुत्र को समझाते हुए कहा - ‘‘पुत्र, ये राक्षस होते हैं, जो इस प्रकार के रूप धारण करते हैं। उनके पेय मनुष्यों के लिये नहीं होते। इनसे मत मिलना।’’


इतना कहने के उपरान्त भी मुनि निश्चिंत न हो सके और उनकी खोज में गये। कई दिनों तक ढूँढने के बाद भी उनका पता न चला, तो आश्रम लौट आये। फिर एक दिन उन्हें फल-फूल लेने के लिये आश्रम से बाहर जाना पड़ा। उसी समय का लाभ उठाकर वह गणिका पुनः मुनि कुमार के पास आयी। ऋष्यशृंग उसे देखकर प्रसन्न हो गये और बोले - ‘‘देखो, जब तक पिताजी आते हैं, उससे पहले ही हम तुम्हारे आश्रम चलेंगे।’’


गणिका यही चाहती थी। वह उन्हें लेकर अपनी नाव में गयी। फिर नाना प्रकार से उनका मनोरंजन करते हुए उन्हें लोमपाद के नगर लेकर चली गयी। अंगराज ने उन्हें प्रणाम किया और अपने अन्तःपुर में ले गये। इतने में ही वर्षा प्रारम्भ हो गयी। सारे तलाब जलमग्न हो गये। राजा अत्यधिक प्रसन्न हो गये और उन्होंने अपनी पुत्री शान्ता से मुनि कुमार का विवाह करवा दिया।


उधर मुनि विभाण्डक अपने आश्रम पहुँचे, तो उन्हें अपना पुत्र दिखाई न दिया। वे क्रोधित हो गये। अंगराज का षड्यन्त्र जानकर उन्हें भस्म करने के विचार से चम्पानगरी की ओर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते जब वे थक गये और उन्हें भूख भी सताने लगी, तो वहीं उन्होंने कुछ ग्वालों को देखा। वे उनके पास गये, तो उन ग्वालों ने उनकी बड़ी सेवा की। उन्हें राजा के समान मान-सम्मान दिया। मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा - ‘‘इतनी सेवा क्यों? तुम तो मुझे जानते भी नहीं। तुमलोग किनके सेवक हो?’’


ग्वालों ने उन्हें प्रणामकर कहा - ‘‘मुनिवर, यह सब आपके पुत्र की ही सम्पत्ति है। हम उनके ही सेवक हैं।’’


इस प्रकार चम्पानगरी के मार्ग में वे अनेक स्थलों पर रुके और प्रत्येक स्थल पर उनका स्वागत-सत्कार हुआ। अपने पुत्र के सन्दर्भ में उन्हें अनेक मधुर वाक्य सुनने को मिले, तो उनका कोप शान्त हो गया। 


अनेक दिनों की यात्रा के बाद वे चम्पानगरी पहुँचे, तो राजा लोमपद ने उनका विधिवत् पूजन किया। उन्होंने देखा कि देवराज इन्द्र की भाँति उनके पुत्र की सेवा है और उसका रहन-सहन है। साथ ही उन्होंने जब अपनी सुन्दर पुत्रवधू को देखा, तो उनका रहा-सहा क्रोध भी जाता रहा। मुनि विभाण्डक ने समझ लिया कि यह अवश्य ही विधि का विधान था। वे चलते समय अपने पुत्र से बोले - ‘‘पुत्र, तुम सुख से रहो, किन्तु जब तुम्हारे पुत्र उत्पन्न हो जायें, तब राजा का सब प्रकार से मान रखकर वन में चले आना।’’

ऋष्यशृंग ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। शान्ता भी सब प्रकार से अपने पति के अनुकूल आचरण करने वाली थी। वह भी वन में रहकर अपने पति की सेवा करने लगी।


- विश्वजीत 'सपन'