Saturday, April 27, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 77)


महाभारत की कथा की 102 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

जीव एवं जगत् के मूलतत्त्व

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प्राचीन काल की बात है। परम तेजस्वी महर्षि भृगु कैलाश शिखर पर बैठा करते थे। भरद्वाज मुनि को जीव एवं जगत् के बारे में जानने की इच्छा हुई। एक बार वे महर्षि भृगु के पास गये तथा उनसे पूछा - ‘‘मुनिवर, इस स्थावर-जंगम जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई है और प्रलय आने पर यह कहाँ चला जाता है?’’


भृगु मुनि ने कहा - ‘‘मुने, सुनने में आता है कि प्रारम्भ में एक मानस देव था। वह आदि-अन्त से रहित, अभेद्य एवं अजर-अमर था। वह ‘अव्यक्त’ नाम से प्रसिद्ध था। सब जीवों की उत्पत्ति उसी से होती है तथा मरने के बाद वे उसी में लीन हो जाते हैं।’’


भरद्वाज ने जिज्ञासा की - ‘‘पर्वत, पृथ्वी, समुद्र, आकाश, वायु, अग्नि मेघ सहित इस लोक की किसने रचना की?’’


भृगु ने समझाते हुए कहा - ‘‘यह भी सुना जाता है कि उस स्वयम्भू मानस देव ने सर्वप्रथम एक तेजोमय दिव्य कमल की रचना की। उसी से वेदस्वरूप ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। वह समस्त भूतों का आत्मा तथा उनकी रचना करने वाला है। पंच महाभूत भी उस ब्रह्मा की ही सृष्टि है। पर्वत उसकी अस्थियाँ हैं, पृथ्वी उसका मेद एवं मांस है, समुद्र रुधिर है, आकाश उदर है, वायु श्वास है, अग्नि तेज है, नदियाँ नाड़ियाँ हैं, चन्द्रमा तथा सूर्य उसके नेत्र हैं। इस अचिन्त्य पुरुष को जानना सिद्ध पुरुषों के लिये भी कठिन है। यही भगवान् विष्णु है एवं अनन्त नाम से प्रसिद्ध है। यह समस्त भूतों का आत्मा तथा अन्तर्यामी है। इसे मात्र शुद्ध चित्त वाले ही जान सकते हैं।’’


भरद्वाज ने पूछा - ‘‘भगवन्, इस आकाश, दिशा, पृथ्वी एवं वायु का परिमाण कितना है? मेरा संदेह दूर कीजिये।’’


भृगु ने कहा - ‘‘यह आकाश तो अनन्त है। यह आकाश ही नहीं वरन् अग्नि, वायु, जल आदि का भी परिमाण जानना कठिन है। ऋषियों ने विविध शास्त्रों में त्रिलोकी एवं समुद्र आदि के बारे में कुछ कहा है, किन्तु जो दृष्टि से परे है तथा जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं है, उस परमात्मा का परिमाण कोई कैसे बता सकता है? अतः इन्हें अपरिमित ही जानना चाहिये।’’


भरद्वाज ने जिज्ञासा की - ‘‘मुनिश्रेष्ठ, लोक में पाँच धातु ही महाभूत कहलाये, जिन्हें ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में रचा था। इन्हें ही भूत कहना कहाँ तक उचित है, जबकि ब्रह्मा जी ने इसके साथ ही सहस्रों भूतों की सृष्टि की थी?’’


भृगु ने कहा - ‘‘ये पाँचों असीम हैं, अतः इन्हें महाभूत की संज्ञा दी जाती है। मानव शरीर भी इन पाँचों का ही संघात है। जो गति है, वह पवन का अंश है, जो खोखलापन है वह आकाश का अंश है, ऊष्मा अग्नि का अंश है, रक्तादि तरल जल के अंश हैं तथा हड्डी, मांस आदि पृथ्वी के अंश हैं। इस प्रकार समस्त स्थावर-जंगम संसार इन पाँचों महाभूतों से ही बना है।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘किन्तु मुनिवर, स्थावर शरीरों में ये पाँचों तत्त्व दृष्टिगत नहीं होते। वृक्ष न सुनते हैं न देखते हैं, न उन्हें रस का आनन्द आता है तथा न ही वे गन्ध ले सकते हैं। फिर इन्हें पंचभौतिक कैसे कहा जा सकता है?’’


भृगु ने कहा - ‘‘ऐसा नहीं है मुने, वृक्ष ठोस अवश्य जान पड़ते हैं, किन्तु उनमें भी ये पंचतत्त्व होते हैं। इसी कारण वे नित्यप्रति बढ़ते हैं, फल-फूल आदि की उत्पत्ति करते हैं। उनके अंदर जो ऊष्मा होती है, उसी के कारण पत्ते, छाल, फल आदि मुरझा जाते हैं। बिजली कड़कने पर वृक्ष में कम्पन होता है। वृक्ष को स्पर्श होना, सुनना आदि सभी गुणों से सम्पन्न पाया जाता है। वे अपनी जड़ों से जल पीते हैं तथा इसी कारण ‘पादप’ कहलाते हैं। उनमें दुःख-सुख का ज्ञान भी देखा गया है एवं इसी कारण वे अचेतन नहीं, बल्कि जीवयुक्त हैं।’’


भरद्वाज ने कहा - ‘‘इन पंचभूतों के बारे में थोड़ा विस्तार से बतायें मुनिवर। इनका हमारे शरीरादि से क्या सम्बन्ध हैं? ये देहधारियों में किस प्रकार समाहित होते हैं?’’


भृगु ने कहा - ‘‘हमारे शरीर में पाँच भूत पूर्णतः समाये रहते हैं। शरीर में अस्थि, त्वचा, मांस, मज्जा एवं स्नायु, ये पाँच पृथ्वीमय हैं। तेज, क्रोध, चक्षु, ऊष्मा एवं जठरानल, ये पाँच अग्निमय हैं। श्रोत्र, घ्राण, मुख, हृदय एवं उदर, ये पाँच आकाशीय अंश हैं। कफ, पित्त, स्वेद, चरबी एवं रुधिर, ये पाँच जलीय अंश हैं। प्राण, अपान, उदान, समान एवं व्यान, ये पाँच वायवीय अंश हैं। जीव भूमि के कारण गन्ध का अनुभव करता है, जल के कारण रस का अनुभव करता है, तेजोमय चक्षु के द्वारा रूप को देखता है तथा वायुमय त्वक् के द्वारा स्पर्श का अनुभव करता है। गन्ध नौ प्रकार के हैं तथा रस मुख्यतः छह प्रकार के हैं। वैसे इसके अनेक प्रकार बताये गये हैं। रूप सोलह प्रकार के हैं तथा स्पर्श बारह प्रकार के होते हैं। शब्द के सात प्रकार बताये गये हैं। जल, अग्नि एवं वायु ये तीन देहधारियों में सर्वदा जाग्रत रहते हैं। ये ही प्राणों के मूल हैं तथा प्राणों में ओत-प्रोत होकर शरीर में स्थित होते हैं।’’


इस प्रकार महर्षि भृगु ने भरद्वाज को इस संसार एवं शरीरों के मूलतत्त्व का वर्णन किया। यही जीव है और यही शरीरधारी है। साथ ही यह भी बताया कि प्रलय के समय वे स्वयम्भू मानस में विलीन हो जाते हैं। 


विश्वजीत 'सपन'

Friday, April 19, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग- 76)



महाभारत की कथा की 101 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

मनुष्य जाति की महत्ता

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प्राचीन काल की बात है। काश्यप नामक एक ब्राह्मण था। वह संयमी एवं तपस्वी था, किन्तु उसके पास धन की कमी थी। इस कारण से उसका अधिक सम्मान न हो पाता था। एक दिन की बात है। वह किसी व्यापारी के साथ उसके रथ में जा रहा था। दोनों के मध्य विवाद हो गया। विवाद बड़ा हो गया और क्रोध में आकर उस धनिक ने काश्यप को रथ से धक्का दे दिया। काश्यप नीचे गिर गया और उसके पैर में चोट लगी। वह विचार करने लगा कि उसका जीवन कितना अधम है। एक धनिक भी उससे अधिक सुखी है। उसे लगा कि उसका जीवन व्यर्थ है, अतः उसने आत्मघात करने की सोची। उसकी ऐसी सोच को जानकर इन्द्र एक सियार का रूप धर कर उसके पास आये और बोले - ‘‘हे ब्राह्मण देवता, आपको क्या कष्ट है?’’


    काश्यप ने अपने मन की बात बता दी और कहा कि उसका जीवन व्यर्थ है। तब उस सियार ने कहा - ‘‘ये आप क्या कह रहे हैं? मनुष्य योनि पाने के लिये तो सभी प्राणी उत्सुक रहते हैं। ऐसा दुर्लभ शरीर पाकर आप उसे ही नष्ट करना चाहते हैं? यह कदापि उचित नहीं है।’’


    काश्यप ने कहा - ‘‘किन्तु जब जीवन व्यर्थ लगे, तो क्या करना चाहिये। ऐसे जीवन से जीवन का न होना ही श्रेयस्कर होता है।’’


    सियार ने कहा - ‘‘हे द्विववर, सबके पास किसी न किसी वस्तु की कमी होती ही है। अब देखिये मेरे हाथ नहीं हैं। मेरे शरीर में काँटे चुभे हुए हैं, किन्तु हाथ न होने के कारण मैं उन्हें निकाल नहीं सकता। मुझे कीड़े काट रहे हैं, किन्तु हाथ न होने के कारण उनसे छुटकारा पाना मेरे लिये संभव नहीं है। जिनके हाथ होते हैं, वे वर्षा, घाम या शीत से स्वयं की रक्षा कर सकते हैं। आपके भी हैं, किन्तु आप इस पर दुःखी हैं?’’


    ब्राह्मण ने कहा - ‘‘तुम नहीं समझोगे। मुझसे अच्छा जीवन तो तुम्हारा है, एक कीड़ा-मकौड़ा भी मुझसे अच्छा जीवन बिताता है।’’


    सियार ने कहा - ‘‘ये आप क्या कह रहे हैं, ब्राह्मण देवता। सभी प्राणी मनुष्य योनि में उत्पन्न होना चाहते हैं। आप न केवल मनुष्य है, बल्कि आप ब्राह्मण भी हैं। ब्राह्मण तो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ होते हैं। आप वेदवेत्ता भी हैं। इस कारण आप पर ईश्वर की कृपा भी हमेशा ही बनी रहती है। इससे अधिक किसी की क्या कामना हो सकती है? आत्महत्या करना पाप है। मुझे देखिये मैं शृगाल योनि में हूँ। यह नीच है, किन्तु कितने इससे भी नीच हैं। भंगी और चाण्डाल भी अपनी योनियों में प्रसन्न रहते हैं तथा अपना शरीर नहीं छोड़ना चाहते।’’


    काश्यप ने कहा - ‘‘यह सब तो ठीक है, किन्तु धन भी तो होना चाहिये?’’


    सियार ने कहा - ‘‘बिल्कुल, किन्तु उतना ही जितना कि आवश्यक हो, अन्यथा धनी हो जाने पर व्यक्ति राज्य चाहने लगता है। एक बार उसे राज्य प्राप्त हो जाये, तो वह देवत्व प्राप्त करने की कामना करने लगता है। यह एक ऐसी तृष्णा है, जो निरन्तर बढ़ती ही जाती है। इस तृष्णा की अग्नि जल से नहीं बुझती, बल्कि ईंधन से अग्नि के समान वह और भी प्रज्वलित हो जाती है। बुद्धि एवं इन्द्रियाँ ही समस्त कामनाओं एवं कर्मों के मूल में होती हैं। उन्हें ही नियंत्रित करने की आवश्यकता होती है।’’


    काश्यप ने सियार की बात मान ली और पूछा - ‘‘तो फिर आप ही बताइये कि मुझे क्या करना चाहिये?’’


    सियार ने कहा - ‘‘आपका शरीर नीरोग है एवं आप पूर्णांग हैं। यदि जातिच्युत करने वाला कोई सच्चा कलंक भी लगा हो, तो भी आपको प्राणत्याग का विचार नहीं करना चाहिये, अपितु आपको धर्म पालन करना चाहिये। आप सावधानी से स्वाध्याय एवं अग्निहोत्र कीजिये, सत्य बोलिये, इन्द्रियों को वश में रखिये, दान दीजिये तथा किसी से भी स्पर्धा मत कीजिये। मैं पूर्वजन्म में एक पण्डित था। मैं कुतर्क करके वेद की निंदा किया करता था। वेदों में मेरी आस्था न थी। मैं बातें बनाया करता था तथा अनावश्यक कुतर्क किया करता था। यह शृगाल योनि मेरे उन्हीं कुकर्मों का फल है। अब मैं दिन-रात विचार करता रहता हूँ कि मुझे किस प्रकार मनुष्य योनि की प्राप्ति हो तथा जानने योग्य वस्तुओं को जान सकूँ एवं त्याज्य को त्याग सकूँ। आप एक श्रेष्ठ प्राणी हैं। आप स्वयं विचार कीजिये कि जो बात मैंने कही वह उचित है अथवा नहीं?’’


    काश्यप एक अनुभवी तपस्वी था। उसे प्रतीत हुआ कि वह सियार कोई साधारण प्राणी नहीं था। उसने प्रणाम किया तो इन्द्र अपने स्वरूप में आ गये। काश्यप ने उनको पुनः प्रणाम कर पूजा की तथा उपदेश ग्रहण कर घर आ गया। उसके मन से सभी विकार मिट गये थे। आत्महत्या का विचार भी अब उसे स्पर्श नहीं कर पा रहा था। उस दिन के बाद से उसने धर्म में अपना मन लगा लिया एवं सुख से रहने लगा।

 
    कहा गया है कि मनुष्य जाति बड़ी कठिनाई से मिलती है। इसे प्राप्त करने के बाद सद्कर्मों से इसका लालन-पालन करना चाहिये, ताकि भविष्य में इससे इतर योनि में जन्म न हो, बल्कि मोक्ष की प्राप्ति हो। 


विश्वजीत 'सपन'

Saturday, April 13, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 75)





महाभारत की कथा की 100 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 

अजगर व्रत का आचरण

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प्राचीन काल की बात है। समस्त प्रकार के राग, भय, लोभ, मोह एवं क्रोध को त्याग करने वाले एक मुनि हुए। उनका नाम अजगर था। वे अत्यन्त ही शुद्धचित्त एवं निर्विकार थे। उनकी इस वृत्ति को अजगर-वृत्ति के नाम से भी जाना जाता था। एक दिन की बात है। असुरराज प्रह्लाद ने उन्हें देखा और वे उनके बारे में जानने को उत्सुक हो गये। उन्होंने उनके आश्रम में जाकर उन्हें प्रणाम किया, तो अजगर मुनि ने उनसे कहा - ‘‘दैत्यराज, आपका मेरे आश्रम में आने का प्रयोजन क्या है? बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’’


    असुरराज प्रह्लाद ने कहा - ‘‘मुनिवर, हम सभी इतना कुछ प्राप्त करने के बाद भी आनन्द का अनुभव नहीं करते, किन्तु आपके पास कुछ भी नहीं है, फिर भी आप आनन्दित रहते हैं। यह कैसे संभव है?’’


    मुनि ने अपनी मधुर वाणी में कहा - ‘‘इस जगत् के उत्पत्ति, ह्रास, वृद्धि और नाश का कारण प्रकृति ही है। यह जानकर न मैं हर्षित होता हूँ और न ही व्यथित। जितने भी संयोग हैं, उन्हें आप वियोग में समाप्त होने वाले ही समझिये। साथ ही जितने भी संचय हैं, उनका अंत भी विनाश में समझिये। आप देखिये और अनुभव कीजिये कि पृथ्वी पर जितने भी स्थावर एवं जंगम प्राणी हैं, उनकी मृत्यु मुझे स्पष्ट दिखती है। गगन में जो समस्त तारे हैं, वे भी एक न एक दिन गिरते ही प्रतीत होते हैं। इस प्रकार समस्त प्रणियों को मृत्यु के अधीन देखकर सबमें समान भाव रखते हुए मैं आनन्द से सोता हूँ। जीवन आनन्द का नाम ही है।’’


    प्रह्लाद की जिज्ञासा बढ़ गयी। उन्होंने पूछा - ‘‘मुनिवर, आपकी वृत्ति क्या है? मुझे थोड़ा विस्तार से बतायें।’’


    मुनि अजगर ने कहा - ‘‘असुरराज, यह जीवन जीने का एक उपाय भर है। अनेक लोग इसे अनेक प्रकार से जीते हैं, किन्तु मेरा अपना मानना है कि यदि अनायास कुछ मिल जाये, तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिये, तब अधिक भोजन भी हो जाये, तो कोई हानि नहीं और यदि कभी न भी मिले तो कई दिनों तक भूखा रह जाना भी कोई अनुचित नहीं। जब जैसा जो होता है, उसे उसी प्रकार स्वीकार करना चाहिये। 


मुझे कभी मूल्यवान वस्त्र मिल जाये, तो उसे स्वीकार कर लेता हूँ तथा नहीं मिले तो सन या चर्म के वस्त्र ही धारण कर लेता हूँ। इससे मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता। दैववश कुछ भी पदार्थ प्राप्त होता है, तो उसका कभी त्याग नहीं करता, किन्तु कभी किसी दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं रखता। मेरे सोने-बैठने का कोई स्थान नियत नहीं है। मैं स्वभाग से ही यम, नियम, व्रत, सत्य एवं शौच का पालन करता हूँ। यही अजगर वृत्ति है। यह अत्यन्त सुदृढ़, कल्याणमय, शोकहीन, पवित्र एवं अतुलनीय है। मैं सर्वथा अन्तःकरण से इस अजगर-वृत्ति का पालन करता हूँ।’’


    प्रह्लाद ने पूछा - ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ, सच में आपने दुर्लभ गति पायी है। आपको किसी लाभ की इच्छा नहीं है और हानि होने पर भी आपको कोई चिन्ता नहीं होती। आप सदा ही तृप्त जान पड़ते हैं। आपके पास ऐसी क्या बुद्धि है अथवा शास्त्रज्ञान है, जिससे आप ऐसा कर पाते हैं? कृपा कर मुझे बताने का कष्ट करें।’’


जन्म-मरण और सुख-दुःख आदि तो विधाता के हाथ में है, ऐसा जानकर ही मैंने भय, राग, मोह एवं अभिमान का त्याग कर दिया है। साथ ही धैर्य एवं बुद्धि को अपनाया है। मन एवं वाणी की उपेक्षा करके इन्द्रियों को वश में कर लिया है। मैं अपने धर्म से कभी च्युत नहीं होता। मुझे किसी फल की इच्छा भी नहीं है। मूढ़मति लोगों को ऐसी बुद्धि दुष्कर प्रतीत होती है, किन्तु इसे सर्वथा निर्दोष तथा अविनाशी मानता हूँ। सबसे बड़ी बात है कि मैं सब प्रकार के दोषों एवं तृष्णाओं को नष्ट कर देता हूँ। इसी कारण मेरी गति परिमित है, मति अविचल है एवं मैं पूर्णतया शान्त हूँ। इस प्रकार मैं बड़े आनन्द से अजगर व्रत का आचरण करता हूँ। यही रहस्य है।’’


कहा जाता है कि जो कोई मनुष्य राग-द्वेष आदि का त्याग कर अजगर वृत्ति का पालन करता है, वह इस लोक में आनन्द से विचरण करता है। उसे शोक एवं दुःख स्पर्श भी नहीं कर पाता है। 


विश्वजीत 'सपन'

Wednesday, April 3, 2019

महाभारत की लोककथा (भाग - 74)


महाभारत की कथा की 99 वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

गुरुओं से सीख

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पूर्वकाल की बात है। बोध्य नामक एक ऋषि हुआ करते थे। वे परम तपस्वी एवं पूर्णतः विरक्त थे। उनकी ख्याति धरती पर दूर-दूर तक फैली हुई थी। राजा-महाराजा सहित सभी उनके दर्शन करने आते थे एवं उनसे शिक्षा तथा उपदेश ग्रहण करते थे। 


    उसी समय धरती पर राजा नहुष के पुत्र ययाति का राज्य था। राजा ययाति उनसे उपदेश ग्रहण करने की इच्छा से उनके आश्रम गये। बोध्य ने उनका अतिथि के समान स्वागत किया और फल आदि देने के उपरान्त उनसे पूछा - ‘‘राजन्! आपका मेरे आश्रम में स्वागत है। आप किस प्रयोजन से यहाँ पधारे हैं, कृपया मुझे बतायें।’’


    राजा ययाति ने मुनि को प्रणाम करके कहा - ‘‘मुनिवर, आप ज्ञानी हैं एवं संसार के मोहों से मुक्त हैं। आप मुझे उपदेश दें, ताकि मैं भी अपने कर्तव्य का पालन कर सकूँ।’’


    बोध्य मुनि स्पष्टवक्ता एवं अभिमान रहित थे। उन्होंने कहा - ‘‘राजन्! मैं किसी को उपदेश नहीं देता, अपितु मैं स्वयं ही दूसरों के उपदेश के अनुसार आचरण करता हूँ।’’


    राजा ययाति ने कहा - ‘‘मुनिश्रेष्ठ! आप जैसे गुरु की बातें सुनकर ही मनुष्य धन्य हो जाता है। आप मुझ पर कृपा करें एवं बतायें कि ऐसी कौन-सी बुद्धि है जिसका आश्रय लेकर आप शान्त एवं सानन्द रहते हैं।’’


    बोध्य ऋषि ने कहा - ‘‘राजन्! मनुष्य में सीखने की प्रवृत्ति होनी चाहिये। वह कभी भी तथा किसी से भी सीख सकता है। आपकी सीखने की प्रवृत्ति को देखते हुए मैं अपने गुरुओं की बातें आपसे साझा करना चाहता हूँ।’’


    राजा ययाति ने कहा - ‘‘आपके समस्त गुरुओं को मेरा सादर प्रणाम है गुरुवर। आपकी कही एक-एक बात मेरे लिये जीवन-यापन का साधन बनेगा।’’


    बोध्य ने कहा - ‘‘तो सुनिये महाराज! आप किसी को भी अपना गुरु बना सकते हैं, क्योंकि सबसे बड़ी वस्तु सीख होती है। यही जीवन को दिशा प्रदान करती है। मेरे छः गुरु हैं - पिंगला, कुरुरपक्षी, सर्प, सारंग, बाण बनाने वाला एवं कुमारी। आपको पिंगला के जीवन का पता ही होगा।’’


    राजा ने कहा - ‘‘जी गुरुदेव, आपके श्रीमुख से सुनने से अवश्य मेरा कल्याण होगा।’’


    बोध्य ऋषि ने कहा - ‘‘पिंगला निराशा में जीती थी। आशा प्रबल होती है, किन्तु सुख निराशा में होता है। पिंगला एक वेश्या थी, जिसे किसी से प्रेम हो गया था। एक दिन उसकी बाट जोह रही थी, किन्तु वह न आया। उस समय उसने सोचा कि आशा करना व्यर्थ है और वह सुख से रहने लगी। आशा को निराशा में बदलकर जीवन को सुखमय किया जा सकता है।’’


    राजा ने कहा - ‘‘उचित है मुनिवर, यह करुरपक्षी का क्या दृष्टान्त है?’’


    बोध्य ने कहा - ‘‘एक दिन की बात है। एक करुरपक्षी को मांस का एक टुकड़ा मिला। यह अन्य पक्षियों ने देख लिया। उस एक मांस के टुकड़े को पाने के लिये सभी पक्षी उस करुरपक्षी पर झपट पड़े, उसे मारने लगे। तब विचारकर उस करुरपक्षी ने उस मांस के टुकड़े को फेंक दिया। उसे बड़ा चैन मिला। जीवन में यह सीख बड़ी महत्त्वपूर्ण होती है। वस्तु को छोड़ देने से सुख की प्राप्ति होती है, जबकि उसे पकड़े रहने से दुःख होता है।’’


    राजा ययाति ध्यानपूर्वक ऋषि बोध्य की बातें सुन रहे थे। ऋषि ने कहना जारी रखा - ‘‘राजन्! एक सर्प को देखिये, वह अपना बिल कभी नहीं बनाता। वह दूसरे के बिल में जाकर चैन से रहता है। उसे अपना घर बनाने का झंझट ही नहीं है। अपना-अपना से ही दुःख मिलता है। सुख तो तब मिलता है, जब हमें जो है, वही उचित है की संतुष्टि मिलती है, तब सुख प्राप्त होता है। सारंग पक्षी को देखिये। वे अहिंसावृत्ति से कंद, बीज, अनाज आदि ग्रहण करके अपना जीवन यापन करते हैं। वे कभी भी किसी को कोई कष्ट नहीं पहुँचाते। इसी प्रकार का जीवन एक मनुष्य को जीना चाहिये।’’


    राजा ययाति की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी कि जीवन को देखने का दृष्टिकोण मुनिवर का कितना निराला था। वे विचार भी कर रहे थे तथा ध्यान से सुन भी रहे थे।


    बोध्य ने कहा - ‘‘एक दिन की बात है। मैंने एक बाण बनाने वाले को देखा। वह अपने कार्य में पूर्णतः निमग्न था। उसी समय उसके पास से राजा की सवारी निकली। उस बाण बनाने वाले को पता भी न चला कि कुछ हो भी रहा था। वह अपने कार्य में दत्तचित्त था। इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को अपना कार्य करना चाहिये। निमग्नता से कार्यसिद्धि होती है।’’


    राजा ययाति जीवन के रहस्य को समझते जा रहे थे। छोटे-छोटे उदाहरण से ऋषि बोध्य उनको जीवन का ज्ञान प्रदान कर रहे थे।


    बोध्य ने आगे कहा - ‘‘राजन्! मेरे छठे गुरु हैं एक कुमारी कन्या। यह कन्या धान कूट रही थी। उसके हाथ में चूड़ियाँ थीं। जब वह धान कूटती, तो उन चूड़ियों से ध्वनि निकलती थी। इससे उसे बाधा आ रही थी। उसने चूड़ियाँ तोड़ दीं और दोनों हाथों में एक-एक रहने दिया। अब ध्वनि आनी बंद हो गयी। इससे सीख मिलती है कि अधिक लोग एक साथ रहते हैं, तो कलह होती ही है। दो-दो भी रहें, तो भी बातचीत होती ही है, अतः मैं भी जीवन में अकेला रहूँगा एवं विचरण करूँगा, यह निर्णय मैंने लिया। इन छः गुरुओं के अनुसार ही मैं आचरण करता हूँ।’’


    राजा ययाति को अब कुछ पूछने की आवश्यकता न थी। वे सीख चुके थे कि छोटी-छोटी वस्तुयें भी जीवन में सीख प्रदान करती हैं। उचित दृष्टिकोण हो, तो जीवन को सदा के लिये सुखमय बनाया जा सकता है। गुरु मात्र मानव-शरीरधारी नहीं होते, वे कुछ भी तथा कोई भी हो सकते हैं।