वैशम्पायन जी ने जनमेजय को इक्ष्वाकु वंश के राजा महाभिष की कथा सुनाई, जो पुरुवंश के राजा प्रतीप के पुत्र शांतनु बने। इसी शांतनु के पुत्र देवव्रत भीष्म थे, जो आठ वसुओं में से एक थे, जिन्हें मुनि वशिष्ठ के शाप के कारण मनुष्य-योनि में जन्म लेना पड़ा और शाप के कारण अनेक कष्ट भोगने पड़े।
महाभारत, आदिपर्व
महाभारत, आदिपर्व
बहुत समय पहले की बात है। हस्तिनापुर नामक एक राज्य था। वहाँ शांतनु नाम के राजा राज्य किया करते थे। उनकी पहली पत्नी गंगा उन्हें छोड़कर चली गई। राजा दु:खी तो बहुत हुए, किन्तु उन्होंने अपना मन प्रजा की सेवा में लगा लिया था। इसके साथ ही वे अपने बेटे देवव्रत का अच्छी तरह से लालन-पालन करने में समय व्यतीत कर रहे थे।
एक दिन की बात है। शांतनु यमुना नदी के किनारे घूम रहे थे। तभी उन्हें बड़ी अच्छी सुगंध लगी। वह सुगंध मन को लुभाने वाली थी। राजा उसकी ओर बरबस ही खिंचे चले गए। थोड़ी दूर जाने पर उन्हें मछुआरों की एक बस्ती मिली। सुगंध वहीं से आ रही थी, किन्तु कहाँ से यह उन्हें सता रहा था। इस जिज्ञासा में वे और आगे बढ़े तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। असल में वह सुगंध एक बहुत ही सुन्दर स्त्री से आ रही थी। शांतनु उसके पास गए और पूछा।
‘तुम कौन हो देवी?’
‘मैं मछुआरे की बेटी सत्यवती हूँ।’ उस स्त्री ने जवाब दिया।
राजा सोच में पड़ गए। मछुआरे की बेटी के शरीर से तो मछली की गंध आती है। अवश्य इसमें कोई न कोई रहस्य है। यह मछुआरे की बेटी नहीं हो सकती। वैसे भी सत्यवती की सुन्दरता पर वे मर मिटे थे। सोचने लगे, यदि यह उनकी पत्नी बन जाए तो कितना अच्छा हो। यह सोचकर राजा ने पूछा।
‘क्या तुम मुझे अपने पिता के पास ले चलोगी?’
‘आइए, यहीं बगल में ही हमारी झोपड़ी है।’ यह कहकर सत्यवती राजा को अपनी झोपड़ी के पास ले गई।
सत्यवती के पिता ने राजा को देखा तो प्रणाम कर बोला - ‘हमारे अहोभाग्य जो आप हमारी कुटिया में पधारे। कहिए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’
राजा ने तब उसे सारी बात बताई। साथ ही यह भी कहा कि वे सत्यवती से विवाह करना चाहते थे।
मछुआरा बोला - ‘राजन् जब से यह दिव्यकन्या मुझे मिली है, तभी से इसके लिए योग्य वर की चिंता रही है। आपके जैसा वर इसे कोई नहीं मिल सकता। किन्तु ...।’
यह कह कर मछुआरा रुक गया तो राजा ने चिंतित होकर पूछा।
‘किन्तु क्या?’ राजा अधीर हो रहे थे।
‘मेरी एक शर्त है।’ मछुआरे ने दबे स्वर में कहा।
‘शर्त ! कैसी शर्त है?’ राजा ने पूछा।
‘देखिए राजन्, हर बाप को बेटी की चिंता रहती ही है। मुझे भी है। इसलिए आप यदि यह प्रतिज्ञा करें कि आपके बाद इसका ही पुत्र राजा होगा तो आप इससे शादी कर सकते हैं।’ मछुआरे ने अपनी शर्त बताई।
राजा चिंतित हो गए। युवराज देवव्रत के होते किसी और को राजा बनाना उचित नहीं था। वे दु:खी मन से हस्तिानापुर लौट आए। लेकिन सत्यवती को भुला नहीं पाए। उनका किसी काम में मन नहीं लगता था। उस दिन के बाद से वे उदास रहने लगे। नाना प्रकार के यत्न करने के बाद भी उनकी उदासी दूर नहीं हो सकी।
एक दिन देवव्रत ने उनसे कहा - ‘पिताजी, आप अपने दु:ख का कारण बताइए। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि उसे किसी भी कीमत पर दूर करूँगा।’
राजा अपने बेटे से अपनी शादी की बात कैसे कर सकते थे। उन्हें संकोच हो रहा था। फिर कुछ सोचकर उन्होंने दूसरे तरीके से उससे कहा - ‘बेटे, तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो। भगवान् न करे यदि तुम्हें कुछ हो जाए तो मेरे वंश का नाश हो जाएगा। इसलिए मुझे अपने वंश की चिंता है।’
देवव्रत प्रौढ़ और बुद्धिमान थे। वे समझ गए कि मामला क्या है। किन्तु वह कौन होगी, इसकी जानकारी उन्हें प्राप्त करनी थी। इसलिए उन्होंने गुप्तचरों से सारी बात पता करवाई और उस मछुआरे की बस्ती में गये। वहाँ जाकर उन्होंने सत्यवती के पिता से कहा।
‘मान्यवर, आपकी शर्त को रखने के लिए मैं शपथ लेता हूँ कि माता सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा। आप माता सत्यवती का विवाह मेरे पिता के साथ कर दें।’ देवव्रत ने कहा।
सत्यवती का पिता उसकी प्रतिज्ञा से बहुत खुश हुआ। फिर भी संतुष्ट नहीं हुआ। उसके मन में अब भी शंका थी।
उसने कहा - ‘हे गंगापुत्र, मुझे आपकी प्रतिज्ञा में कोई संदेह नहीं है। लेकिन आपसे बड़ा वीर भी कोई नहीं है।’
‘मैं आपका आशय नहीं समझा। आप कहना क्या चाहते हैं? मेरे वीर होने से किसी का नुकसान नहीं हो सकता?’ देवव्रत ने पूछा।
‘क्षमा कीजिएगा। बाप हूँ, बेटी के लिए सोचना ही पड़ता है। असल में मेरा मतलब यह है कि आप जिसके शत्रु हो जाएँ, वह जीवित नहीं रह सकता। कहीं ऐसा न हो कि आपके पुत्र सत्यवती के पुत्र से उसका राज्य छीन लें।’ सत्यवती के पिता ने बड़ी शिष्टता से बहुत बड़ी बात कह दी।
देवव्रत उनका आशय समझ गए और बोले - ‘ठीक है। यदि आपको ऐसा लगता है तो आज मैं एक और प्रतिज्ञा करता हूँ। मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा।’
देवव्रत के ऐसा कहते ही आकाश से फूल बसरने लगे। हवा जोर-जोर से बहने लगी। बिजली की चमक और कड़कड़ाहट से आसमान गूँज उठा। अलौकिक ध्वनियों ने पूरे ब्रह्माण्ड को इस प्रतिज्ञा का अनुभव करा दिया। तीनों लोकों में उनकी प्रतिज्ञा की गूँज सुनाई दी। उनकी इस कठिन प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पड़ा। ऐसी कठिन प्रतिज्ञा को आज भी भीष्म-प्रतिज्ञा कहा जाता है।
सत्यवती और उसके पिता देवव्रत के इस बलिदान से दंग रह गए। हस्तिनापुर की प्रजा ने यह सुनकर दाँतों तले उँगली दबा ली। देवताओं ने ‘धन्य हो’ कहकर देवव्रत की प्रतिज्ञा का स्वागत किया। शांतनु ने यह समाचार सुना तो देवव्रत को गले लगाकर बोले -‘पुत्र तुम्हारा यह त्याग युगों-युगों तक याद रखा जायेगा।’
फिर उन्होंने देवव्रत को एक वरदान भी दिया कि वे जब तक जीना चाहें, उन्हें मृत्यु छू नहीं सकती। उसके बाद शुभ समय देखकर शांतनु ने सत्यवती से शादी कर ली। समय के साथ सत्यवती के दो पुत्र हुए - चित्रांगद और विचित्रवीर्य। दोनों ही बालक बड़े होशियार और बहादुर थे। चित्रांगद बड़े थे और विचित्रवीर्य छोटे।
चित्रांगद अभी बालक ही थे कि शांतनु की मृत्यु हो गई। देवव्रत ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बालक चित्रांगद को हस्तिनापुर की राजगद्दी पर बिठा दिया। चित्रांगद छोटे थे, लेकिन उनमें राजा के अच्छे गुण थे। उन्होंने छोटी उम्र में ही आस-पड़ोस के सभी राजाओं को हराकर हस्तिनापुर का नाम और ऊँचा कर दिया। यहाँ तक कि देवताओं के लिए भी खतरा बन गये।
देवताओं ने उनकी इस वीरता पर रोक लगाने के लिए गन्धर्वों को भेजा। तब सरस्वती नदी के किनारे बड़ा ही भीषण युद्ध हुआ। चित्रांगद इस युद्ध में पराजित हुए और मारे गए। तब देवव्रत ने विचित्रवीर्य को हस्तिनापुर का राजा बनाया। वे उसके अंगरक्षक बनकर राज्य चलाने लगे क्योंकि विचित्रवीर्य अभी बहुत छोटे थे।
समय के साथ जब विचित्रवीर्य बड़े हुए तो उनका विवाह संपन्न हुआ। उनकी दो रानियाँ थीं - अम्बिका और अम्बालिका। किन्तु उनके कोई संतान नहीं हुई। दुर्भाग्य से विचित्रवीर्य यौवन में ही क्षय रोग के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गए। सत्यवती के वंश को चलाने वाला कोई नहीं बचा। तब सत्यवती ने देवव्रत से प्रार्थना की कि वे विवाह कर लें। किन्तु देवव्रत अपनी प्रतिज्ञा पर टिके रहे।
विवश होकर सत्यवती ने व्यास जी को याद किया। उनसे प्रार्थना की - ‘बेटे, तुम्हारा भाई विचित्रवीर्य बिना संतान के ही मर गया। अब वंश चलाने के लिए तुम्हीं कुछ उपाय करो।’
व्यास जी ने कृपा की और योग बल से अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पाण्डु को जन्म दिया। उन्होंने ही एक दासी से विदुर को भी जन्म दिया। अपनी-अपनी माता के दोष के कारण धृतराष्ट्र अंधे और पाण्डु पीले पैदा हुए। धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे। इसलिए पाण्डु को राजा बनाया गया। उसके बाद धृतराष्ट्र की शादी गान्धारी से और पाण्डु की शादी कुन्ती से हुई। सत्यवती का वंश चलने लगा।
एक दिन की बात है। पाण्डु शिकार खेलने गए। गलती से उनका तीर एक ऋषि को जा लगा। ऋषि ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया। उसी शाप के कारण पाण्डु की मृत्यु हो गई। सत्यवती को इस घटना से बहुत दु:ख हुआ। वह अम्बिका और अम्बालिका के साथ जंगल में जाकर तपस्या करने लगी। तपस्या पूरी होने पर उन सबों ने अपने देह का त्याग कर दिया।
विश्वजीत 'सपन'
10.06.2013