Thursday, November 5, 2015

गीता ज्ञान - 17




                                                         अथ सप्तदशोऽध्यायः
                                                         श्रद्धात्रय-विभागयोग

 

सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि जो पुरुष शास्त्र-विधि का उल्लंघन कर मनमाने ढंग से आचरण करता है, वह सिद्धि, सुख एवं परम गति को प्राप्त नहीं कर सकता है। इसी बात पर सतरहवें अध्याय की भूमिका रखी जाती है, जब अर्जुन प्रश्न करते हैं कि ऐसे आराधकों की क्या गति होती है। इस पर भगवान् उन्हें विस्तार से श्रद्धा के सभी वर्गों के बारे में बताते हैं, यज्ञ, तप एवं दान के वर्गीकरण भी बताते हैं और बाद में ओम्, तत् एवं सत् शब्दों की व्याख्या भी करते हैं। 

श्रद्धा ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूलाधार है। श्रद्धा ही साधना और सिद्धि का द्वार है। मनुष्य श्रद्धा प्रधान है - ‘श्रद्धामयोऽये पुरुषः’। श्रद्धा के अनुसार ही क्रिया में प्रवृत्ति होती है। सभी मनुष्य दुःख से मुक्ति और सुख से संयोग की कामना रखते हैं, किन्तु इस प्रयोजन हेतु क्रिया में प्रवृत्ति उनकी श्रद्धा के अनुसार होती है। इन्हीं के वर्गीकरण को इस प्रकार बताते हैं।


त्रिविधा भवित श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।गी.17.2।।


भगवान् कहते हैं कि स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी, राजसी तथा तामसी इन तीनों प्रकार की होती है। सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। अस्तु जो जैसी श्रद्धा करता है, वैसा ही बन जाता है। इस प्रकार इस अध्याय में श्रद्धा का वर्गीकरण किया गया है और उनके बारे में सविस्तार बताया गया है।


सात्त्विक पुरुष देवोपासक होते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों के, जबकि तामस पुरुष भूत-प्रेतों के उपासक होते हैं। भोजन भी प्रकृति के अनुसार सात्त्विक, राजस और तामस होते हैं। वैसे ही यज्ञ, तप और दान की भी तीन श्रेणियाँ होती हैं। सात्त्विक आहार आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले होते हैं। कड़वे, खट्टे, नमकीन, बहुत गरम, तीखे, रूखे, जलन पैदा करने वाले, दुःख, चिंता एवं रोगोत्पादक आहार राजस कहलाते हैं। अधपका, रसहीन, दुर्गन्ध युक्त, बासी और उच्छिष्ट एवं अपवित्र आहार तामस कहलाते हैं। 


ठीक उसी प्रकार शास्त्र-विहित, कर्तव्य भावना से प्रेरित और फल की आसक्ति से रहित यज्ञ सात्त्विक कहलाता है। प्रदर्शन के लिये और फल की आसक्ति से सम्पन्न यज्ञ राजसी यज्ञ कहलाता है। शास्त्र-विध से विहीन, अन्न-दान रहित, बिना मंत्र और दक्षिणा के तथा बिना श्रद्धा से किये गये यज्ञ तामस कहलाते हैं। 


देवता, ब्राह्मण एवं गुरुजनों के पूजन से युक्त, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा से प्रेरित सम्पन्न होने वाले कार्य शरीर-सम्बन्धी तप कहा जाता है। मनःप्रसाद, सौम्यता, मौन, आत्मनिग्रह एवं अत्नःकरण के भावों की पूर्ण पवित्रता मन सम्बन्धी तप कहे जाते हैं। ये तीनों प्रकार के तप सात्त्विक कहे गये हैं। सत्कार, मान और पूजा के लिये, अन्य किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिये घमण्ड से किया गया, अनिश्चित एवं क्षणिक फल वाला तप राजस कहलाता है। मूढ़ता एवं हठपूर्वक, कष्टसहित अथवा दूसरों का अनिष्ट करने के लिये किया गया तप तामस कहलाता है।


देश, काल एवं पात्रता को ध्यान में रखकर निःस्वार्थ भाव से दिया गया दान सात्त्विक कहा गया है। क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल की दृष्टि से किया गया दान राजस कहा गया है। तिरस्कारपूर्वक अथवा बिना सत्कार के देश, काल और पात्रता को ध्यान में न रखकर कुपात्र को दिया गया दाप तामस कहा गया है।
इसके पश्चात् ओम्, तत् एवं सत् की महिमा के बारे में इस अध्याय में बताया गया है।


ऊँ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणस्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।गी.17.23।।


अर्थात् ‘ऊँ तत् सत्’ इन तीन शब्दों को ब्रह्म का नाम कहा गया है। उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गये।


‘ओम’ परमात्मा का ही नाम है। अतः शास्त्र-विहित यज्ञ, दान और तप की क्रियायें सदा ही ‘ओम’ नाम के उच्चारण करके ही प्रारम्भ होती है। तैतिरीय उपनिषद के अष्टम अनुवाक् में कहा गया है - ‘ओमिति ब्रह्म, ओमिति सर्वम्’। ‘तस्य वाचकः प्रणवः’। प्रणव परमात्मा का वाचक है। ऊँ और प्रणव समानार्थी हैं। जो प्राणों के साथ संचरण करे, वह प्रणव है, अतः प्रत्येक मन्त्र के पूर्व प्रणव अथवा ओम जोड़ा जाता है। ‘तत्’ शब्द परमसत्ता परमेश्वर का संकेत-सूचक है, अर्थात् ‘तत्’ नामधारी परमात्मा का ही सब-कुछ है। मेरा कुछ नहीं, सभी उसी परमात्मा का है। इस भाव से फल की कामना न करते हुए यज्ञादि क्रियायें कर्मबन्धन से मुक्ति पाने वाले द्वारा की जाती है। ‘सत्’ परमात्मा की नित्यता और श्रेष्ठता का सूचक है। वही सर्वोपरि है, वही सर्वोत्तम है। इस प्रकार से परमात्मा का नाम जानकर सत्य भाव में ‘सत्’ का प्रयोग किया जाता है। यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति आती है, वह भी ‘सत्’ ही है। परमात्मा को समर्पित किया गया कर्म भी ‘सत्’ ही है। इसके विपरीत बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और किया गया तप ‘असत्’ है। ओम, तत् और सत् इन तीनों शब्दों में पूरा अध्यात्म सिमटा हुआ है।


जो मनुष्य शास्त्र-विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तपस्या करते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भरे हैं, वे आसुरी स्वभाव वाले कहे गये हैं। अतः श्रद्धाहीन कर्म न तो जीवन-काल में और नहीं मृत्यु के बाद ही श्रेयस्कर होता है। इस प्रकार भगवान् अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं।


विश्वजीत ‘सपन’